कितनी भी जल्दी की जाये, ऑफ़िस पहुंचने में देर हो ही जाती है। घर से यदि जल्दी निकला जाये तो बस की प्रतीक्षा में समय बीत जाता है। ऑफ़िस नज़दीक होता तो परेशानी न होती। पैदल ही चला जाता। लेकिन रोज़-रोज़ दस किलोमीटर की पैदल यात्रा की ज़हमत उठायी भी तो नहीं जा सकती। पांच किलोमीटर इधर से तो पांच किलोमीटर उधर से।

एक पुरानी साइकिल है। वह भी दो महीने से ख़राब पड़ी है। ढाई-तीन सौ रुपये हों तो कहीं जाकर दोनों टायर-ट्यूब बदले जायें। बड़ी मुश्किल से तो घर का ख़र्चा चलता है। कितना भी करो किसी न किसी का उधार चढ़ा रहता है। साल में जब एक बोनस मिलता है तो सोचता हूं कोई चीज़ ले लूं। लेकिन पुराने क़र्ज़े सिर पर चढ़े मिलते हैं। अब तो सोचना ही छोड़ दिया है। सोचने से तो कुछ बनता ही नहीं, दिमाग़ अलग ख़राब होता है।

इस बार बोनस मिला तो सोचा था कि गरम सूट नहीं तो कम से कम एक कोट ही सिलवा लूं। रही पैंट तो सूती से ही काम चला लूंगा। ससुराल से साले-सालियां जीजा जी से मिलने चले आये। मन मार के स्वागत करना ही पड़ा। कोट सिलवाने का विचार भी स्थगित करना पड़ा। अब तो पता नहीं क्यों रिश्तेदारों के आ धमकने पर मुझे बुख़ार आ जाता है।

लगता है आज भी देरी हो जायेगी। साढ़े नौ तो घर पर ही बज गये। श्रीमती जी हैं कि जब भी कहीं चलने की तैयारी करो तो कोई न कोई समस्या लेकर प्रस्तुत हो जाती हैं।

“ऑफ़िस जा रहे हो क्या?” तैयार होते देखकर पत्नी ने पूछा।

“क्यों क्या बात है?”

“शाम के लिए कुछ नहीं है।”

“तो क्या? इसी समय बताना था। पहले नहीं बता सकती थी।” पत्नी पर ग़ुस्सा आ रहा था। इसीलिए ग़ुुस्से के लहज़े में कहा, “तुम्हारी तो आदत हो गयी है जब चलने लगो तो अपनी रोनी सूरत लेकर खड़ी हो जाती हो।”

स्वाभाविक था पत्नी को भी ग़ुस्सा आ गया। बोली, “तो महीने भर का सामान इकट्ठे ला क्यों नहीं देते। झगड़ा ही ख़त्म हो जाये।”

“झगड़ा तो ज़िन्दगी भर नहीं ख़त्म हो सकता। कितना भी ला दूं तुम्हें पूरा ही नहीं पड़ता।” अपनी असमर्थता को छुपाने के लिए मैं बोला।

मैं तो समस्या से मुंह मोड़ सकता था। लेकिन पत्नी कैसे मोड़ती। समस्या से उसे ही जूझना था। बोली, “तो क्या मैं खा जाती हूं।”

“खा नहीं जाती हो। मेरा मतलब हिसाब से ख़र्च करना चाहिए।”

“हिसाब से कैसे ख़र्च किया करूं? पहले तुम्हारे कवि, मित्रों से पूरा पड़े न। फिर बाक़ी का सोचूं।” अपनी खीझ उतारते हुए पत्नी ने जवाब दिया।

“तुम्हारे भाई-बहन आते हैं तो कुछ नहीं। मेरे दो-चार मित्र आ जाते हैं तो सारा ख़र्चा हो जाता है।”

“एक बार खुद ही ख़र्च कर क्यों नहीं देख लेते? मैं हूं तो तुम्हारी गृहस्थी घसीट रही हूं। दूसरी होती तो पता चलता।” कहकर वह रोने लगी।

पराजित होते देखकर मैं बोला, “अच्छा देखो, कहीं से प्रबन्ध करूंगा।”

“कहां से करोगे अभी तो तनख्वाह मिलने में चार दिन बाक़ी हैं।”

“तो लाला के यहां से उधार सामान मंगवा क्यों नहीं लेती?”

“पप्पू को भेजा नहीं था क्या?”

“तो क्या कहा उसने?”

“कहा कि आटा नहीं है। शायद शाम तक आ जाये।”

“तो शाम तक उसके यहां आ ही जायेगा। फिर भेजकर मंगवा लेना।”

“वह उधार नहीं देगा।”

“क्यों?”

“पप्पू कह रहा था कि उसके सामने दूसरे ग्राहक को आटा दिया मगर जब उसने मांगा तो कह दिया कि ख़त्म हो गया।”

“पिछले महीने का पैसा बाक़ी है न! इसलिए ऐसा कहा होगा। साला! बहुत काइयां है। सोचता होगा कि और ले जायेंगे तो पता नहीं कब देंगे!”

“उसका आज तक कभी बाक़ी रहा भी है कि इस बार रहेगा। अधिक से अधिक यही तो होता है कि इस महीने का उस महीने अदा कर दिया जाता है। इसी महीने नहीं दिया गया है।” कुछ क्षण रुककर पुन: बोली, “अगर बहन गुड़िया और भाई गप्पू दोनों न आते तो इस महीने भी दे दिया जाता। वे बेचारे पहले-पहल आये थे। कुछ न देती तो क्या सोचते!”

ऑफ़िस जाने को देरी हो रही थी। इसलिए बोला, “छोड़ो इन बातों को ऑफ़िस में ही किसी से मांग लूंगा।”

“किससे मांगोगे?”

“वर्मा से कहूंगा अभी अकेला है। ख़र्च भी उसके कम हैं। अपने पास कुछ न कुछ रखता ज़रूर है।”

“उससे भी तो पिछले महीने पचास रुपये लिये थे। अभी दिए भी नहीं?” अपनी जानकारी देते हुए पत्नी बोली।

“दिए होते तो क्या तुम्हें मालूम न होता….। ….न हो तो तुम्हीं किसी पड़ोसन से मांग लो। पहली को दे देना।”

“किससे मांगू। सभी के यहां तो यही हाल है। एक मिसेज़ श्रीवास्तव हैं। उनके पास जाओ तो पहले घण्टों बैठायेंगी। फिर कहेंगी कि क्या बताऊं मिसेज़ पाण्डेय आपने कल बताया होता तो ज़रूर व्यवस्था कर देती। हमें क्या मालूम था कि आपको पैसे की ज़रूरत है। नहीं तो साड़ी अगले महीने ख़रीदती। कल मार्किट गयी थी तो एक साड़ी पसन्द आ गयी पास में पैसे थे ख़रीद ली।” कुछ पलों की खामोशी के बाद पत्नी बोली, “कहो तो एक बार फिर जाकर उनका भाषण सुन आऊं।”

“रहने दो रतनलाल से मांग लूंगा।”

“वह भी तो कौन सा मिसेज़ श्रीवास्तव से कम है।”

“तुम्हें कैसे मालूम।”

“तुम्हीं तो कहते हो कि जब भी उससे कोई चीज़ मांगो कोई न कोई बहाना बना देता है। खुद ही बताते हो, खुद ही भूल जाते हो। मैं तो कभी नहीं भूलती।” अपनी याद्दाश्त की प्रशंसा करते हुए पत्नी ने कहा।

“एक चिंता हो तो बात भी है। यहां तो ऑफ़िस से लेकर घर तक की चिन्ताओं का सिलसिला लगा रहता है।”

“तो क्या समझते हो कि तुम्हें ही सारी चिन्ता रहती है। मुझे नहीं रहती। दिन भर काम करते-करते पस्त हो जाती हूं। रात को लेटती हूं तो सारा बदन टूटता है।”

“महरी क्यों नहीं लगा लेती। कुछ तो बोझ हल्का होगा। बिना मतलब के ही तो परेशान होती हो।” सहानुभूति जताने के लिए मैं बोला। लेकिन पत्नी ने दूसरा ही अर्थ लगा लिया। बोली, “लगा क्यों नहीं देते। कौन मना करता है।” फिर अपने मन की पीड़ा को उड़ेला, “इतने साल हो गये। अपने मन से कभी कोई सामान लाकर दिया? कब से कह रही हूं कि एक पिक्चर दिखा दो। बस यही जवाब सुनती हूं कि सैंकड़ों रुपये ख़र्च हो जायेंगे। …तुम्हें तो पत्नी नहीं नौकरानी की ज़रूरत थी।”

वातावरण काफ़ी विषाक्त होता जा रहा था और घड़ी की सूइयां बढ़ती जा रही थीं। इस कारण मैंने समय से समझौता करते हुए कहा, “ऑफ़िस से लौट आने दो। कोई न कोई प्रबन्ध करूंगा।”

दिन भर ऑफ़िस के काम में मन नहीं लगा। सामने टेबल पर सिर्फ़ फ़ाइलें खोलकर बैठा रहा जिससे कोई देखे तो समझे कि काम कर रहा हूं। ऐसी ही मन:स्थितियां दूसरों की भी होती होंगी। काम हो तो कैसे हो।

आज ऑफ़िस से पैदल ही चल पड़ा। सोचा एक ओर का बस किराया ही बचेगा। गृहस्थी के किसी काम आयेगा।

लौटने में देर होनी थी हुई। इसीलिए जब घर पहुंचा तो देखा कि पत्नी दरवाज़े पर ही खड़ी है। देखते ही पूछा, “आज देर क्यों लगा दी?”

“पैदल आया हूं।”

“क्यों? बस के लिए पैसे नहीं थे क्या?” फिर सोचकर बोली, “आपकी पैंट की जेब में पांच का एक सिक्का रख तो दिया था। नहीं मिला क्या?”

मैंने सच्चाई छुपाते हुए कहा, “ऑफ़िस से सुन्दरलाल जी से बातचीत करते हुए उनके घर तक आ गया था तो सोचा आधा फ़ासला तय हो ही गया है क्यों न पैदल ही चलूं। बस पैदल चला आया।”

“इतनी दूर तो कभी पैदल चले नहीं। थक गये होंगे। चलिए मुंह-हाथ धोकर फ्रेश हो लीजिए तब तक मैं चाय लाती हूं।”

“गांव छोड़े तीस बरस हो गये। तब से आज तक वास्तव में कभी इतनी दूर पैदल नहीं चला था। वह भी इस उम्र में। पहले की बात दूसरी थी। गांव से शहर तक पैदल ही चला जाता था। …अब तो दस क़दम भी चलना पड़ता है तो थकावट आ जाती है। …ताक़त भी कहां से आये? …यहां गांव की तरह न दूध न घी। ले-देकर मक्खन निकाले दूध की चाय यों कहिए गरम पानी। …उसके सहारे अपना शरीर ढोता रहूं यही बहुत है।”

थकावट के कारण आज की चाय कुछ ज़्यादा ही अच्छी लगी। साथ में पकौड़ी भी लजीज़ लगी।

आदमी को जब आराम मिलता है तो इधर-उधर की सोचने लगता है। अन्यथा अपने में ही इतना मशगूल रहता है कि दूसरे के बारे में सोचने की उसे फुर्सत ही नहीं रहती।

कुछ आराम मिला तो पत्नी को आवाज़ दी, “गोपाल की मां! ज़रा सुनना तो।”

“क्या है? …और चाय लीजियेगा क्या?” पत्नी ने चौके में बैठे ही बैठे सवाल उछाल दिया।

“नहीं, एक बात पूछनी है।”

“अभी आयी।”

“वह आयी तो पूछा पैसे कहां से लायी?”

“मिसेज़ वर्मा से मांगा था। उन्होंने मना कर दिया तो फिर किसी से नहीं मांगा। सोचा किसी से मांगना व्यर्थ है। इसीलिए तुम्हारी जो पुरानी पत्रिकाएं और काग़ज़ थे उन्हें बेच दिया। बीस किलो थे। पांच रुपये के हिसाब से सौ रुपये मिले।”

इस दास्तान को सुनकर सिर पर हाथ रखकर बैठ गया। वर्षों की मेहनत से एकत्रित सामग्री सौ रुपये में बिक गयी थी। मैं चिन्ता में गहरे समा रहा था कि पत्नी बोल पड़ी, “सोच क्या रहे हो? उसे कोई पूछता भी था? कितनों को तो तुम दिखा चुके थे। कोई उसे छापने को तैयार था? अच्छा हुआ कि रद्दीवाले ने उनके सौ रुपये दे दिये। इस महीने कोई कर्ज़ नहीं चढ़ा। नहीं तो पता नहीं…।”

एक उच्छ्वास भरकर कहा, “हां, अच्छा हुआ। …इतने दिनों की मेहनत ने इस महीने कर्ज़ बढ़ने से बचा लिया।”

2 comments

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