आख़िरकार न न करते हुए राजेेेश इस बार आशा तथा बच्चों को शिमला घुमाने के लिए मान गया था। पिछले वर्ष भी प्रोग्राम बना था लेकिन ऐन वक़्त पर राजेश को कार्यालय के नाम से बंगलौर जाना पड़ा था और बना बनाया प्रोग्राम स्थगित करना पड़ा था।

लेकिन इस बार बच्चों के स्कूल में ग्रीष्मावकाश होने से पहले ही बच्चों तथा आशा ने राजेश को शिमला ले जाने के लिए ज़ोर डालना शुरू कर दिया था और राजेश ने भी अपने अधिकारी की मिन्नत खुशामद करते हुए छुट्टी का प्रबंध कर लिया था।

दो दिन बाद बच्चों का स्कूल ग्रीष्मावकाश के लिए बंद हो जाना था। शिमला जाने के लिए राजेश को कोई विशेष कठिनाई नहीं होनी थी। उसके एक घनिष्‍ठ मित्र का शिमला में तबादला हो गया था। इसलिए आवास के लिए उसे रत्तीभर भी चिंता न थी वरना गर्मी के दिनों में किसी भी पर्वतीय स्थल पर होटलों में कमरा मिल पाना आसान नहीं होता।

आशा भी शिमला जाने की तैयारी में जुटी हुई थी और लगभग सभी सामान उसने सलीके से बांध भी लिया था।

पर्वतीय स्थल पर जाने की धुन में खोई आशा रसोई का काम कर रही थी तभी उसे सास की आवाज़ सुनाई दी, ‘‘बहू देखना तो ज़रा यह किसका पत्र आया है। अभी-अभी डाकिया देकर गया है।’’

‘‘आई मां जी।’’ कहते हुए आशा ने निकट पहुंच कर उनसे पत्र पकड़ लिया। मगर पत्र की लिखावट देखकर उसका कलेजा धक से रह गया था। वह फटाफट लिफ़ाफ़ा खोलकर पढ़ने लगी और अगले ही पल उसके चेहरे की रंगत फीकी पड़ गई थी।

‘‘अरी किसका पत्र है ? कुछ बता तो सही।’’ मां जी के पूछने पर आशा मात्र इतना ही बोल पाई थी, ‘‘रमा का है, कल आ रही है।’’

‘‘अच्छा, मेरी बेटी आ रही है।’’ मां जी का चेहरा खिल उठा था। ‘‘क्या बृजमोहन भी आ रहा है ?’’

‘‘नहीं, दीदी और बच्चे ही आ रहे हैं। जीजा जी को छुट्टी नहीं मिली।’’

‘‘अब समझी, काहे सुबह से हमारे घर की दीवार पर कौआ कां-कां कर रहा था।’’ मां जी तो खुशी से फूली न समा रही थी मगर आशा का मन अपेक्षाकृत बुझ गया था। मुश्किल से इस बार शिमला जाने का प्रोग्राम बना था, अब फिर कैन्सल करना पड़ेगा। उसे यूं लग रहा था जैसे सजी-सजाई दुलहन के घर से बिना ब्याहे बारात लौट गई हो। उसे बार-बार रमा पर खीज आ रही थी। अगर आना ही है तो कम से कम पहले प्रोग्राम तो लिख दिया होता ताकि वो भी अपना प्रोग्राम उसी अनुसार बना लेते। लेकिन इसकी तो हमेशा से यही गंदी आदत है कि बस एकाध दिन पहले ही समाचार आयेगा कि महारानी अमूक दिन, अमूक ट्रेन से आ रही है। स्टेशन पर जाकर ले आना। कम से कम उसे इतना तो सोचना चाहिए कि भाई का अपना भी परिवार है। भाभी बच्चों का भी कहीं घूमने जाने को मन करता होगा। अपना तो छुटि्टयों में आराम करने का प्रोग्राम बना लिया और दूसरों का बना बनाया प्रोग्राम बिगाड़ डाला।

शाम को राजेश के ऑफ़िस से लौट आने पर भी उसका गुस्सा कम नहीं हुआ था। राजेश कर भी क्या सकता था। बड़ी मुश्किल से अधिकारी ने केवल एक सप्ताह का अवकाश दिया था।

‘‘रमा को भी साथ ही ले चलते है राजेश के इस सुझाव पर आशा तिलमिला उठी थी- ‘‘किसी की बारात में शामिल होने तो नहीं जा रहे।’’   ‘‘लेकिन यह भी तो शोभा नहीं देता कि वह यहां आ रही है और हम बाहर चले जायें।’’

‘‘मुझे मालूम है, आपके बतलाने की ज़रूरत नहीं।’’ आशा ने खीज कर कहा, ‘‘इसलिए तो लाख बार कह चुकी हूं कि अलग से कोई घर ढूंढ़ लो। मगर मेरी कोई सुने तब न।’’

‘‘तुम भी अजीब बात करती हो। मां को अकेला कैसे छोड़ सकते हैं।’’ राजेश का अपना तर्क था।

‘‘मुझे क्या, जो मन में आये करो। मैं तो अभी बांधा हुआ सारा सामान खोल देती हूं। यूं ही इतने दिन तैयारी में बर्बाद कर दिये।’’

कुछ कहना चाहकर भी नहीं कह पाया था राजेश। आशा की छटपटाहट को वह भली प्रकार से समझता था।

saप्रोग्राम कैन्सल हो जाने से यद्यपि कुछ समय के लिए बच्चों का मन भी उदास हो गया था। लेकिन फिर भी उन्हें बुआ और बुआ के बच्चों के आने की बहुत खुशी थी। बुआ हर बार उनके लिए कुछ न कुछ अवश्य लेकर आती थी।

सुबह जब राजेश ऑफ़िस के लिए चलने लगा तो मां जी ने उसे फिर याद दिलाते हुए कहा, ‘‘बेटा, याद है न शाम की गाड़ी से….।’’

‘‘ओह मां, तुम भी क्या बात करती हो। मुझे भला कैसे याद नहीं रहेगा।’’

‘‘रमा की चिट्ठी तो साथ ले ली है न ?’’ मां जी ने फिर कहा।

‘‘ओह हो, चिट्ठी क्या करनी है। मुझे याद है, रमा आज शाम अमृतसर एक्सप्रेस से आ रही है। साढ़े छ: बजे ट्रेन स्टेशन पर पहुंचती है। मैं सवा छ: बजे तक वहां अवश्य पहुंच जाऊंगा।’ कहते हुए राजेश ऑफ़िस के लिए निकल पड़ा।

‘‘अरी बहू, बाज़ार से कुछ मंगवाना हो तो बता दे।’’ मां जी ने आशा से पूछा और अगले ही पल ताकीद भी कर दी, ‘‘रमा को खीर बहुत भाती है। खीर बना लेना। और हां…..।’’ एक पल रुककर उन्होंने फिर पूछा,‘‘बादाम किशमिश तो हैं न घर में।’’

‘‘हां-हां मां जी।’’ न चाहते हुए भी आशा को जवाब देना पड़ा था।

‘‘ज़रा रसोई में देख ले। तू कहे तो मैं दुकान से ले आती हूं।’’ws

‘‘अभी तो हैं, ज़रूरत पड़ी तो और मंगवा लेंगे। आपको चिंता करने की आवश्यकता नहीं।’’ आशा की आवाज़ की तलख़ी को महसूस करते हुए मां जी चुप रहीं और आशा भी मन ही मन कुढ़ती रही लेकिन प्रत्यक्ष रूप से कहा कुछ नहीं।

सास के38690459 आदेशानुसार आशा ने शाम तक विभिन्न प्रकार के व्यंजन बना लिये थे।

शाम को छ: बजे के कुछ पहले कॉल बेल की आवाज़ और फिर बच्चों के स्वर ‘मामी जी….’ ने दोनों को चौंका दिया था।

‘‘अभी तो छ: भी नहीं बजे। कहीं ट्रेन ही तो समय से पहले नहीं आ गई।’’ मन ही मन सोचते हुए आशा ने दरवाज़ा खोला तो सामने रमा और बच्चे थे।

‘‘नमस्ते मामी जी। नमस्ते मामी जी।’’ रमा के बच्चे आशा को देखते ही चहकने लगे थे।

‘‘मामी जी, हम बिट्टू भैया के लिए बहुत सारे टॉयज़ लाए हैं।’’ रोहन अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि रितु बीच में ही टपक पड़ी, ‘‘विक्की भैया के लिए गन भी लाये हैं।’’

‘‘अरे पहले दोनों भैया से मिल तो लो।’’ रमा ने उन्हें टोकते हुए कहा था।

और अगले ही पल बिट्टू और विक्की मारे खुशी के उनसे लिपट गए थे।

तभी मां जी भी वहीं चली आई थी। मां-बेटी गले मिलने लगी थीं।

इससे पहले आशा पूछ पाती मां जी बोल पड़ी थीं, ‘‘अरी रमा, तेरा भाई कहां है ?’’

‘‘भैया तो स्टेशन पर पहुंचे ही नहीं। मैं तो प्रतीक्षा करते-करते थक गई थी। आख़िरकार स्वयं ही ऑटो रिक्‍शा लेकर चली आई।’’ रमा ने आशा की ओर देखते हुए पूछा, ‘‘मेरी चिट्ठी तो मिल गई थी न भाभी ?’’

लेकिन प्रत्युत्तर में आशा की अपेक्षा मां जी ने कहा था, ‘‘चिट्ठी तो मिल गई थी, मगर राजेश क्यों नहीं पहुंचा ?’’

‘‘शायद ऑफ़िस में कोई ज़रूरी काम पड़ गया हो’’ आशा ने कहा तो मां जी और भी उबल पड़ी थीं, ‘‘ऑफ़िस कहीं भागा जाता था। लापरवाही की भी हद होती है। सुबह मैंने बार-बार ताकीद भी की थी।’’

‘‘आप हाथ मुंह धो लीजिए दीदी मैं चाय बनाती हूं।’’ आशा ने बात का रुख बदलने के लिए कहा और रसोई की ओर चल पड़ी।

‘‘मामी जी हम तो दूध पीयेंगे।’’ रोहन ने ऊंची आवाज़ में कहा।

‘‘हमारी मिस कहती हैं चाय पीने से रंग काला हो जाता है।’’ रितु ने मानो पर्दाफ़ाश कर दिया था।

प्रत्युत्तर में आशा की अपेक्षा मां जी ने कहा था, ‘‘हां-हां बेटा, खूब मलाई डाल कर पीना। सेहत का तो शुरू से ही ध्यान रखना चाहिए।’’

‘‘हां-हां, खूब मलाई डालकर पीजिएगा।’’ आशा मन ही मन बुदबुदाई, ‘‘बस ज़ुबान चलानी आती है। स्वयं कमाना पड़े तो पता चले कि मार्किट में दूध किस भाव मिलता है।’’

आशा को राजेश पर भी गुस्सा आ रहा था। सारा दिन इधर-उधर बेवजह घूमते रहेंगे लेकिन जहां जाना ज़रूरी होता है वहां कभी नहीं पहुंचते और बेकार में उसे सास का कोप भाजन बनना पड़़ता है।

सब लोग चाय पी रहे थे जब राजेश घर लौटा। रमा पर नज़र पड़ते ही क्रोध तथा आश्‍चर्य मिश्रित स्वर में उसने कहा, ‘‘अरे, तू यहां बैठी चाय पी रही है और मैं स्टेशन पर पागलों की तरह मारा-मारा फिरता रहा।’’

ssरमा ने उठकर राजेश का अभिवादन किया। प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए राजेश बोला, ‘‘भैया को परेशान करने की तुम्हारी आदत अभी तक गई नहीं।’’

‘‘भैया, यह तो वही बात हुई, उल्टा चोर कोतवाल को डांटे।’’ रमा ने हंसते हुए कहा, ‘‘गिला तो मुझे करना चाहिए था कि आप…..।’’

‘‘लेकिन तुम समय से पहले कैसे आ गई।’’ उसकी बात पूरी होने से पहले ही राजेश ने पूछ लिया था।

‘‘पहले कैसे आ गई भैया। हमारी ट्रेन तो वैसे भी आधा घंटा लेट थी।’’

अब चौंक पड़ा था राजेश, ‘‘क्यों मुझे बेवकूफ़ बनाने पर तुली है।’’

‘‘तू तो है ही बेवकूफ़।’’ मां ने हंसते हुए कहा, ‘‘मैंने सुबह कितनी बार तुम्हें कहा था कि रमा की चिट्ठी……।’’

‘‘लेकिन मैं तो ट्रेन आने से पहले ही स्टेशन पर पहुंच गया था। यह झूठ बोल रही है कि ट्रेन लेट आई थी। ट्रेन तो ठीक समय पर आई थी।’’

‘‘कौन-सी ट्रेन भैया ?’’

‘‘अमृतसर एक्सप्रेस। और कौन-सी ?’’

‘‘ओह भैया। अमृतसर एक्सप्रेस में आने को किसने कहा था। मैं तो डिलक्स से आई हूं।’’ रमा ने थोड़ा मुस्कराते हुए कहा।

‘‘मुझे बेवकूफ़ मत बना। यह ले अपना पत्र।’’ राजेश ने जेब से उसका पत्र निकाल कर उसकी ओर बढ़ा दिया था, ‘‘ले खुद ही पढ़ ले।’’

रमा ने वह पत्र पकड़कर फिर राजेश को लौटाते हुए कहा, ‘‘आप स्वयं ही पढ़ लीजिएगा भैया। आप कभी ध्यान से पत्र पढ़ते तो हैं नहीं, इसीलिए मैंने यह अपना पत्र भी भाभी को लिखा था।’’ फिर रमा पत्र के एक कोने की ओर इशारा करते हुए बोली, ‘‘यह देखो, मैंने विशेष रूप से आपके लिए लिखा था।’’

राजेश पढ़ने लगा। लिखा था, ‘‘भाभी कृपया भैया से कहना पत्र ध्यान से तथा पूरा पढ़ लें।’’cc

अब तो राजेश का शर्मिन्दा होना स्वाभाविक था।

‘‘सॉरी,’’ उसने कहा, ‘‘वास्तव में ऑफ़िस में कामकाज अधिक होने के कारण…..।’’

‘‘कोई बात नहीं भैया।’’ रमा हंस पड़ी थी, ‘‘अपने भैया की आदतों से तो मैं बचपन से ही परिचित हूं।’’

‘‘चाय लाऊं आपके लिए।’’ आशा, जो अभी तक चुपचाप बैठी थी, ने मानो अपना मौन व्रत भंग करते पूछा था।

‘‘हां ले आ।’’ राजेश ने दबे स्वर में कहा। तभी जैसे अनायास कुछ याद आ गया हो। उसने एकदम से ऊंचे स्वर में पूछा, ‘‘अरे रोहन और रितु कहां हैं ?’’

‘‘बड़ी जल्दी याद आ गई बच्चों की।’’ मां के स्वर में व्यंग्य स्पष्‍ट झलक रहा था।

‘‘मां तुम हमारे मामलों में मत बोला करो।’’ राजेश ने थोड़ा तलख़ स्वर में कहा।

‘‘अभी तो यहीं थे। शायद बिट्टू-विक्की के साथ कहीं खेलने चले गये होंगे।’’ रमा ने मुस्कराते हुए कहा था।        

लेकिन तभी बच्चों का स्वर गूंज उठा था, ‘‘नमस्ते मामा जी। नमस्ते मामा जी।’’

‘‘पापा, बुआ जी हमारे लिए बहुत सुन्दर कपड़े लाये हैं।’’ रोहन ने खुश होते हुए बतलाया था।

‘‘मेरे लिये गन, गेम्‍ज़ और भी बहुत सारे टॉयज़ लाये हैं।’’ विक्की ने गन चलाकर राजेश को डराते हुए कहा।

‘‘रमा तुम्हें कितनी बार कहा है, इतना ख़र्च मत किया कर।’’

g‘‘तभी आशा ने चाय का प्याला उसके सामने लाकर रख दिया।’’

‘‘हुआ कभी-कभार कोई चीज़ ले आई। पर तुम तो हर बार….।’’

‘‘भैया चाय पी लीजिएगा। ठंडी हो जायेगी।’’ रमा ने बात काटते हुए कहा था।

‘‘लेकिन मैं जो कह रहा हूं…..।’’

‘‘मैंने सुन लिया है भैया। मैं बहरी नहीं हूं। और आप भी सुन लीजिएगा।’’ रमा ने हंसते हुए कहा, ‘‘मैं अपने प्यारे-प्यारे भतीजों के लिए क्या लाई हूं,  क्या नहीं लाई, आपको बतौर विशेषज्ञ राय देने की आवश्यकता नहीं।’’

राजेश हल्क़ा-सा मुस्करा कर चाय की चुस्कियां लेने लगा था।

तभी शायद उसे कुछ याद आ गया था। उसने तुरंत आशा को पुकारा था, ‘‘आशा, इधर तो आना ज़रा।’’

आशा चुपचाप उसके पास चली आई थी। आशा का मूड अभी तक भी सामान्य नहीं हुआ था।

‘‘अरे भई आज सुनार ऑफ़िस आया था। तुम्हारी सोने की चेन दे गया था। देख तो ज़रा डिज़ाइन कैसा लगा।’’ राजेश ने जेब से एक डिबिया निकाल कर उसकी ओर बढ़ा दी।

‘‘कितने तोले की बनी है भैया ?’’ रमा ने पूछा।

‘‘चार तोले की तो है ही।’’  

तब तक आशा ने डिबिया से चेन निकाल ली थी।

‘‘अरे वाह, देखने में बहुत आकर्षक लगती है’’ रमा ने आशा की ओर देखते हुए कहा, ‘‘भाभी ज़रा दिखाना तो’’

और आशा ने चेन उसकी ओर बढ़ा दी।

‘‘अरे वाह, एकदम नया डिज़ाइन है। छ:- सात तोले से कम की तो नहीं लग रही।’’ रमा ने चेन को अपनी हथेली पर दो-चार बार हल्क़ा-सा हिलाकर देखा मानो उसके भार का अनुमान लगा रही हो।

पल भर बाद रमा मुस्कराते हुए बोली, ‘‘इसे तो मैं ही रख लेती हूं भैया, भाभी के लिए और बनवा देना।’’

‘‘हां-हां, क्यों नहीं। तुम रख लो। राजेश ने हंसते हुए कहा।

‘‘फिर न कहना, मैं लौटाउंगी नहीं।’’

‘‘अरे लौटाने को कौन कह रहा है ?’’

‘‘भैया, पहले भाभी से पूछ तो लो। कहीं बाद में डांट न पड़ जाये।’’ रमा खिलखिलाकर हंस पड़ी, ‘‘क्यों भाभी, बाद में भैया से झगड़ा तो नहीं करोगी ?’’

‘‘मैं कौन होती हूूं झगड़ा करने वाली। इनकी मर्ज़ी है, जिसे चाहे जो मर्ज़ी दे दें।’’ यद्यपि आशा का स्वर हास्यहीन था लेकिन रमा तो अपनी ही धुन में कहे जा रही थी, ‘‘लो भई, जब मियां-बीवी राज़ी तो क्या करेगा काज़ी। जब आप दोनों ही मुझे यह चेन देकर खुश हैं तो मुझे स्वीकार करने में देर नहीं करनी चाहिए।’’ और रमा ने चेन अपने गले में पहन ली थी।

और आशा बिना कुछ कहे सुने किचन में चली गई थी।

ZE8_Divyanka-Tripathiआशा अजीब दुविधा में फंस गई थी। रमा को आए चार दिन हो चुके थे लेकिन अभी तक उसने चेन नहीं लौटाई थी। कोई अन्य वस्तु होती तब तो सहन भी हो जाता लेकिन इतनी महंगी सोने की चेन कैसे छोड़ दे। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि रमा से इस बारे में कैसे बात करे। कहीं बात का बतंगड़ ही न बन जाए। पर रमा को भी तो शर्म हया होनी चाहिए। उसे स्वयं ही लौटा देनी चाहिए थी अब तक।

इसी उधेड़-बुन में दो दिन और निकल गए थे।

आख़िरकार आशा के सब्र का प्याला मानो भर उठा था और उसने रमा से सीधे शब्दों में पूछ ही लिया था, ‘‘रमा, मेरी वो सोने की चेन तो लौटा दे।’’

‘‘कौन-सी चेन भाभी ?’’ रमा का स्वर आश्चर्य भरा था।

‘‘अरे वही सोने की चेन जो उस दिन तुम्हारे भैया लाए थे।’’

‘‘लेकिन….।’’

‘‘मैं तो अभी भी शायद तुमसे न मांगती मगर मेरी एक सहेली उसी प्रकार का डिज़ाइन बनवाना चाहती है।’’ आशा एक ही सांस में बोल गई थी।

‘‘मगर वह तो भाभी मैंने आपको लौटा दी थी।’’ रमा का स्वर सामान्य था। उसने एक पल रुक कर कहा, ‘‘लगता है भाभी आप भुलक्कड़ होती जा रही हैं।’’

आशा तो जैसे स्तब्ध रह गयी थी उसका जवाब सुनकर।

‘‘अपनी अलमारी में ध्यान से देख लीजिएगा। कहीं रख कर भूल गई होंगी आप।’’ रमा ने बड़ी लापरवाही से कहा था।

आशा ने दिमाग़ पर ज़ोर डालकर सोचने की कोशिश की लेकिन कुछ याद नहीं आ रहा था। अगर सचमुच ही रमा ने चेन लौटा दी थी तो चेन चली कहां गई। उसके पंख तो लगे नहीं थे कि कहीं उड़ गई होगी। लेकिन कभी-कभी उसे लगता कि रमा ने सचमुच ही उसे चेन लौटा दी थी। यह भी तो हो सकता है कि लौटाने के बाद अवसर मिलते चुरा ली हो। आशा तो जैसे बीच भंवर में फंस गई थी।

आज सारे परिवार ने हार्डी वर्ल्ड घूमने का प्रोग्राम बनाया था। लेकिन आशा ने साथ चलने से मना कर दिया था और किसी ने भी उसे साथ चलने के लिए विवश नहीं किया था यहां तक कि राजेश ने भी नहीं।

और आशा के सिवाय सब हार्डी वर्ल्‍ड के लिए निकल पड़े थे।

आशा का दिल डूबा जा रहा था। उसे इस बात का भी डर था कि कहीं यह न हो कि चेन भी न मिले और संबंध भी बिगड़ जायें।

आशा परेशान-सी बेड पर लेटी थी तभी घर में काम करने वाली बाई आ गई थी।

‘‘क्या बात है बीबी जी, तबीयत ठीक नहीं क्या ?’’

‘‘नहीं, यूं ही।’’

‘‘कोई न कोई बात तो अवश्य है बीबी जी। आप नहीं बतलाना चाहती तो…।’’ कहते हुए बाई किचन में बर्तन साफ़ करने लगी थी।

आशा ने फिर भी कुछ न कहा। चुपचाप लेटी रही लेकिन बाई भी कहां पीछा छोड़ने वाली थी। आख़िरकार न चाहते हुए भी आशा ने उसे सब कुछ से अवगत करवा दिया था।

‘‘मैं भी सोचूं बीबी जी के चेहरे की रंगत कहां उड़ गई है। लेकिन कुछ भी कहने से डर रही थी कि कहीं छोटा मुंह बड़ी बात न हो जाए।’’ बाई ने धीरे-धीरे कहा। एक दो पल रुक कर वह फिर कहने लगी, ‘‘आपकी चेन का अवश्य पता चल जायेगा बीबी जी।’’

‘‘वो कैसे?’’ आश्‍चर्यचकित हो पूछा था आशा ने।

‘‘आप तो पढ़े-लिखे लोग हैं। शायद आपको विश्वास न आये। लेकिन हमारे घर के पास एक पंडित जी रहते हैं। उनका बताया कभी झूठ नहीं निकलता।’’

आशा चुपचाप बाई को देखे जा रही थी जो निरन्तर बोल रही थी, ‘‘वहां लोगों की भीड़ तो बहुत होती है। लेकिन मेरी सास ने उन्हें अपना गुरू बनाया हुआ है। इसलिए आप मेरी बात मान कर मेरे साथ अवश्य चलें। हमारा नम्बर भी जल्दी लग जायेगा। ’’

‘‘लेकिन घर में…..।’’

‘‘आप बेफ़िक्र रहें बीबी जी। किसी को कानो कान ख़बर भी नहीं होगी।’’

उधेड़-बुन में उलझी हुई आशा उसके साथ चल पड़ी थी।

लेकिन वहां पहुंचकर आशा को लगने लगा था कि सचमुच ही वह ऐसे स्थान पर आ गई है जहां उसकी समस्या का अवश्य समाधान मिल जाएगा। उसके मन में ऐसा विश्वास वहां पहुंचे लोगों के हजूम को देखकर पैदा हुआ था। कम-से-कम 60-65 लोग पंडित जी के कमरे के बाहर बैंचों पर बैठे अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। सभी को टोकन मिल चुके थे तथा क्रमानुसार उन्हें पंडित जी के कक्ष में जाने के लिए पुकारा जाता था।

एक दीवार पर मोटे अक्षरों में लिखा था, ‘‘चोरी के बारे में जानने के इच्छुक महानुभाव कृपया चोर का नाम जानने के लिए विवश न करें।’’ सचमुच ही नौकरानी की जान-पहचान काम आई थी। आधे-पौने घंटे के पश्‍चात् ही उन्हें बुलावा आ गया था।

आशा के कुछ कहने से पहले ही बाई ने सारा विवरण पंडित जी को सुना दिया था।

‘‘अरी बिटिया, तुम्हें तो मालूम है हम चोरी के मामलों के बारे में ज़्यादा बात नहीं करते। चोर का नाम बतलाने पर आपसी कलह बढ़ने की आशंका रहती है।’’ पंडित जी बातें भी किए जा रहे थे साथ ही साथ सलेट पर कुछ लिखते भी जा रहे थे।

‘‘नहीं पंडित जी। आपको मुझ पर अवश्य कृपा करनी होगी।’’ आशा का स्वर अपेक्षाकृत ज़्यादा ही दयनीय हो गया था, ‘‘मैं तो बहुत उम्मीद लेकर आई हूं।’’

‘‘ये तो मेरे लिए बड़ी बहन से भी बढ़कर है।’’ बाई ने अपनत्व जताते हुए कहा, ‘‘आप अवश्य कुछ कीजिएगा महाराज।’’

पंडित जी सलेट पर अपना हिसाब-किताब लगाते रहे। तब कुछ पल सोचते रहे। आशा तथा बाई की दृष्‍टि उनके चेहरे पर ही टिकी हुई थी।

आख़िरकार पंडित जी ने जैसे पर्दा हटा दिया था, ‘‘बेटी, तुम्हारी वस्तु किसी अपरिचित व्यक्ति ने नहीं चुराई है। चुराने वाला तो कोई अपना ही है।’’

‘‘तो फिर कौन हो सकता है महाराज ?’’ आशा ने व्याकुलता से पूछा।

‘‘आप उसका नाम बतला दीजिए न महाराज।’’ बाई ने भी अनुरोध किया था।

‘‘बेटी तुम्हें तो मालूम ही है हम चोर का नाम नहीं बता सकते।’’ पंडित जी ने अपनी विवशता बताते हुए कहा।

‘‘लेकिन महाराज…..।’’

‘‘ख़ैर, तुम लोग बहुत विवश कर रही हो तो कुछ न कुछ इशारा किए देता हूं।’’ और पंडित जी सलेट पर फिर से कुछ लिखने लगे थे। और कुछ पल बाद पंडित जी मानो अहसान जताते हुए बोले थे, ‘‘बतलाना तो नहीं चाहिए, मगर तुम दोनों बहुत विवश कर रही हो इसलिए…..।’’ कहते-कहते पंडित जी रुक गए थे। आशा तथा बाई अपलक उनकी ओर देखने लगी थी।

अन्तत: पंडित जी ने रहस्य से पर्दा उठाते हुए उन्हें बताया, ‘‘चोर कोई घर का ही व्यक्‍ति है। उसका नाम ‘ल’, ‘प’ अथवा ‘र’ से शुरू होता है। बस इससे अधिक मैं नहीं बता पाऊंगा। मेरे गुरूदेव ने मनाही की हुई है।’’

दक्षिणा देकर आशा घर लौट आई थी।

वास्तविक चोर कौन हो सकता है। आशा अनुमान लगाने लगी। ‘प’ से पार्वती यानी मां जी या फिर ‘र’ से रमा। यह भी हो सकता है कि मां बेटी दोनों की ही मिली भगत हो। यूं भी रमा को वस्तुएं दे देकर मां जी का मन नहीं भरता।

रात भर आशा चैन से सो भी नहीं पाई थी। मन की बात किससे कहे। राजेश से कहेगी तो उल्टा डांटने लगेगा, ‘‘तुम्हारा भेजा तो नहीं फिर गया। अगर पंडितों के बतलाने से चोर पकड़े जाने लगे तब पुलिस और गुप्तचर विभाग की क्या आवश्यकता।’’

आशा अपने मन में उपजे प्रश्नों का समाधान नहीं ढूंढ़ पा रही थी।

लेकिन फिर भी जैसे-तैसे वह स्वयं को उत्साहित कर रही थी कि अब उसे ही अन्तिम निर्णय लेना होगा। अगर अब भी चूक गई तब तो सब धूल में मिल जाएगा।

अगली सुबह रमा ने लौट जाना था। मां के बहुत ज़ोर देने पर भी वह दस दिन से अधिक नहीं रुकना चाहती थी। राजेश ने भी बहुत बार रुकने के लिए कहा था। न चाहते हुए भी आशा को भी उसे कुछ दिन और रुक जाने के लिए कहना पड़ा था। मगर रमा की एक ही रट थी, ‘‘नहीं भई, इससे अधिक मैं नहीं रुक सकती। बच्चों को पढ़ाई भी करवानी है। फिर उनको भी असुविधा हो रही होगी।’’  

‘‘तो अब आई न वास्तविक बात पर।’’ राजेश ने हंसते हुए कहा, ‘‘चिन्ता मत कर। मैं तेरे साहिब को फ़ोन कर देता हूं कि वह भी कुछ दिनों के लिए इधर ही चले आयें।’’

kलेकिन राजेश को फ़ोन करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। शाम को रमा के पति का फ़ोन आ गया था, ‘‘रमा को जल्दी भेज दो। यहां मुश्किल होती है।’’

अब तो रमा का वापिस लौट जाना निश्चित हो गया था।

रमा ने कल शाम की शताब्दी से चले जाना था। आशा को कुछ सूझ नहीं रहा था कि कैसे रमा से बात करे और अगर अब भी बात नहीं कर पाई तो हमेशा के लिए सोने की चेन से हाथ धोने पड़ जायेंगे।

कुछ ही देर में रमा स्टेशन के लिए निकलने वाली थी। आशा जैसे स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पाई और रमा के निकट आकर एकदम बोल पड़ी, ‘‘रमा मेरी चेन तो लौटा देनी थी।’’

‘‘कौन-सी चेन भाभी ?’’ रमा ने आश्चर्यचकित हो उसकी ओर देखा था।

‘‘अब कौन-सी हो गई।’’ आशा ने तलख़ी भरे लहज़े में कहा, ‘‘वही सोने की चेन और कौन-सी।’’

‘‘भाभी, आप कैसी बात करती हैं।’’ रमा लगभग चीख पड़ी थी, ‘‘मैंने पहले भी आपको बताया था कि वह तो मैंने उसी दिन आपको…..।’’ कहते हुए रमा का गला भर आया था।

‘‘अरी इसने मेरे सामने तो तुझे लौटाई थी। तुम भी कमाल करती हो।’’ मां जी का स्वर भी किसी फटकार से कम न था।

अब तो आशा की आवाज़ भी पहले से ज़्यादा ऊंची हो गई थी, ‘‘इसने लौटा दी थी तो गई कहां। धरती निगल गई उसे क्या?’’

mnnn‘‘भाभी, आप भी हद करती हैं। आपका मतलब है मैंने आपकी चेन चुरा ली है।’’ रमा सुबकने लगी थी, ‘‘आपने कुछ तो सोचा होता बात कहने से पहले। भला मेरे यहां किस चीज़ का अभाव है। मैं तो यहां आप सबके प्यार की मारी खींची चली आती हूं। हज़ारों रुपये ख़र्च हो जाते हैं आने-जाने में।’’ और रमा पूरे ज़ोर से बिलखने लगी थी।

‘‘चुप कर बेटी, इसे तो न जाने क्या हो गया है।’’ मां जी रमा को चुप करवाने लगी थीं।

‘‘अभी तो मेरी मां जीवित है लेकिन फिर भी आज के पश्चात् कभी आपके घर की दहलीज़ पर पांव भी धरा तो मेरे मुंह पर थूक देना।’’ रमा ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी थी।

और अगले ही पल रमा ने झट से अपना अटैची खोलकर साड़ी और बच्चों के कपड़े निकालकर बाहर फेंक दिए थे। ‘‘यह रख लो भाभी, मुझे नहीं चाहिए आपका दिया हुआ कुछ भी। आप चाहो तो मेरे सामान की तालाशी ले सकती हैं।’’ और रमा ने खुला हुआ अटैची आशा की ओर धकेल दिया था।

‘‘अरी क्या कर रही है तू पागल लड़की…..।’’ मां जी ने उसे प्यार से डांटना चाहा मगर उनका भी रूदन निकल पड़ा था।

रमा ने एक दो पल आशा की ओर देखा और तब अटैची बंद करके बोली, ‘‘आओ बच्चो चलें।’’

‘‘अरे राजेश को तो आ लेने दे। रिकशा लेने गया है।’’ मां जी ने उसे टोकते हुए कहा।

‘‘मुझे रास्ता आता है मां।’’ कहते हुए रमा चलने लगी थी, ‘‘मैं कल पहुंचते ही आपको चेन की क़ीमत भिजवा दूंगी भाभी। भगवान् का दिया हुआ हमारे पास बहुत कुछ है।’’

रमा फटाफट बच्चों को घसीटते हुए घर से बाहर निकल पड़ी थी। उसे पुकारते हुए मां भी पीछे-पीछे तेज़ क़दमों से चलने लगी थी। बाहर गली में से आशा को उनके स्वर सुनाई दे रहे थे। शायद राजेश रिकशा ले आया था।

आशा थोड़ा दरवाज़े के साथ सट गई थी। बाहर का दृश्य तो वह नहीं देख पाई मगर इतनी आवाज़ उसे अवश्य सुनाई दी थी, ‘‘भैया आप मुझे स्टेशन छोड़ आइयेगा। बाद में जो करना है करें या न करें। वरना मैं अकेले भी जा सकती हूं।’’

और कुछ पल बाद ऑटो चलने का स्वर सुनाई पड़ा था। थोड़ी देर बाद आशा ने बाहर देखा मां जी भी दिखाई नहीं दीं। सम्भवत: वह भी उनके साथ स्टेशन चली गई होंगी।

आशा घर के भीतर लौट आई। उसे स्वयं पर भी गुस्सा आ रहा था। इससे तो बेहतर था चुप रहती। अब क्या हाथ लगा। चेन भी न मिली और घर में महाभारत भी शुरू हो गया था। ‘वह मां की लाड़ली तो दो-चार आंसू बहाकर स्वयं को सत्यवादी बना गई और मैं सब कुछ लुटा कर भी दोषी बन गई।’

मारे क्रोध के आशा को सिर बहुत भारी लग रहा था। माथा तो जैसे फटने को हो आया था। उसने चाय का प्याला बनाया। दर्द निवारक गोली निकालने के लिए दवाइयों वाला डिब्बा खोला तो उसकी आंखें मानो पथरा गई थीं। उसकी सोने की चेन डिब्बे में पड़ी झिलमिला रही थी।

वह अपलक चेन को निहारे जा रही थी। एक चलचित्र की भांति पलभर में ही सारा दृश्य उसकी आंखों के सामने घूमने लगा था। जब रमा ने चेन लौटाई थी तो उसने जान बूझकर इस डिब्बे में डाल ली थी क्योंकि उस डिब्बे को हमेशा वह अपने पास अलमारी में रखती थी ताकि बच्चों की पहुंच से दूर रहे।

jjहे भगवान्। अब मैं क्या करूं? आशा के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थीं। बार-बार उसकी आंखों के सामने से कभी रोती हुई रमा का चेहरा घूम जाता तो कभी पंडित जी का। ‘कैसे धूर्त लोग होते हैं ये भी’ वह मन ही मन पंडित जी को कोसने लगी थी, ‘‘कैसे पैसों के लालच में ये इधर-उधर की हांक कर लोगों के घर बर्बाद करने से भी नहीं चूकते।’’

आशा ने जल्दी से घड़ी की ओर देखा। ताकि जैसे-तैसे स्टेशन पर पहुंच कर रमा को रोक सके और उसे बता सके कि कैसे पंडितों के चक्कर में फंस कर…..। मगर समय कब किसी के लिए रुकता है। घड़ी की सूइयां काफ़ी आगे निकल चुकी थीं। रमा की ट्रेन तो अब तक छूट चुकी होगी।      

One comment

  1. An impressive share! I’ve just forwarded this onto a friend who has been conducting a little homework on this. And he in fact ordered me dinner because I found it for him… lol. So allow me to reword this…. Thank YOU for the meal!! But yeah, thanx for spending the time to discuss this matter here on your web site.| а

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*