-बलबीर बाली

नवजीत व उसके परिवार के मध्य तनाव बढ़ता ही जा रहा था। न जाने क्यों नवजीत को लगता कि सभी परिवार वाले उसका हर बात पर विरोध करने लगे हैं। इसी कारण विगत कुछ दिनों से नवजीत रुष्ट-सी रहने लगी। चिन्ता मात्र एक तरफ़ ही नहीं थी, उसके घर वाले भी परेशान थे कि आख़िर उनकी फूल-सी नाज़ुक बेटी के व्यवहार में इतना परिवर्तन आया कैसे! वो पहले तो ऐसी नहीं थी। उक्त पारिवारिक माहौल हमारे एक पड़ोसी के घर का था। एक दिन हम अचानक उनके घर बैठे हुए थे कि नवजीत ऑफ़िस से थकी वापिस आई। हमें देखते ही वह संयमित होते हुए ‘नमस्ते’ कह कर भीतर चली गई। भीतर जाते ही उसकी माता की तीखी आवाज़ सुनने को मिली, धीमे-धीमे नवजीत के प्रतिरोध की ध्वनि भी सुनाई देती। कुछ देर बाद आंटी चाय लेकर बाहर आ गए परन्तु उक्त माहौल ने आंटी के साथ-साथ हमें भी असामान्य कर दिया था। हमने पूछा आंटी क्या बात हो गई। परन्तु आंटी ने कुछ नहीं बताया। कुछ देर मौन रहने के बाद हमने विदा लेनी चाही तो आंटी ने कहा थोड़ी देर बैठ जाओ। जब हम पुनः बैठे तो भीतर से नवजीत आई। उसकी आंखों में सूजन थी। मानों वह भीतर से रो कर आई हो। हमने पूछा क्या बात है नवजीत तो उसने अपनी मां की तरफ़ शिकायत भरी नज़रों से देखा और कुछ कहे बिना जाने लगी। हमने उसे आवाज़ देकर रोक लिया और कहा कि, ‘देखो नवजीत, हम नहीं जानते कि आप दोनों में क्या बात हुई परन्तु जो भी बात हुई उसका अंत हमें अच्छा नहीं लगा। यदि बुरा न मानों तो क्या हमें बताओगी कि क्या हुआ? शायद हम तुम्हारी कोई मदद कर सकें’ परन्तु नवजीत ख़ामोश रही। इसी बीच आंटी बोली जाओ तुम भीतर जाओ। नवजीत भीतर चली गई। आंटी बोली, ‘बेटे क्या बताऊं तुम्हारे अंकल के निधन के पश्चात् उनके स्थान पर कम्पनी वालों ने नौकरी देने का वायदा किया था, सो मैंने नवजीत को उनके स्थान पर नौकरी करवा दी पर पता नहीं क्यों नौकरी करने के कुछ माह बाद ही इसके व्यवहार में इतना बदलाव आया कि मुझे चिन्ता होने लगी और जब मैंने उस पर अंकुश लगाना चाहा उसे समझाना चाहा तो उसके विद्रोह के स्वर प्रस्फुटित होने लगे। अब मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं परिस्थितियों को कैसे सम्भालूं।’

मुद्दा अत्यन्त गम्भीर था हमने कैसे उस मामले का समाधान किया यह हम लिखना नहीं चाहते परन्तु जो सारांश निकला वह एक ऐसा संदेश दे गया, जिसे समाज में बताना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि सम्भव है कि यह मात्र एक परिवार की दास्तान न हो कर कई परिवारों से सम्बंधित हो क्योंकि अक्सर ऐसे ही माहौल घरों में बनने आरम्भ हो जाते हैं। लड़कियां जब 14 से 18 वर्ष की आयु में होती हैं तो यह एक अति विशेष परिस्थितियों वाला समय होता है। हम केवल लड़कियों की बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि नारी जाति को ही गृहस्थ धर्म का आधार माना जाता है और यही वह समय होता है जब नारी के व्यवहार का आधार तैयार होता है। सामान्यतः देखने में आया है कि नारी को एक सीमित से दायरे में रखा जाता है जोकि आज के समाज की संकीर्ण मानसिकता की सोच है। परन्तु जब नारी बाहरी क्षेत्रों में क़दम रखती है तो चूंकि उसके कार्य क्षेत्र का भी विस्तार होता है तब उसके संबंध विभिन्न तरह के व्यक्तियों से बनते हैं, जिनमें अच्छे व बुरे दोनों प्रकार के व्यक्ति शामिल होते हैं इसलिए उस समय यह आवश्यक हो जाता है कि नारी को ऐसी परिस्थितियों में कोई सुदृढ़ सहारा मिले।

एक नारी की भावनाओं को एक नारी ही भली-भांति समझ सकती है, इसलिए यदि 14 से 18 वर्ष की आयु के दौरान कोई नारी ही उक्त सहारा बनती है तो वह नारी के लिए और भी लाभप्रद होगा। जहां तक हमने इस आयु वर्ग की लड़कियों के विचार-व्यवहार जाने हैं, उससे हमें यही आभास हुआ कि यही वह समय होता है, जिसमें नारी को उक्त सहारे के रूप में दो सहारे मिलते हैं एक अच्छा व दूसरा बुरा। यदि नारी इस समय अच्छे गुणों वाले व्यक्ति को सहारे के रूप में अपनाती है तो वह पूरी ज़िंदगी सुखी रहती है परन्तु यदि इस समय यह चुनाव सही न हो पाए तो नारी का जीवन नारकीय हो जाता है। कुछ परिस्थितियों में ऐसा भी हो जाता है कि उक्त आयु में नारी को अपने द्वारा चुना गया सहारा बिलकुल सही लगता है परन्तु वास्तव में यह सहारा उसे ‘बीच मंझदार बिन पतवार’ वाली परिस्थितियों में लाकर छोड़ता है और उस समय पश्चाताप का अवसर भी नहीं मिल पाता। ऐसी परिस्थितियों से बचने के लिए आवश्यक है कि नारी अपने द्वारा चुने सहारे को समय रहते बार-बार टटोले। ऐसा करने से उसे अपने चुने सहारे की वास्तविकता का पता चल जाएगा।

किशोरियों द्वारा इस आयु में प्रवेश करते ही अपनी सखियों को अधिकतर राज़दार बनाया जाता है। अब इसे भाग्य की विडम्बना ही कहें कि मात्र 10 प्रतिशत किशोरियों को ही अपनी सखियों के रूप में अच्छा सहारा मिल पाता है जोकि उनके हित-अहित संबंधी उन्हें जानकारी दे। इस के पीछे एक गूढ़ रहस्य है जिससे हम आज की किशोरियों को अवगत करवाना चाहेंगे। हम जिस आयु वर्ग की बात कर रहे हैं उसमें अधिकतर किशोरियां अपनी हम उम्र सखी को अपना राज़दार बनाती हैं। एक कड़वी सच्चाई है कि यदि आप अपनी हम उम्र सखी से कोई सलाह लेंगी तो वह आपको परिपक्व सलाह कैसे दे सकती हैं क्योंकि उसका मानसिक विकास भी तो आप जितना ही हुआ है। इसलिए आत्मविश्वासी हों और हम उम्र को अपना सहारा, अपना नीति निर्माता न बनाएं।

कुछ अन्य परिस्थितियों में नारी को हमने अक्सर फंसते देखा है। कई बार नारी को चाहे-अनचाहे घर की दहलीज़ लांघनी पड़ी है और ऐसी परिस्थितियों में नारी अपना सहारा अपने सहयोगियों में ढूंढ़ने का प्रयास करती है। यह एक अत्यन्त विषम परिस्थिति होती है। एक अन्य वास्तविकता से आपको अवगत करवा रहे हैं, है तो यद्यपि कड़वी परन्तु उसे सच्चाई ही कहा जाएगा क्योंकि अक्सर हम यही ग़लती करते हैं। अक्सर यह देखने में आया है कि हम सहयोगियों में अपना राज़दार उसे बनाते हैं जिससे हमारे आचार-व्यवहार मिलते हैं तो ऐसे सहारे चिरकाल तक नहीं चलते। दूसरा इन परिस्थितियों में अच्छा सहारा मिलने का अनुपात दर मात्र 50 प्रतिशत होता है। कई बार हमने पाया कि मीठी-मीठी बातें करते हुए सहारा, सहारा न रह कर मित्र ही कहलाते हैं।

तो आख़िर किसको चुना जाए अपना सुदृढ़ सहारा। शायद आप यही सोच रहे होंगे कि अंततः हम कहना क्या चाहते हैं। वह दो पात्र जिन्हें अधिकांश किशोरियां अपना सहारा बनाती हैं हम उनका विरोध क्यों कर रहे हैं। हमने जो पाया वही हम आपको बता रहे हैं। यदि नारी के जन्म से लेकर युवा अवस्था तक की अवधि का आंकलन किया जाए तो यह विदित होता है कि ‘मां’ ही एक मात्र चरित्र होता है जो निष्काम भाव से नारी की सेवा करता है परन्तु विडम्बना यह कि जो हमें बचपन से लेकर 14 वर्ष तक पालता है इस आयु में प्रवेश करते ही हम उसे भूल कर यह सहारा बाहर क्यों ढूंढ़ते हैं? आख़िर ‘मां’ को ही यह सहारा क्यों नहीं मानते? स्वच्छन्दता के नाम पर आत्मनिर्णयी होने के नाम पर हम अपने इस निष्काम साथी को क्यों तिलांजलि दे देते हैं। हम मानते हैं कि ‘पूत-कपूत सुने हैं लेकिन सुनी न माता-कुमाता’ और यदि आज के कलयुग में हो भी तो उसकी प्रतिशतता महज़ दो प्रतिशत भी नहीं होगी। एक माता ही ऐसा चरित्र है जो कि नारी को आयु के इस दौर में परिवार व समाज के वातावरण के अनुरूप निष्पक्ष सलाह देती है। हमारा विशेष अनुरोध है कि बाहर के मित्र अवश्य बनाएं परन्तु अपने जीवन का आधार स्तम्भ अपनी मां को ही बनाएं।

हां, आवश्यकता है आज के इस आधुनिक युग में सामंजस्य की और यह सामंजस्य दोनों तरफ़ से होना ज़रूरी है, युवा वर्ग को चाहिए कि वह उन्हें मात्र अभिभावक न मान कर मित्र मानें, सच्चा मित्र। और चूंकि सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी मां की है इसलिए मां आधुनिक बने, उन्हें अपने व्यवहार में परिवर्तन लाना होगा क्योंकि उनके द्वारा लाया गया परिवर्तन ही आधुनिकता की वास्तविक परिभाषा होगी। वह भी अपनी युवा पुत्री को एक छोटे मित्र की तरह से लें व उन्हें सामाजिक बुराइयों, कुसंगतियों से अवगत करवाएं।

कुछ इसी तरह का सामंजस्य नवजीत व उसकी मां के मध्य क़ायम हो गया और एक बार फिर उसकी मां प्रसन्न थी।  

 

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