अब की बार कजरी ने कल्याणी को जन्मदिन पर एक अच्छा-सा उपहार देने का वादा किया था। उसने एक लिफ़ाफ़ा कल्याणी को देते हुए कहा, ‘बेटी, यह रहा तुम्हारा जन्मदिन का उपहार। इसे अपने जन्मदिन के अवसर पर ही खोलना।’
‘मां, अभी तो जन्मदिन में दस दिन पड़े हैं। आप अभी से इसे मुझे क्यों दे रही हैं?’ कल्याणी ने कहा।
‘बेटी, तुम तो जानती हो कि तुम्हारे बापू को इसका पता चल गया तो वो इसे तुम्हारे लिए नहीं छोड़ेंगे और मेरा दिया हुआ यह उपहार निरर्थक हो जाएगा।’
‘ठीक है मां। मैं इसे संभाल कर अपनी अलमारी में रख देती हूं।’ लिफ़ाफ़ा लेते हुए कल्याणी ने कहा।
कल्याणी बहुत खुश थी कि उसकी मां जन्मदिन पर उसे उपहार दे रही थी। वह क़यास लगाने लगी कि मामूली से चिट्ठी पत्री वाले लिफ़ाफ़े में उसके लिए क्या उपहार हो सकता है? अगले दिन जब वह कॉलेज के लिए चली तो उसके मन में आया कि वह इस लिफ़ाफ़े को खोल कर देखे कि उसमें ऐसा क्या है जो उसकी मां ने जन्मदिन के दस दिन पूर्व ही उसके सुपुर्द कर दिया। तभी उसके मन में विचार आया कि जन्मदिन से पहले लिफ़ाफ़ा खोलने से उसकी मां को दुःख पहुंचेगा और जन्मदिन पर उपहार पाने का उत्साह भंग हो जाएगा। इतना सोच कर कल्याणी ने लिफ़ाफ़ा खोलने का विचार त्याग दिया और कॉलेज के लिए चल दी।
कल्याणी कॉलेज से लौटी तो उसके घर पर लोगों की भीड़ जमा थी। किसी अनिष्ट की आशंका से उसका मन घबराने लगा। वह तेज़ी से क़दम उठा कर घर पहुंची तो देखा एक ओर उसकी मां की लाश पड़ी थी तो दूसरी ओर उसका बापू हरिया शराब के नशे में धुत्त अचेत। उसके पड़ोसी छज्जू, बिरजू, सरजू और अमरू अंतिम संस्कार की तैयारियों में व्यस्त थे। एक क्षण के लिए तो कल्याणी को अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ परन्तु अगले क्षण वह दहाड़ें मार कर रो पड़ी। पड़ोस की दो औरतें उसे पकड़ कर कोने में ले गईं और सांत्वना देने लगी। परन्तु आंसू उसकी आंखों से थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। छज्जू ने दो बालटी पानी हरिया के ऊपर दे मारा। उसे होश आया तो अर्थी को शमशान ले जाया गया। कजरी का अंतिम संस्कार कर दिया गया। गांव के लोग लौट कर अपने घर चले गए। हरिया के घर में रह गया एक ख़ालीपन। एक ऐसा सूनापन जिसमें रह रह कर कल्याणी के सिसकने की आवाज़ वातावरण को बोझिल बना रही थी।
शाम घिर आई थी। एक दो पड़ोसनें कल्याणी के पास बैठी उसे चुप कराने का प्रयास कर रही थीं। परन्तु उनके सारे प्रयास व्यर्थ हो गए थे।
कल्याणी बार-बार उनसे एक ही सवाल पूछ रही थी, ‘मेरी मां को क्या हुआ? बताओ न चाची, क्या उसे मेरे बापू ने मारा? तुम चुप क्यों हो?…. चाची, मैं भी मरना चाहती हूं। मैं अपनी मां के बग़ैर नहीं जीऊंगी। उसे ज़रूर इस कसाई ने मार डाला है। उसे ज़रूर…. उसे ज़रूर…. इसी ने मारा है। मैं सच कह रही हूं न चाची। तुम चुप क्यों हो?’
दोनों पड़ोसनें उसके इस सवाल पर चुप थीं। दोनों उसे सांत्वना दे रही थीं कि जो होना था वो हो गया। जिसकी जितनी लिखी होती है, वह उतनी ही भोगता है। परन्तु कल्याणी अपने बापू को ही अपनी मां का हत्यारा समझ रही थी। हरिया का शराबी होना और प्रतिदिन उसकी मां को मारना पीटना कल्याणी के शक की वजह बना।
परिस्थितियां इन्सान को कितना बदल देती हैं? अच्छे से बुरा और बुरे से अच्छा इन्सान बना देती हैं। इस बात का हरिया से उत्कृष्ट उदाहरण शायद ही कोई हो सकता था। बचपन का भोला-भाला हरिया, पढ़ने में होशियार हरिया और आज का शराबी नम्बर एक हरिया, एक ही व्यक्ति तो है।
हरिया पढ़ने में बहुत होशियार था। लोग हंसते हुए कहते थे कि उसकी खोपड़ी में दो दिमाग़ हैं। वह अपनी पढ़ाई का ख़र्चा दूसरे बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर निकाल लेता था। उसकी नेकी और ईमानदारी की क़समें खाई जाती थीं। शराब, बीड़ी-सिगरेट व मांस को हाथ भी न लगाता था। वह बारहवीं में पढ़ रहा था तो उसके बापू ने एक लड़की देख कर उसका रिश्ता तय कर दिया। वह अभी शादी नहीं करना चाहता था और आगे पढ़ना चाहता था। परन्तु बापू की ज़िद्द के आगे उसे घुटने टेकने पड़े। सुन्दर सलोनी कजरी दुलहन बन कर उसके घर आ गई। वह भी अपने बापू की तरह ज़िद्दी था इसलिए उसने पढ़ाई छोड़ दी और पास के एक कारखाने में प्राइवेट नौकरी कर ली। कजरी ने सारा घर संभाल लिया। वह बहुत सूझ-बूझ से अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करती रही। हरिया भी कजरी को बहुत चाहता और कजरी के लिए तो हरिया देव तुल्य था। अभी उसकी शादी को छः माह भी नहीं बीते थे कि हरिया के बापू का निधन हो गया। घर में आया बसंत जैसे कोहरे में घिर गया हो। धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो गया।
एक वर्ष बाद उनके घर एक सुन्दर-सी लड़की ने जन्म लिया। जिसका नाम दोनों ने प्यार से ‘कल्याणी’ रखा। हरिया को अब केवल एक बेटे की इच्छा थी ताकि उसका वंश चल सके। यद्यपि वह रूढ़िवादी नहीं था। फिर भी उसे बेटे की लालसा थी। कल्याणी अभी छः माह की भी नहीं हुई थी कि हरिया एक ट्रक की चपेट में आ गया। उसे अस्पताल ले जाया गया। उसकी जान तो बच गई किन्तु अब वह कभी बाप नहीं बन सकता था। इस दुर्घटना ने उसकी घरेलू, आर्थिक, शारीरिक एवं मानसिक स्थिति को हिला कर रख दिया। वह कारखाने में काम करने योग्य नहीं रहा। घर की बिगड़ती आर्थिक स्थिति देख कजरी ने एक सरकारी विद्यालय में चपरासी की नौकरी कर ली।
हरिया का स्वभाव प्रतिदिन चिड़चिड़ा होता जा रहा था। उसने शराब पीना शुरू कर दिया था। शराब के साथ-साथ वह कई बुरी आदतों से संक्रमित हो गया था। वह सुबह घर से निकलता और शाम को शराब पीकर घर लौटता। शराब के लिए कल्याणी से पैसे मांगता और न देने पर उसे मारता-पीटता। उसके घर में प्रतिदिन यही हंगामा होने लगा। आरम्भ में तो कजरी ने कुछ विरोध किया परन्तु धीरे-धीरे उसे यह सब सहन करने की आदत पड़ गई। कल्याणी छः वर्ष की हुई तो उसे पाठशाला में प्रवेश दिला दिया गया। कजरी की इच्छा थी कि कल्याणी खूब पढ़े-लिखे। हरिया की इच्छा अब कोई मायने नहीं रखती थी। परन्तु वह भी चाहता था कि कल्याणी खूब पढ़े-लिखे। उस को किसी प्रकार की कमी नहीं रहने दी गई। कल्याणी ने खूब परिश्रम किया और प्रत्येक कक्षा अच्छे अंकों के साथ पास की। घर का वातावरण प्रतिकूल होने के बावजूद उसने बारहवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इस बीच एक अच्छे घर से उसके लिए रिश्ता आ गया। कजरी ने यह अवसर खो देना उचित नहीं समझा। कल्याणी की अनिच्छा होते हुए भी कजरी ने रिश्ते के लिए हां कर दी। जब कजरी ने हरिया से कल्याणी की शादी का प्रबंध करने को कहा तो हरिया ने साफ़ इंकार करते हुए कहा था कि वह शादी करने की स्थिति में नहीं हैं। प्रबन्ध उसे ही करना होगा। कजरी बेचारी कितना बचा लेती जो उसकी शादी कर सकती। उसने हरिया से कुछ ज़मीन बेचने की बात की तो उसे पता चला कि हरिया ने तो अपनी आधी ज़मीन पहले ही कौड़ियों के भाव बेच दी है। ज़मीन को बेचकर दारू पी लेने की बात सुनकर कजरी के पैरों के तले ज़मीन खिसक गई। उसके तन-बदन में आग लग गई। उसने पहली बार हरिया को बहुत बुरा-भला कहा। हरिया ने भी देर नहीं की और कजरी की धुनाई कर डाली। कल्याणी को यह सब बहुत बुरा लगा। उसने अपने बापू के हाथ से बैंत छीन कर फेंक दी। हरिया को कुछ और न सूझा उसने कल्याणी के मुंह पर दो थप्पड़ रसीद कर दिये। मारे क्रोध के कल्याणी का चेहरा तमतमा गया। आज हरिया ने पहली बार उस पर हाथ उठाया था। हरिया बाहर चला गया मगर कल्याणी के मन में विद्रोह की चिंगारी धधक गई। उसे अपने पिता का पाश्विक व्यवहार अच्छा नहीं लगा। अपने बापू से भी अधिक ग़ुस्सा उसे अपनी मां पर आया। वह यह सब कैसे चुप-चाप सहन कर जाती है? अन्याय को सहना उतना ही बड़ा पाप है जितना अन्याय करना। उसने अपनी मां के पास जाकर कहा, ‘क्यों नहीं तुम उसे छोड़ देती? क्या कमा कर खिलाता है यह तुम्हें? कमाने के लिए भी तुम और मार खाने के लिए भी तुम।’
‘नहीं, बेटी नहीं। वह तेरा बाप है, मेरा पति है। उसके बारे में ऐसे शब्द मुंह से न निकाल। हमारे समाज में पति को देवता समझा जाता है।’
‘देवता ….? अगर ऐसे वहशी पुरुष को देवता समझा जाता है तो राक्षस कैसे होंगे। मां! तुम नारियां सदियों से पति को देवता मानती आई हो और यही पति रूपी देवता तुम्हें देवी के सिंहासन पर बिठा कर तुम्हारा मन चाहा शोषण करता आया है। नारी की करुणा संवेदना और त्याग का अनुचित लाभ उठाता आया है यह पुरुष!’
‘तुम ग़लत समझ रही हो बेटी। नारी सदैव अबला होती है। इस समाज में रहने के लिए उसे पुरुष का आश्रय ज़रूरी है। नहीं तो यह समाज उसे जीने नहीं देता।’
‘आज नारी अबला नहीं, सबला है। वह पुरुषों के साथ हर क्षेत्र में कंधे से कंधा मिला कर काम कर रही है। वह पुरुषों से किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं तो फिर समाज में रहने के लिए वह पुरुषों के आगे क्यों दबे?’
‘बेटा मैं नहीं जानती कि तुम यह उलटा सबक कहां से सीख कर आई हो? मेरे लिए मेरे पति देवता हैं। उनके विरुद्ध एक शब्द भी न बोलना, नहीं तो अच्छा नहीं होगा।’
‘मां! तुम भी एक बात ध्यान से सुन लो। तुम उसकी मार सह सकती हो…. परन्तु मैं नहीं। उन्हें यह बात अच्छे ढंग से समझा देना कि मेरे ऊपर हाथ न उठाएं। नहीं तो अच्छा नहीं होगा।’
‘तुम अपने बापू के लिए ऐसा कह रही हो! क्या कर लोगी तुम?…. बताओ मुझे?’ कहते हुए कजरी ने कल्याणी के मुंह पर दो तमाचे जड़ दिये।
कजरी सोच रही थी कि आख़िर इस समस्या का समाधान कैसे निकलेगा। वह कोई युक्ति चाहती थी जिससे कल्याणी की शादी हो जाए। उसने अपने मन में कुछ विचार किया। वह उठकर कल्याणी के पास गई।
‘कल्याणी! लो बेटे दूध पी लो।’
‘नहीं पीना मुझे दूध….।’ कल्याणी का ग़ुस्सा अभी उतरा नहीं था।
‘बेटे अब की बार मैं तुम्हारे जन्मदिन पर तुम्हारे लिए कोई विशेष उपहार दूंगी। तुम देखोगी तो खुश हो जाओगी।’
‘क्यों पैसों को व्यर्थ ख़र्च कर रही हो? नहीं चाहिए मुझे कोई उपहार।’ कल्याणी ने साफ़ इंकार करते हुए कहा।
‘बेटे! मां-बाप के कहे या मारे का बुरा नहीं माना करते। देखो तुम ही तो मेरा सपना हो। तुम भी मुझ से रूठ गई तो मेरे जीने का क्या अर्थ रह जाएगा?’ कजरी ने अंतिम अस्त्र का प्रयोग करते हुए कल्याणी से कहा।
‘नहीं मां! तुम ऐसी बात कभी न करना। पर यह तो बताओ जन्मदिन पर तुम मुझे क्या दोगी?’
‘बेटे यह तो सरप्राइज़ होगा। अच्छा अब सो जाओ।’ कहकर कजरी अपने बिस्तर पर आ गई और सो गई।
इसके बाद दो ही दिनों में इतना कुछ घटित हो गया कि पूरी तसवीर ही बदल गई।
कल्याणी की नज़र मां के द्वारा दिये गये उस लिफ़ाफ़े पर अटकी थी, जिसमें उसके लिए जन्मदिन का उपहार था। परन्तु वह उसे अभी खोलना नहीं चाहती थी। अभी उसके जन्म दिन में नौ दिन शेष थे। बैठे-बैठे उसे कब नींद आ गई पता भी न चला।
भोर हुई। घर के नित्यप्रति के काम निबटाए तो अफ़सोस मनाने वालों का तांता लग गया। लोग आते, कल्याणी को दिलासा देते और चले जाते। कल्याणी जानती थी कि यह औपचारकिता सभी को निभानी पड़ती है, चाहे कोई दुःखी हो या सुखी।
नौ दिन बीत गए थे। आज उसका जन्मदिन था। वह चुपके से अपने कमरे में गई। किताबों के बीच से लिफ़ाफ़ा निकाला और उसे खोला। उसमें जीवन बीमा पॉलिसी के साथ एक पत्र संलग्न था। लिखा था-
प्रिय कल्याणी,
जब तुम यह पत्र पढ़ रही होगी तब मैं इस संसार से विदा हो चुकी हूंगी। तुम तो जानती हो कि तुम्हारे बापू को तुम्हारी कोई चिंता नहीं। यदि यही हाल रहता तो मेरे साथ तुमहारा जीवन भी बर्बाद हो जाता। मैं जीते जी इतना नहीं कमा सकती कि तुम्हारे हाथ पीले कर सकती। यह केवल एक ही ढंग से संभव था। मैं मरकर तुम्हारे लिए पांच लाख का प्रबंध करके जा रही हूं। मैंने पांच लाख का बीमा करवा लिया है, जिसकी एक क़िस्त मैंने भर दी है और भरने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। यह राशि केवल तुम्हें मिल सकती है। इस पत्र को तुम रहस्य ही रखना, किसी को बताना नहीं। हां, अपने बापू का ध्यान रखना। वह बाहर से जितने कठोर हैं अन्दर से उतने ही कमज़ोर। उनका तुम्हारे सिवा और तुम्हारा उनके सिवा कोई सहारा नहीं।
अलविदा बेटी।
तुम्हारी मां,
कजरी।
पत्र पढ़ते-पढ़ते कल्याणी का चेहरा नयनजल से भीग गया था। उसे आज पता चला कि नारी को भारतवर्ष में देवी तुल्य क्यों माना जाता है? क्योंकि जितना त्याग करने की क्षमता उसमें होती है उतनी किसी और में नहीं।