-धर्मपाल साहिल
कन्फ्यूशियस के अनुसार ईश्वर ने जो हमें प्रदान किया है, उसे प्रकृति कहते हैं। इस प्रकृति के अनुसार कार्य करना ही कर्त्तव्य पथ पर चलना है। यह कर्त्तव्य पथ वही हो सकता है जिसे कोई भी जाति प्रकृति के शाश्वत मूल्यों के अनुसार निर्दिष्ट करती है। यह कर्त्तव्यपथ ही उस समय के नैतिक मूल्य कहलाते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी साथ होते हैं लेकिन समय एवं परिवेश परिवर्तन के अनुसार इनमें भी बदलाव आना ज़रूरी हो जाता है। प्रत्येक पीढ़ी कुछ परम्परागत मूल्यों को स्वीकार कर लेती है। किसी को व्यर्थ कह कर नकार देती है। वह अपने से पहली पीढ़ी को परम्परागत तथा दक़ियानूसी कह देती है और स्वयं को आधुनिक की श्रेणी में मानती है। समाज में इन नैतिक मूल्यों के आधार पर ही जाति विशेष को सभ्य अथवा असभ्य कहा जाता है। ये नैतिक मूल्य देश काल के अनुसार अलग-अलग भी हैं और समान भी। एक मूल्य जाति विशेष को सभ्यों की श्रेणी में रखता है तो दूसरी को असभ्यों की क़तार में ला खड़ा करता है। कभी-कभी तो संस्कृति, सभ्यता की परिभाषा इतनी भिन्न होती है कि व्यक्ति भौचक्का रह जाता है।
ज़रा नारी की पवित्रता से संबंधित नैतिक मूल्यों को ही लीजिए। पुरुष कहीं भी, किसी भी समाज में यह सहन नहीं कर पाता कि उसके जीते जी उसके सामने कोई पर-पुरुष उसकी पत्नी, उसकी प्रेमिका की ओर आंख उठा कर भी देखे। यह एक मनोवैज्ञानिक सच्चाई है। उसकी सहज प्रवृत्ति है। लेकिन अफ्रीका में कुछ ऐसी जातियां भी हैं जो कहीं दूर या लंबे समय के लिए आते जाते समय अपनी पत्नियों को अपने मित्रों के हवाले करने में संकोच नहीं करते, न ही उन्हें इस बात की ईर्ष्या होती है कि उनकी अनुपस्थिति में पत्नी व मित्र के बीच क्या और कैसे संबंध रहेंगे बल्कि वे इस बात पर फ़ख़र महसूस करते हैं।
प्रसिद्ध शिकारी हंटर अफ्रीका के मसाई कबीले में गया। उसने किराकंगानों से उसका गाइड बनकर उसके साथ चलने के लिए पूछा तो वह सहर्ष तैयार हो गया। हंटर ने पूछा कि उसकी पत्नी और पशुओं का क्या होगा? तो उसने कंधे उचकाते हुए स्वाभाविक ढंग से कहा, “पशुओं का ध्यान मेरी पत्नी रखेगी और मेरा दोस्त मेरी पत्नी का ध्यान रखेगा।” जब हंटर ने अचंभित हो कर पूछा कि उसे अपनी पत्नी के पर-पुरुष के साथ रहने पर कोई आपत्ति नहीं होगी तो उसने उल्ट हैरानी से हंटर को ही पूछा, “मुझे भला क्या आपत्ति होगी? जब मैं लौटूंगा तब वह वही औरत होगी, नहीं क्या?”
इसी प्रकार हंटर जब मसाई के अन्य कबीलों में शेरों के शिकार के लिए गया तो वहां रात्रि ठहर के दौरान उसकी सेवा में मुखिया की दो हृष्ट-पुष्ट पत्नियां इसके शयनकक्ष में सोने आ गईं। इस पर न मुखिया को कोई आपत्ति थी और न ही उसकी पत्नियों को। हंटर ने उनसे क्षमा मांग ली और सो गया। मसाई कबीले के मुखिया ने उसकी इस बात का बुरा नहीं माना लेकिन अगर वह एस्कीमो लोगों के इग्लू (बर्फ़ का घर) में होता तो उसका हश्र कुछ और ही होना था।
एक बार एक गोरा खोजी एरेनेक के इग्लू में अतिथि बना। प्रसन्न पति-पत्नी ने उसे विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट भोजन परोसे। इग्लू परंपरा के अनुसार रीछ का फफूंदार जिगर, पुरानी मज्जा को बहुत बढ़िया समझा जाता था पर गोरे ने इसे पसंद नहीं किया। जबकि एरेनेक के अनुसार यह भोजन देखकर गोरे के मुंह से लार टपकनी चाहिए थी। गोरे की न पसंदगी को आतिथ्य अपमान समझा गया। एरेनेक का मुंह क्रोध से लाल हो गया लेकिन एरेनेक पत्नी ने उसे समझाया कि ग़ुस्सा छोड़ो हो सकता है गोरे को भूख ही न हो। वह आराम करना चाहता हो। वह यहां स्त्री संग रहना चाहता हो। यह सुनकर एरेनेक ने उसे झटपट सिंगार करने को कहा। एरेनेक की पत्नी एशियक ने झटपट मूत्र वाले बर्तन से पुराना मूत्र लेकर हाथ मुंह धोया। बालों में गीली अंगुलियां फेरीं। चेहरे पर चर्बी मली और गोरे के पास जा बैठी। गोरा उसके शरीर से आती दुर्गन्ध को सहन नहीं कर पाया। वह पीछे हट गया लेकिन, “शर्माओ मत मेरा पति बच्चों के साथ सैर को जा रहा है हम यहां अकेले ही हैं” कहती हुई एशियक गोरे की ओर बढ़ी। लेकिन गोरा उसके पास से उठकर चला गया तो एरेनेक ने उसकी इस हरकत को अपने आतिथ्य सत्कार का घोर अपमान समझा और उसकी पत्नी ने अपने मदमस्त यौवन की उपेक्षा। वह गोरे के इस रूखे व्यवहार से रोने लगी। फिर ग़ुस्से से भरी हृष्ट-पुष्ट एशियक ने गोरे को उठाकर दीवार पर दे मारा। क्रोध से पागल हुआ एरेनेक भी गोरे को उठा-उठा कर ज़मीन पर पटकने लगा।
जब गोरे ने एरेनेक को समझाने की कोशिश की कि अपनी पत्नी को ग़ैर मर्द के सामने पेश करना असभ्यता है, ठीक नहीं है तो एरेनेक ने पूछा क्यों नहीं? जब हम आदमियों को यह अच्छा लगता है। मेरी पत्नी के लिए लाभदायक है। उसने तर्क दिया कुछ और उधार देने की बजाए पत्नी को उधार देना अच्छा है। स्लेज उधार दो तो वह टूटा हुआ मिलेगा, आरा उधार दो तो उसके दांत टूटे हुए मिलेंगे, घोड़ा उधार दो तो वह थका हुआ मिलेगा लेकिन पत्नी को जितनी बार मर्ज़ी उधार दो, वह सदा नई की नई मिलेगी।
ऐसा एक अन्य क़िस्सा है न्यूज़ीलैंड की माओरी जाति का। उनमें प्रथा थी कि जब भी उनके यहां सम्मान्य अतिथि आता था तो उसे एक अस्थायी पत्नी पेश की जाती थी। वह अतिथि जितने दिन ठहरता वह औरत पत्नी के रूप में उतने दिन उसके साथ रहती। एक बार एक पादरी आए। उसके साथ कबीले की सर्व सुन्दरी को पत्नी के रूप में पेश किया गया। पादरी नाराज़ हुए- यह क्या? माओरी कबीले का मुखिया नम्रता से बोला जनाब नाराज़ मत होइये, आप बहुत बड़े आदमी हैं आपके लिए दो पत्नियों का प्रबंध हो जाएगा।
इसी प्रकार इटालियन समाज में “सिसिस्बो प्रथा” थी। वहां फ्लोरेंस के उच्च वर्ग में शादी के इक़रारनामे में स्त्री को एक प्रेमी रखने की गारंटी दी जाती थी। इस प्रेमी को ‘सिसिस्बो’ कहा जाता था। पति-पत्नी को भोजन पर आमंत्रित करते समय उसके प्रेमी को न बुलाना अपमान समझा जाता था। भोजन के समय पत्नी, पति और प्रेमी के मध्य बैठती थी। वहां पति और प्रेमी में किसी प्रकार का ईर्ष्या-द्वेष नज़र नहीं आता था। पति, पत्नी के सिसिस्बो को मित्रता की दृष्टि से देखता था। वह स्वयं भी तो पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य मनपसंद महिला का सिसिस्बो होता था।
ऐसी प्रथाओं को आज के समाज में असभ्यता की निशानी समझा जाता है, लेकिन कुछ विशेष उच्च वर्ग के आधुनिक कबीलों में भी उच्च सभ्यता के नाम पर उपरोक्त प्रथाओं के लक्षण छिपे रूप में मिलते हैं।