मैं परेश को लेकर कभी किसी उलझन में नहीं रहा, अलबत्ता उसे मैंने हमेशा ही अपने आप से उलझे पाया है।

एक विचित्र-सा व्यक्तित्व है उसका। पद्यात्मक तन, मंझोला क़द गेहुंआ रंग और सन्तुलित देहयष्टि। फिर नितान्त गद्यात्मक मन, स्कूली शिक्षा के नाम पर लिखने-पढ़ने भर का अक्षर-ज्ञान, मगर सामान्य ज्ञान के नाम पर विज्ञान से लेकर धर्म तक और मनोविज्ञान अथवा दर्शन से लेकर शायरी तक दुनियां जहान की तमाम-सी ऐतिहासिक भौगोलिक जानकारियां।

पेशे से परेश दूसरे अन्य अशिक्षितों की तरह ही एक मोटर मकैनिक है- ऑटो इलैक्ट्रीशियन और निस्संदेह अपने फन में माहिर है वह। कभी-कभी तो बेजोड़ होने के हद तक भी लेकिन अपने फ़िलॉसफ़ाना तुनक मिज़ाज और शायराना अंदाज़ के चलते उसकी दुकान हमेशा ही परेशान होती रही है।

अक्सर ही होता कि दुकान हफ़्तों बंद रहती और फिर अचानक किसी साप्ताहिक अवकाश के दिन जब दूसरी सभी दुकानें बंद होतीं, पता चलता जनाब दुकान खोले, बड़े मनोयोग से अपने काम में लगे, जुटे होते। पूछने पर मालूम होता कि बीच के दिनों में साहब देशाटन पर थे।

परिवार के प्रश्न पर भरा पूरा घर था उसका- मां-बाप, भाई-बहन, बीवी-बच्चे सब थे। तीन बहनों में दो की शादी हो चुकी थी, साथ ही अपनी भी। अभी एक बहन और एक भाई, दो और बच गए हैं चौपाए होने को।

वैसे कोई आर्थिक पतलापन नहीं है परेश के पारिवारिक परिवेश में। शहर की अच्छी बस्ती में एक अच्छा ख़ासा मकान जिसके कुछ हिस्से की किराएदारी भी काफ़ी आ जाती है महीने में। फिर नज़दीकी अपने पुश्तैनी गांव में उसकी कुछ खेती किसानी की ज़मीन भी है, उससे भी कमोबेश गुज़ारे लायक़ मिल ही जाता है, सालाना। इधर इसके पिताश्री यूं तो कुछ करने-कमाने की उम्र पार कर आए हैं मगर फिर भी ख़ाली समय में दुकान, मकान और ज़मीन आदि जायदाद की ख़रीद फ़रोख़्त में लोगों की मदद कर दिया करते हैं और बदले में पारितोष स्वरूप उन्हें भी काफ़ी कुछ मिल जाता है।

कुल मिलाकर यह कि इतने कुछ के चलते, घरवाले परेश की सिरफिरी फ़िलाॅसफ़ी को नाक-भौं सिकोड़ते, चढ़ाते भी उठाए जाने में कुछ ख़ास दिक़्क़त नहीं महसूसते पाए मुझे। मतलब कि घर की आमदनी उनकी मजबूरी को छुपाने के लिए काफ़ी पड़ती है।

एक दिन मेरा उसके घर जाना हुआ। वैसे कुछ सालों पहले तक, अपनी बेरोज़गारी के दिनों में अक्सर ही जाना होता रहा है- कभी अपने ख़ालीपन को उसकी दमदार दलीलों से भरने तो कभी अपनी दम तोड़ती उम्मीदों को उसकी ज़िंदादिल और दिलकश शायरी से ढाढ़स बंधाने लेकिन अब जब मैं अपनी क़लम की धार पर सान चढ़ाने और पेट की आग बुझाने दूर शहर के एक अख़बार से जुड़ गया तो आगे यह सिलसिला टूट गया।

पर उस दिन, शहर से लौटने में ट्रेन ने जब रात अढ़ाई बजे मुझे स्टेशन पर छोड़ा तो यकायक मुझे परेश के घर जाने का सूझ गया, वैसे भी बाक़ी रात कहीं तो गुज़ारनी थी क्योंकि सुबह से पहले यूं भी क़स्बे से गांव तक पहुंचने का कोई उपाय न था।

हठात् मैं उसके घर जा पहुंचा। गली सुनसान थी लेकिन कभी किसी कुत्ते की बेहूदी आवाज़ इस वीरान सन्नाटे को तोड़ देती थी। गली के मुहाने पर बने उसके घर की कुन्डी खटखटाई और किवाड़ खुले तो… सामने का दृश्य? उफ़! मेरा दिमाग़ सुन्न होने को आया। देखा-सामने घर में सब जगे हुए थे, जैसे किसी रतजगे में हों। लगता था जैसे अभी-अभी कोई ज्वार उतरा हो वहां, कोई तूफ़ान वहां से गुज़रा हो। इसकी गवाही में घर की बौखलाई-सी खामोशी चारों तरफ़ पसरी फैली थी। एक आहत-सी उदासी हर चेहरे से लिपटी थी।

यकायक कुछ सूझ ही पड़ा मुझे, सोचने समझने को, पूछने बताने को। बस, बरबस ही आंगन के एक कोने में अपना बैग, बिस्तर टिकाकर मैं, हकबकाए से परेश के बगल में जा बैठा। घर के लोगों के लिए मैं कोई नया न था और न ही वे लोग मेरे लिए किसी अजनबी की तरह थे। पहले से होती रही आवाजाही से परेश और उसके परिजनों के साथ एक आत्मीय निकटता बन गई थी मेरी।

हां, पर उनके बीच एक नया चेहरा- आंसुओं में भीगा और दूसरों से कहीं अधिक ही गुमसुम, मुझे सोचने को मजबूर किए जा रहा था कि वह हो न हो हरेश, परेश के छोटे भाई की नवोढ़ा पत्नी हो। साथ ही एक आशंका और बलवती होती गई कि … कहीं हरेश के साथ ही तो हादसा…? थोड़ी ही देर में मेरा अनुमान वास्तविकता में बदल गया जब परेश के बाऊजी ने हौले से मुझे पूछा कि हरेश की दुर्घटना का मैंने कहां से सुना था।

जवाब देते थोड़ा सटपटा-सा गया मैं एक बारगी तो। यह कहते भी न जंचा कि मुझे तो यहीं पहुंचकर, अभी ही पता चल पाया है। लिहाज़ा मैंने झूठमूठ ही बहाना बना लिया कि शहर में मिले उनके एक पड़ोसी ने मुझे ये सब कहा था और इसलिए सुनकर मुझसे रहा नहीं गया था।

आदमी भी अपने मन के हाथों कैसा अजायबघर बन गया है। वह अपने सुख को तो, दुःख को भी किसी लक्ज़री की तरह एन्टरटेन कर लेता है और अपनी ही इस साज़िश को वह पकड़ नहीं पाता है। यही सब होते देखा मैंने वहां भी दोनों ही तरफ़। इधर परेश के परिवार को अपनी हमदर्दी की झूठी तसल्ली का सहारा देता मैं था और उधर अपने आंसुओं के उस पहाड़ जैसे ढेर को भी अपनी किसी उपलब्धि, किसी सम्पत्ति की तरह बखानती परेश एण्ड कम्पनी थी। और मज़ेदार तो यह कि दोनों ही तरफ़, कर्त्तव्यबोध की झीनी चादर आत्मवंचना को ठीक से छिपा नहीं पा रही थी।

अभी मैं अपनी बात पूरी कर पाता कि परेश की मां ने जोड़ा- ‘यही नहीं बेटा, वो सामने बैठी अपनी अपर्णा को देखते हो … पिछले महीने इसका … इसके साथ भी…।’ आगे के शब्द उनकी हिचकियों में गड्डमड्ड होते चले गए। मेरी घूमती नज़रें परेश की बड़ी बहन अपर्णा पर चली गई। वह सफ़ेद साड़ी में लिपटी निश्चल किसी मोम की गुड़िया जैसी लग रही थी। दीवार से खुद को टिकाए, निस्पंद-सी बैठी।

‘हां बेटे, पिछले ही महीने इसका पति भी ‘हार्ट फेलियर’ से चल बसा है।’ परेश की मां ने अपनी छूटी बात का सिरा पकड़ लिया था, ‘अभी हमारी हाहाकार चल ही रही थी कि तभी यह दूसरा पहाड़ टूट पड़ा है हमारे ऊपर। पता नहीं क़िस्मत को अभी और क्या मंज़ूर है?’ उन्होंने अपनी बात फुस-फुसाते से ढंग से पूरी की तो मैं भी सहज ही कह उठा- ‘वही तो, मैंने जब यह सुना था तो यक़ीन ही न हो पाया था। लगा था कि इस झूठी ख़बर के पीछे कहीं किसी की शरारत तो नहीं? लेकिन देखता हूं कि…’ मैंने जानबूझ कर अपनी बात का सिरा खुला छोड़ दिया। और वहीं रंग बदलते अपने मन के गिरगिटपन को फिर पकड़ा।

जैसे-तैसे सुबह होने को आई। अभी नीम अंधेरा ही था कि मैंने उन लोगों से ‘फिर आने को’ कह कर विदा लेना चाही। वैसे भी बोलने-बतियाने जैसा कुछ भी तो नहीं बचा था वहां। इसलिए तीन घंटे की उस मातमी घुटन ने मुझे उबा दिया था अब तक और जल्दी बाहर निकलकर मैं अपनी उस ओढ़ी हुई उदासी को उतार फेंकना चाह रहा था। इसीलिए मैं उनके उत्तर की प्रतीक्षा के शिष्टाचार से भी बेपरवाह हुआ, उठने को उद्यत हुआ। अभी मैं खड़ा ही हुआ कि अचानक परेश उठा। मैं समझा कि वह मुझे बाहर तक छोड़ने आने को है। पर वह खड़े होते ही अप्रत्याशित ढंग से मुझसे लिपट गया … और बड़े ही अनहोने तरीक़े से उसकी हिचकी बंध गई। जब से मैं वहां पहुंचा था, अब तक किसी प्रस्तर प्रतिमा की भान्ति बैठे रहे परेश के अविश्वसनीय बदलाव से, मुझे मेरे अभिनय की पोल खुलती लगी।

अब तक, जितनी देर मैं वहां रहा था- परेश मुझे पहले से कहीं अधिक संजीदगी और ईमानदारी से अपने ब्रह्मज्ञानी होने का परचम उठाए लगता रहा था। तटस्थ भाव से बने रहकर, किसी तथाता की तरह। फिर अब, अब ये सब क्या?

अभी मैं उसकी इस अनपेक्षित उपफन्ति की कोई निष्पत्ति निकाल पाता, वह फूट पड़ा, बह चला- ‘तुम्हीं न कहते थे कि मैं गीले दस्ताने पहनकर, कभी कुछ कर न पाऊंगा। हां, शायद तुम ठीक ही कहते थे कि सिद्धांतों की सूखी पगडंडियों पर आदर्शों और सपनों को हांका-धकियाया तो जा सकता है पर … पर हंसी-खुशी की खुशहाली तो आंसू की हरियाली तो चाल-चलन के गीले गलियारों में ही पायी जा सकती है। मैं … मैं हारा आज अपने आप से ही। हां … मैं हार गया लगता हूं।’

तभी उसकी पत्नी ने मेरी ओर चाय का प्याला बढ़ा दिया। पता नहीं वह कब वहां से उठकर चाय बना लाई थी और … पर मैंने परेश को और ज़ोर से अपने सीने से सटा लिया और वह दहाड़ मार कर रो दिया।

मैंने देखा, परेश की सांसें मेरी सोचें और चाय की प्याली से उठती भाप की लकीरें, तीनों ही कोई आकार नहीं ले पा रहे थे। बस थे, बड़े ही बेतरतीब उखड़े-उखड़े से।

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