allah maar daala fashion ne heading

-रिपुदमन जीत ‘दमन’

आज के दौर में फ़ैशन का तो यह आलम है कि आज एक फ़ैशन तो कल दूसरा। सुबह कोई और तो शाम को कुछ और। हमारे पड़ोसी वर्मा जी का बेटा, हाथ में कपड़ों का बैग थाम बदहवासी की दशा में भागता आ रहा था। पूछने पर बोला कि दर्ज़ी के यहां से कपड़े लेकर आया है। “तो इसमें इतना बदहवासी में भागने की क्या तुक थी? कहीं कोई दुर्घटना हो जाती तो?” उत्तर मिला कि डर था कहीं घर पहुंचते-पहुंचते फ़ैशन ही न बदल जाए। ईंट उठाने से फ़ैशन डिज़ाइनर निकलते हैं। किसी पार्टी में जाओ एक से बढ़ कर एक डिज़ाइनर कपड़े देखने को मिलते हैं। कोई रितु कुमार तो कोई मनीष मलहोत्रा, कोई अन्ना सिंह तो कोई नीता लुल्ला के डिज़ाइन किए हुए कपड़े। किसी दम्पति को उनके बच्चों के विषय में पूछो तो मालूम होगा कि दिल्ली के निफ्ट में फ़ैशन डिज़ाइनिंग का कोर्स कर रहे हैं।

जनाब फ़ैशन तो सभी करते हैं, लेकिन हम कोई फ़ैशन करते हैं तो न जाने क्यों लोगों की और विशेषकर पड़ोसियों की छाती पर सांप लोट जाता है। घर में तो ऐसा तूफ़ान आता है जैसे सब के सिर पर पहाड़ टूट पड़ा हो। हम जब मां की जवानी की तसवीरें देखते हैं तो अपने समय के अनुसार उन्होंने भी फ़ैशन किया। खूबसूरत बॉर्डर और फीते वाली साड़ियां (बिलकुल वैसी जैसी ‘सिन्दूर तेरे नाम का’ धारावाहिक में तन्वी आज़मी पहनती हैं) और बिना बाजू के चोली। जब हमने बिना बांह के कमीज़ पहना तो घर में भूकम्प ही आ गया। पर साहब हम भी ठहरे हम, हमेशा अपने ही मन की करी।

बात उस समय की है जब खूब टाइट कपड़ों का फ़ैशन था जैसे सिने-तारिकाएं साधना, आशा पारिख, मुमताज़, सायरा बानो और नन्दा अपनी फ़िल्मों में पहनती थीं। चूड़ीदार के साथ ऐसी कसी हुई कमीज़ कि सांस लेना भी कठिन था सलवार के पायंचे इतने छोटे कि साइडों पर हुक लगे होते। भगवान् की दया से फिगर अच्छी थी, सभी ड्रेस सूट करते थे। ऐसे में हम भी बाज़ार से सिल्क और कॉटन के सभी रंगों में सूटों के कपड़े ले आए। किसी पर कश्मीरी कढ़ाई तो किसी पर सिंधी, किसी पर पटियाला की तो किसी पर राजस्थान का शीशे का काम। किसी पर गुजराती तो किसी पर मशीनी कढ़ाई जहां कराई एक पीकॉक ब्लू रंग के सिल्क के सूट पर सुनहरे धागे से चिनार के पत्तों की कढ़ाई साइडों पर कराई जहां सिलाई आती है। हमारी कमीज़ों की बैक पर या तो ज़िप लगी होती या ऊपर से नीचे तक हुक। रिक्शा में भी बड़े स्टाइल से टांग घुमा कर बैठना पड़ता। मित्र मंडली, आश्‍चर्य-चकित होती कि आख़िर हम पीछे हुक कैसे लगा लेते हैं, परन्तु बॉडी फ़्लेक्सिबल होने के कारण हमें किसी समस्या का सामना न करना पड़ता।

जब चिनार के पत्तों वाला सूट दर्ज़ी को सीने के लिए दिया तो उसकी फिटिंग ही ठीक नहीं आ रही थी। हमने दर्ज़ी से कहा, “देखो, मास्टर जी, अगली और पिछली ओर के पत्ते आपस में मिलने चाहिए, वरना कढ़ाई की सुन्दरता ही समाप्‍त हो जाएगी।” टेलर जो अब तक तंग आ चुका था। तनिक तेज़ स्वर में बोला, “देखिए मैडम, मैं अंग्रेज़ों के ज़माने से कपड़े सी रहा हूं। ऐसी फिटिंग तो कभी मेमों ने भी नहीं मांगी थी।” हमने उसके स्वर पर बिना ध्यान दिये हँसते हुए कहा, “कोई बात नहीं मास्टर जी, इसकी फिटिंग तो ठीक कीजिए आइन्दा कहीं और से सिलवा लेंगे।” मित्र-मंडली प्राय कहती कि मत किया करो इतने फ़ैशन तो हम जवाब देते कि जब तक फिगर पर कोई ड्रेस सूट करता है अवश्य पहनेंगे, जब नहीं करेगा तो छोड़ देंगे। फिर ऊपर जाकर धर्मराज को भी तो जवाब देना है कि फलां फ़ैशन हमने क्यों नहीं किया। हमारी जिरह उन्हें निरुत्तर कर देती। हम उन युवतियों में से तो थे नहीं जिनके चार-चार पेट दिखाई देते हों लेकिन पहनेंगी टाइट कपड़े ही।

एक दिन हम चिनार के पत्तों वाला सूट पहन कर कॉलेज गए। अगला पीरियड ख़ाली था। हमने स्टूडेंटस को टैस्ट दे दिया। विज्ञान पढ़ाने वाले लैक्चरार तो क्षण भर के लिए भी कक्षा में बैठ नहीं सकते क्योंकि बात-बात पर ब्लैक-बोर्ड की आवश्यकता पड़ती है। हम टैस्ट देकर थोड़ा रिलेक्स करने को कुर्सी पर बैठ गए। तभी पीरियड समाप्‍त हो गया। हम कुर्सी से उठने लगे पर उठा नहीं गया। दोबारा चेष्‍टा की फिर भी नाकाम। हमने एक स्टूडेंट को रोक कर कहा, “देखो, सामने कैमिस्ट्री लैब में जो मैडम बैठी है ज़रा उन्हें भेजना।” उधर से जवाब आया कि पीरियड समाप्‍त हो गया है वह स्वयं ही आ जाएं। हमने फिर संदेशा भेजा कि अति आवश्यक काम है तुरन्त बाहर आए। उसने फिर इन्कार कर दिया। हमने एक बार फिर उठने की आख़िरी नाकाम कोशिश की परन्तु निराशा ही हाथ लगी। मारे खिसियाहट के हमारा बुरा हाल हो रहा था। पर्स से डायरी निकाल हमने उस पर लिखा, “एमरजेंसी है, फौरन बाहर आओ, वरना हमसे बुरा कोई न होगा।” इस फ़ार्मूले ने काम किया। पढ़ते ही वह घबरा कर भागी-भागी आई और आते ही क्रोधपूर्वक हम पर बरस पड़ी, “आख़िर हुआ क्या है तुम्हें जो यहां बैठे-बैठे हुक्म चला रही हो? तुमसे खुद नहीं आया जाता था?” “अगर हम स्वयं आने की हालत मे होते तो क्या तुम्हारी ही मिन्नतें करते” वह हैरान-परेशान हमारी ओर देखे जा रही थी। फिर बोली, “हुआ क्या है तुम्हें कुछ तो बोल अच्छी ख़ासी तो दिख रही हो। उसके चेहरे से तनाव झलक रहा था।” पहले कुर्सी की बैक में से हमारी कमीज़ का हुक तो निकालो तब ही तो उठेंगे। हमने निहायत मासूमियत से कहा। कुछ देर तो वह हमें आश्‍चर्यपूर्वक घूरती रही और फिर हुक निकालने लगी जो बुरी तरह से कुर्सी की बेंत में फंसा हुआ था। “अब तो पता चल गया कि क्या एमरजेंसी थी? हमने पूछा फिर दोनों खिल-खिलाकर हंसने लगे।” वह बोली “और किया कर फ़ैशन। यह तो गनीमत है कि कॉलेज के अंदर हो और क्लास भी समाप्‍त हो गई है। कहीं और होती तो जलूस ही निकल जाता।” “पता तो हमें पहले ही चल गया था। दो-तीन बार उठने की चेष्‍टा भी की थी, जब सफलता नहीं मिली तो पीरियड ख़त्म होने की प्रतीक्षा करने लगी।” हम भोला-सा चेहरा बना कर बोले।

तभी देखा प्रिंसिपल राउंड पर आ रही हैं हम दोनों ने उन्हें विश किया। वे हमारी ओर देख रही थी और शायद सोच रही होगी कि हम इतने बेअदब कैसे हो गए कि उन्हें देख कर भी खड़े नहीं हुए। उनके चेहरे के भाव पढ़ हम बोले, “मैडम, प्लीज़ हमें क्षमा कीजिएगा, हमारे साथ बहुत बड़ी ट्रेजडी हो गई है, हम उठ नहीं सकते” वह जिज्ञासापूर्ण दृष्‍टि से हमारी ओर देख रही थी और हमने जब उन्हें पूरी दास्तान कह सुनाई तो वह भी अपनी हंसी रोक न सकी। अब हम तीनों के ठहाकों से सारा वातावरण गूंज उठा। जो भी स्टूडेंट या लेक्चरार वहां से गुज़रते, हमें हैरानी से देखते कि आख़िर माजरा क्या है? प्रिंसिपल ने भी मज़ाक में पूछा, “क्या भविष्य में भी करोगी यह फ़ैशन?” “अफ़कोर्स मैडम, फ़ैशन तो आख़िर करने के लिए ही होता है। हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा।”

 

 

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