मेरे भीतर बहती है एक नदी
जिसके तटों पर आकर रोज़ रोती हैं
कुछ स्त्रियां
सबके अपने अपने दुःख होते हैं
कोई पति की यातनाओं से परेशान है
तो कोई दहेज प्रताड़ना से प्रताड़ित
ससुराल वालों से
किसी को रोज़ शराबी पति इसलिए पीटता है कि
वह हर बार लड़की ही जन रही है
इसलिए हर बार अब उसे
गर्भपात की यंत्रणा से गुज़रना पड़ता है
और कोई इसलिए रोती है कि
उसके वैधव्य की मजबूरी का लाभ उठा
सरपंच उसे अपनी रखैल बनाकर रखना चाहता है
कुछ स्त्रियां अपनी देह पर उभरे नीले निशान
एक दूसरे को दिखाती हैं और रोती हैं
मैं भी उस बहती नदी के तट पर आकर
उनकी पीड़ा में शामिल हो जाना चाहता हूँ
उन्हें मुक्ति का मन्त्र बताना चाहता हूँ
परन्तु जैसे ही उन्हें
मेरे पुरुष होने का एहसास होता है
वे अपनी पीड़ा अपने भीतर छुपा लेतीं हैं
और मुझे देख कर मुस्करा देतीं हैं
वे जानती हैं संसार बहेलियों से भरा पड़ा है
इसलिए वे अब चुपचाप अपनी पीड़ा अंतर् में दबाए
अपनी – अपनी मंज़िल की ओर चल देती हैं
मेरे भीतर की नदी का तट सूना हो उठता है
मैं उस रुदन क्रंदन से व्यथित हुआ
नदी के तट पर देर तक बैठा – बैठा रोता रहता हूँ …..||
अशोक दर्द
Striyon k manodasha ka gahraayee se kiya gaya aakalan aur manovarnan, sateek aur sarthak! !