-सुरेन्द्र कुमार ‘अंशुल’

आज मैं बहुत खुश हूँ। आँखों से नींद कहीं दूर छिटकी हुई थी। खुली खिड़की के उस पार मुस्कराते हुए चाँद को देख कर मेरे होंठ मंद ही मंद मुस्करा रहे हैं। मन का पंछी नीले आकाश पर फैले बादलों के पास उड़ान भर रहा है। क्यों न हो ऐसा? आज … हाँ आज ही मुझे अपने अस्तित्त्व की पहचान हुई है। इस घर में जहां आज से लगभग सात माह पूर्व मैं ब्याह कर आई थी।

मेरे बराबर मेरे पति विजय सोये हुए हैं। निश्‍ि‍चंत से …. बेपरवाह! इन्हीं से मेरे पिता विजय के मित्र कृपा शंकर ने मेरी शादी की बात चलाई थी।

मुझे आज भी वह दिन नहीं भूलता जब कृपाशंकर जी घर आए थे। मैंने ही दरवाज़ा खोला था। उन्हें देख मैं झट बोली थी, “नमस्ते अंकल!”

“कैसी हो बेटी?” उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखते हुए मधुर स्वर में पूछा था।

“अच्छी हूँ अंकल! आइये, आप अंदर आइये।” मैंने सादर उन्हें अन्दर आने के लिए कहा।

“अरे भाई गिरधारी! क्या बना रहे हो?” अन्दर आते ही कृपाशंकर चहके थे।

“आओ भाई कृपा …. आओ! सुनाओ कैसे हाल हैं तुम्हारे? सब ठीक-ठाक तो है न!”

गिरधारी लाल दीवान पर सीधे बैठते हुए बोले।

“सब ठीक है। तुम सुनाओ, कैसी गुज़र-बसर हो रही है?” कृपाशंकर पास पड़ी कुर्सी पर बैठते हुए मुस्करा कर बोले।

“क्या गुज़र-बसर भाई!” ठंडी सांस भरते हुए गिरधारी ने कहा, “बेटी की शादी की चिंता मुझे खाए जा रही है। उम्र पहाड़ की तरह बढ़ती जा रही है। और मैं हूँ कि बस बेबस, लाचार और मजबूर। बेटी की शादी हो जाए तो गंगा नहाऊं।”

“अरे भाई निराश क्यों होते हो? अपनी ओर से तुमने कोई कसर तो नहीं छोड़ी न! वैसे भी शादी-ब्याह सब संयोगों पर निर्भर होते हैं। जब बिटिया की शादी होगी ना, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा।”

“नहीं भाई! मुझे तो लगता है कि मैं … मैं बेटी का …?…. अरे! दहेज़ के नाम पर दूल्हे बिकते हैं आज जितना ज़्यादा दहेज़ दो, उतना अच्छा दूल्हा पाओ। मैं बेटी के लिए दूल्हा मंडी से दूल्हा ख़रीद पाने में असमर्थ हूँ। अरे कहाँ से लाऊं दहेज़? तुम्हीं बताओ! क्या कमी है मेरी बेटी में? नीता पढ़ी-लिखी है, सुन्दर है, सुसभ्य है, पर लड़के वालों के मुँह पर लार टपकती दिखती है दहेज़ की।” गिरधारी के स्वर में खीज व विवशता की कड़वाहट घुली पड़ी थी।

“सुनो गिरधारी! मेरी निगाह में एक लड़का है लेकिन…?” वाक्य अधूरा छोड़ दिया था कृपाशंकर ने।

“लेकिन…क्या? पिता जी ने सवालिया नज़रों से कृपाशंकर की तरफ़ देखा।”

“लड़का…..लड़का ‘दूजिया’ होगा।”

“क्या मतलब? यार पहेलियां न बुझाओ। साफ़-साफ़ कहो, माजरा क्या है?” गिरधारी ने व्यग्र हो कर पूछा था।

“मुझे ग़लत मत समझना गिरधारी। नीता जैसी तुम्हारी बेटी, वैसे ही मेरी भी। मैं तो चाहता हूँ कि बेटी को अच्छा घर बार, परिवार मिले, अच्छा पति मिले। मेरे ख़्याल में मैं जो लड़का तुम्हें बता रहा हूँ उसमें एक ही ‘ऐब’ है। और वह है उसका ‘दूजिया’ होना। लड़के की पत्‍नी पिछले वर्ष स्वर्ग सिधार चुकी है। उससे कोई बच्चा आदि भी नहीं । उम्र भी तीस के आस-पास है। जीवन-बीमा में अधिकारी है। कहो तो मैं कोशिश करूं!

गिरधारी कुछ देर तक सोचते रहे। एकदम उन्हें कुछ सूझा नहीं। फिर उन्होंने पूछा “उसकी पत्‍नी कैसे मरी थी?” चेहरे पर कई अनजानी आशंकाएं तांडव नृत्य करती नज़र आ रही थी।

“अरे मरी क्या थी। समझो! बिन बुलाए मौत आ गई थी। ‘नीम-हकीम ख़तरा जान’ वाली कहावत चरितार्थ हुई थी …. बुख़ार हुआ था। घर में पड़ी दवाई की कोई पुरानी गोली खा ली थी। परिणाम? दवाई उलटा असर दिखा गई। बुख़ार मस्तिष्क में क्या चढ़ा? अस्पताल ले जाने से पूर्व ही चल बसी। बेचारी?”

“किस बिरादरी का है।” गिरधारी ने कुछ पल चुप रहने के बाद पूछा।

“तुम्हारी ही बिरादरी का है।”

“दहेज़ की मांग वग़ैरह….?”

“अरे नहीं भाई! कोई डिमांड नहीं। बस सुसभ्य गुणवती व घर में निभने वाली बहू चाहिए। ये सब गुण अपनी बेटी नीता में हैं ही।”

“वो तो ठीक है, कृपा! देख लो! लड़के और उसके परिवार में कोई खोट तो नहीं। बेटी वाला हूँ, डरता हूँ कि कहीं कोई ग़लत क़दम ही न उठा बैठूं जिससे बेटी की सारी ज़िंदगी ही तबाह हो जाए। और मैं जीवन भर पछताता रहूँ। खून के आँसू बहाता रहूँ।”

“क्यों डरते हो गिरधारी! आदमी अपनी तरफ़ से अच्छा ही करता है। भविष्य में क्या होना है? यह भगवान् ही जानता है।”

“ठीक है तुम लड़के वालों से बात चलाओ।” सोच-समझ कर गिरधारी ने निर्णय ले लिया था।

रात को पिता जी माँ से काफ़ी देर तक बातें करते रहे थे। उनकी बातों का विषय मेरी शादी को ले कर ही था।

मैं घर में सबसे बड़ी थी। मेरे बाद मीना और उससे छोटा राकेश। मैं राजनीति शास्त्र में एम.ए.पास थी। मेरी चाह के बावजूद पिता जी ने मुझे ‘टीचर’ की नौकरी करने नहीं दी। कहते- ‘बेटी से नौकरी करवाना या बेटी की कमाई खाना उनके लिए पाप है।’ अपने इस फ़ैसले पर वे पछताते थे भी, जब मेरी शादी के लिए योग्य वर की तलाश हेतु भटकते थे। किसी को नौकरी में लगी लड़की चाहिए थी तो किसी को दहेज़ की लालसा थी। उधर पिता जी की चिंता बढ़ती जा रही थी तो इधर मेरी उम्र!

अपनी चिंता से मुक्‍त होने व मेरी शादी के लिए उन्हें कहीं न कहीं तो समझौता करना पड़ता। सो उन्होंने मेरे अरमानों की परवाह किये बिना, अगर लड़का अच्छा हुआ तो ब्याह करने का निर्णय कर लिया था, बेशक वह लड़का ‘दूजिया’ क्यों न हो!

जहां लड़के का ‘दूजिया’ होना मेरे हलक से नीचे नहीं उतर रहा था, वहीं उस लड़के की पत्‍नी का असमय मर जाना मेरे संदेह में वृद्धि कर रहा था कि कहीं उन सभी ने मिलकर …..?

मुझे इस शादी के लिए हाँ करनी पड़ी थी। पिता की विवशता व मजबूरी के समक्ष मैं गूंगी हो गई थी। स्वयं को हालात के समंदर में फैंक दिया था।

इस घर में आ कर मुझे हर तरह का सुख मिला। माँजी धार्मिक विचारों व सुलझी सोच लिए थी। छोटी-सी गृहस्थी थी हमारी। विजय की बड़ी बहन शादीशुदा थी जबकि एक छोटा भाई अजय और छोटी बहन ज्योति कॉलेज में पढ़ रहे थे।

यहाँ आ कर मैं इनके दूजिया होने का ग़म भुला चुकी थी, और साथ ही मेरी यह सोच निर्मूल साबित हुई कि इन सभी ने अपनी बहू को मार डाला होगा। क्योंकि जो नहीं रही थी, वह अब भी इन सब की यादों में रची-बसी थी। वे सब मुझ में नीलिमा अर्थात् नीलू (इनकी पहली पत्‍नी का नाम) को ढूँढा करते थे। मेरे हर काम की तुलना नीलू से की जाती थी।

मैं नीता थी और वह नीलू थी। मैं नीलू कैसे हो सकती थी। मुझे अपनी पहचान बनानी होगी। मुझे अपने अस्तित्त्व का बोध करवाना होगा। पर कैसे? यह बात मेरी समझ से परे थी।

नीलू से मुझे ईर्ष्‍या होने लगी थी। जो थी नहीं, वह आज भी ज़िंदा थी। उसकी खुशबू आज भी इस घर के हर व्यक्‍त‍ि के मन में समाई थी। और जो ज़िंदा थी, उनके सामने थी, उसके ग़म व दु:ख से वे सभी बेख़बर थे। यही ग़म मेरे अन्तर्मन को मथे जा रहा था। एक अजीब-सी घुटन …. एक पीड़ा …. एक वेदना ..!

माँजी को मेरे दर्द का एहसास भी था। वह कहतीं,” बहू मैं जानती हूँ कि तुम नीलू के ज़िक्र से परेशान हो उठती हो। पर मैं क्या करूं? तुम भी मेरी बहू हो, वह भी मेरी बहू थी। तुम्हारे नामों में कितनी समानता है। तुम नीतू हो और वह नीलू। तुम्हारा नाम लेना चाहती हूँ पर नीलू का नाम होंठों पर बरबस खिंच आता है। बहू क्या करूं मैं? मुझे इस ग़लती के लिए माफ़ ….?”

“नहीं माँजी …. नहीं। आप माफ़ी क्यों मांगती हैं। मुझपर पाप न चढ़ाओ। मैं आपकी नीलू ही तो हूँ।”

माँजी मुझे सौ-सौ आशीषें दे डालती।

पर मेरे अन्तर्मन में कसक तो थी ही। मैं नीलू की यादों को इस घर से सब के दिलों से भुला देने में असमर्थ रही थी।

लेकिन आज …….?

‘डिनर’ के समय की बात है। घर में सभी सदस्य खाने पर बैठे थे। अचानक ही मुझे उबकाइयां आनी शुरू हो गई थी।

“क्या हुआ भाभी?” अजय ने पूछा था।

“क्या बात है भाभी …….? ये उबकाइयां …?” ज्योति के स्वर में घबराहट थी।

“क्यों …. क्या हुआ?” इन्होंने अपनत्व भरे स्वर में जानना चाहा।

और माँजी …? उनकी अनुभवी आँखों में एक विशेष चमक थी। चेहरे पर मुसकान लिये बोली, “बहू …. कहीं तुम … तुम …?” माँजी के शब्द उत्तेजना में लड़खड़ा गए थे।

मैं शरमा गई थी। तेज़ी से हाँ में सिर हिला दिया था। मैं वहाँ से उठी और अपने कमरे में दौड़ आई थी।

मैंनें पीठ पीछे सुना था, माँ जी कह रही थीं, “विजय बेटे! तुम बाप बनने वाले हो ।”

“क्या?” वे तीनों खुशी से चीखे थे।

अजय और ज्योति दौड़ कर मेरे पास आए थे, “भाभी … भाभी …! क्या यह सच है?”

मैंने स्वीकृति में गर्दन हिलाई थी।

“का, या की?” वे दोनों फिर चहके थे। इससे पहले कि मैं कोई जवाब देती, विजय कमरे में आये। उन्हें आया देख अजय और ज्योति उन्हें छेड़ते-गुदगुदाते वहां से चले गए। विजय मेरे समीप आये थे, बोले, “ नीतू! सच आज मैं बहुत खुश हूँ। जो खुशी नीलू नहीं दे कर गई, आज वह खुशी तुम इस घर को देने जा रही हो।”

मेरे दिल का आईना एक बार फिर चटख गया। आज भी ये नीलू की यादों को लिए बैठे हैं।

“ऐ …. कहाँ खो गई? क्या नाम सोचा है तुमने?” विजय प्यार व मधुर स्वर से पूछ रहे थे चेहरे पर मासूम बच्चे की तरह शरारत झलक रही थी।
लेकिन मेरी खुशी को तो ग्रहण लग गया था। मेरे स्वर में तलखी उभर आई थी। गुस्से में बोली, “बेटा हुआ तो नीलेश, बेटी हुई तो निलिशा।”

“ये नाम क्यों?” मेरे गुस्से व दर्द से अनजान इन्होंने मेरी आँखों में झांकते हुए फिर पूछा था।

“इन नामों में नीलू के नाम की झलक जो मिलती है और आप सभी इस वजूद को, इस अस्तित्त्व को आज तक भुला नहीं पाये हैं” मेरे स्वर में ज़हर घुलता जा रहा था।

विजय का चेहरा चमकता हुआ बुझ गया था। वह नीतू के दिल की बात समझ रहा था। सच में वह आज तक नीलू-नीतू में तुलना ही तो करता रहा था।

नीतू के दर्द से अनजान भूले से ही उसके दिल को दुखाता रहा था। नहीं … अब यह नहीं होगा। जो हो गया, सो हो गया, पर अब नहीं। वह शर्मिंदगी भरे स्वर में बोला, “नीतू! मुझे माफ़ कर दो। मैं नीलू की यादों में तुम्हें भूला बैठा था। मुझे माफ़ कर दो। वादा करता हूँ भविष्य में ऐसा न होगा। तुम्हारा अपना अस्तित्त्व है। अपनी पहचान है। हम अपने बच्चे का नाम ऐसा रखेंगे जो हमारी पहचान होगा। बेटा होगा तो विनीत, बेटी हुई तो विनीता। बोलो, मंज़ूर है।”

मेरी आँखों में आँसू भरने लगे थे। मन हल्का हो गया था। मेरे अस्तित्त्व में पल रहे वजूद ने अपनी “खुशबू” से आज इस घर में मेरी पहचान करवाई थी। आज उनके लिए मैं नीतू थी, नीलू नहीं।

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