-मुकेश अग्रवाल
दीपावली की रात थी। वातावरण में चारों ओर पटाखों का शोर गूंज रहा था। सभी लोग अपने-अपने प्रिय जनों को बधाई दे रहे थे। मैं चुपचाप अपने कमरे में बैठा था। तभी मेरे कानों में बच्चों का स्वर सुनाई पड़ा।
‘पापा! पापा! अलमारी में से पटाखों के पैकेट निकाल दो न।’ बच्चों ने मुझे झंझोड़ते हुए कहा। मैं मौन रहा।
‘आख़िर ऐसा क्या है उन पटाखों में जो उन्हें साल भर से रखे बैठे हो।’ मुझे चुप देख कर पत्नी ग़ुस्से में बोली।
पिछले साल दफ़्तर के ज़रूरी काम से पटाखों के मशहूर शहर शिवाकासी जाना हुआ। सस्ते जानकर बच्चों के लिए ढेर सारे पटाखे भी ख़रीद लिए। घूमते-घूमते पटाखे बनाने वाली फै़क्टरी देखने की इच्छा हुई। फै़क्टरी के समीप श्रमिकों के कच्चे घर और घासफूस के छप्परों के नीचे छोटे-छोटे अधनंगे बच्चे मुझे ऐसे देख रहे थे मानों शहरी परिवेश उन्होंने कभी देखा ही न था। मैं उनकी आंखों में उनका भविष्य खोजने लगा जिन्हें मां की कोख से निकलते ही पटाखे बनाने का सामान थमा दिया जाता है। थोड़ा बड़े हुए तो बर्तन मांजना, पानी भरना, कपड़े धोना आदि अपने सामर्थ्य से ऊपर के काम ही जिनका नसीब है। स्कूल, शिक्षा जैसे शब्द तो उनके लिए बने ही न थे। मन बहलाव के लिए टूटे ढक्कन, रेत के ढेर और कंकड़-पत्थर।
‘पापा! पापा! पटाखे दे दो न’ बच्चों ने पुनः रुआंसे से स्वर में कहा।
‘अब दे भी दो…. बच्चे कब से मांग रहे हैं।’ पत्नी ने याचनापूर्वक कहा।
भरे मन से मैंने पटाखों का पैकिट दे दिया। दूर जलते हुए पटाखों की आंच मुझे भीतर ही भीतर झुलसा रही थी।