-सुनीता सिंह

किसी ने क्या खूब कहा है कि “बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपया” पुराने ज़माने की यह कहावत आज शहरों से लेकर गांव तक हर जगह चरितार्थ होती नज़र आ रही है। आज यदि इसमें जोड़ दिया जाए कि “चाहे कितनी भी गुणवान हो गृहलक्ष्मी पर हमें चाहिए लक्ष्मी” तो तनिक भी अतिशयोक्ति न होगी। आज महिलाओं ने पुरानी परंपराओं को तोड़ कर समाज में एक अहम मुक़ाम हासिल कर लिया है। वे अब घरेलू होने के साथ-साथ कमाऊ भी हो चुकी हैं। लेकिन लक्ष्मी को अपने बैंक खातों और पर्स में क़ैद रखने वाली इन महिलाओं को भी इसी का ही सहारा है। जितनी तेज़ी के साथ समाज में कामकाजी महिलाओं का ग्राफ़ बढ़ा है उतनी ही तेज़ी के साथ लड़कों की बेरोज़गारी का अनुपात भी बढ़ा है। अपनी इस बेरोज़गारी को दूर करने कि लिए यह लोग गृहलक्ष्मी को लक्ष्मी तक पहुंचने का साधन मात्र समझने लगे हैं। चाहे कमाऊ पति हो या निकम्मा! दहेज़ लेना सभी अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं और दहेज़ के इन दानवों के बीच एक अनपढ़ से लेकर समाज में अपना मुक़ाम बना चुकी सफल महिलाएं तक सभी घुट-घुट कर जीने को मजबूर हैं। वहीं दूसरी ओर आजकल के अख़बार भी इन लोगों के लिए अलादीन का चिराग साबित हो रहे हैं। सप्ताह में छह दिन भले ही अख़बार पढ़ें अथवा न पढ़ें लेकिन रविवार को इनके घरों में हिन्दी, पंजाबी से लेकर अंग्रेज़ी तक के लगभग सभी अख़बारों की प्रतियां आसानी से देखने को मिल जाती हैं। इसमें छपे वैवाहिक विज्ञापन इनके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होते है क्योंकि इन्हीं के माध्यम से वह अपने शिकार की तलाश करते हैं।

बदलते परिदृश्य में हम आज जहां आधुनिकता का चोला पहन कर 21वीं सदी में जी रहे हैं वहीं हमारी मानसिकता पुरातन काल से भी बदतर होती जा रही है। प्राचीन काल में जहां स्त्रियों को देवी का स्वरूप माना जाता था उसे जगत् जननी की संज्ञा से विभूषित किया जाता था। आज के समाज में वहीं नारी लक्ष्मी का पर्याय मात्र बन कर रह गई है। मॉडर्न युग में लोगों की यह धारणा बनती जा रही है कि किसी धनी संपन्न घर की अथवा कमाऊ लड़की को अपने घर की बहू बनाकर अपनी दरिद्रता को दूर करें। दहेज़ में मोटी रक़म लेना आज कल एक फ़ैशन सा बनता जा रहा है। यहां कहने का सीधा-सीधा तात्पर्य यह है कि दहेज़ रूपी दानव हर वर्ग चाहे वह ग़रीब हो या अमीर, नौकरीपेशा हो या बेरोज़गार, जवान हो या बूढ़ा, सभी को अपने शिकंजे में लेता जा रहा है। ग़रीब, लाचार एवं बेरोज़गार अपनी परेशानी एवं ग़रीबी को कुछ कम करने की दुहाई देकर दहेज़ का सहारा लेते नज़र आ रहे हैं तो वहीं संभ्रांत और संपन्न परिवार के लोग इसे समाज में अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते नज़र आते हैं। बहरहाल कारण चाहे जो भी रहा हो परिणाम यही सामने आता है कि गृहलक्ष्मी पर लक्ष्मी अधिक हावी होती जा रही है।

अब हम यदि एक सामान्य सा उदाहरण ही लें जो शायद हम आप सभी के आस-पास अक्सर बहुत ही सरलता से देखने को मिल जाता है। यदि किसी परिवार में दो बहुएं आएं। उनमें से एक खूब सारा दहेज़ लेकर आती है और दूसरी साधारण ग़रीब परिवार से कुछ गिने-चुने सामान के अलावा अपने अच्छे संस्कार और बहुमुखी प्रतिभा लेकर आयी हो। दोनों में से परिवार का प्यार और सम्मान किसे ज़्यादा मिलता है? अक्सर देखने में आता है कि संपन्न परिवार की दहेज़ लाने वाली बहू ही ससुरालियों की चहेती बन जाती है वहीं बेचारी ग़रीब घर की लड़की अमीर घर की लड़की से ज़्यादा संस्कारी, गुणी एवं बुद्धिमान होने के बावजूद कम दहेज़ लाने का ठप्पा लेकर उसी परिवार में घुट-घुट कर जीने को मजबूर हो जाती है जो कि दहेज़ रोगियों की निकृष्ट मानसिकता को उजागर करता है।

एक नज़र डालें तो आज सुबह-सुबह जब भी हम अख़बार खोलते हैं तो अक्सर दहेज़ हत्या, दहेज़ प्रताड़ना आदि से संबंधित ख़बरें सुर्खियों में नज़र आती हैं। ऐसा कोई भी दिन नहीं होता जब अख़बार के किसी कॉलम में दहेज़ से जुड़ी कोई भी ख़बर प्रकाशित न की जाए। इसके अलावा न जाने दहेज़ प्रताड़ना के कितने ही ऐसे मामले होते हैं जो घर की दहलीज़ तक नहीं लांघ पाते और घर की चारदीवारी में ही दम तोड़ देते हैं।

प्राचीन काल में दहेज़ को स्त्रीधन की संज्ञा दी जाती थी। वह स्त्री का अपना धन हुआ करता था। गांव के गांव पूरा साम्राज्य दहेज़ में दे दिया जाता लेकिन कन्या को इसके लिए प्रताड़ित नहीं किया जाता था। यहां तक कि यदि कोई राजा युद्ध में पराजित हो जाता था तो वह अपनी पुत्री का विवाह विजेता राजा से करके अपने साम्राज्य को फिर हासिल कर लेता था परन्तु आज के इस वैज्ञानिक युग में इंसान इन सारी सीमाओं को लांघ गया है। अब किसी की पुत्री से विवाह कर उसके पिता को साम्राज्य लौटाना तो दूर लड़की के पिता की प्रॉपर्टी को पाने के लिए आज के जमाई राजा अपने एक इकलौते साले की हत्या तक करने में तनिक गुरेज़ नहीं करते। नई नवेली दुलहन को दहेज़ जैसी तुच्छ वस्तु के लिए काल के गाल में धकेलना आम बात हो गई है।

इस एक समस्या ने समाज में अपने पीछे कई अन्य बुराइयों को भी बढ़ावा दिया है। जहां कन्या के जन्म के बिना घर को घर नहीं माना जाता था। वहीं आज के इस वैज्ञानिक युग में डॉक्टरी चेकअॅप (अल्ट्रासाउंड जैसी तकनीक) के सहारे न सिर्फ़ गर्भ में पल रहे भ्रूण का लिंग-परीक्षण करवाया जाता है बल्कि दुनियां में आंखें खोलने से पहले ही कन्या की आंखें सदा-सदा के लिए बंद कर दी जाती हैं। हमारे देश में आज भी कुछ ऐसे इलाके हैं जो विकास से महरूम हैं। वहां ऐसी डॉक्टरी तकनीकें फ़िलहाल नहीं पहुंच सकी हैं लेकिन इन कुरीतियों एवं बुराइयों से वह भी अछूते नहीं हैं। वहां जन्म के बाद कन्या की निर्मम हत्या कर दी जाती है और यह निर्दयता का काम कोई और नहीं बल्कि स्वयं उस कन्या की जन्मदायिनी मां से ही करवाया जाता है। ऐसे कुछ गांव मध्य प्रदेश और राजस्थान में आज भी विद्यमान हैं। कुछ वर्ष पूर्व घटनाओं पर नज़र डालें तो मध्य प्रदेश के भिंड ज़िले में कुछ महीनों पहले एक ऐसा ही दिल दहला देने वाला मामला प्रकाश में आया है। वहां पर एक नवजात बच्ची को सिर्फ़ इसलिए खौलते दूध में डालकर हत्या कर दी गई थी कि वह एक लड़की थी। इसके पीछे वहां के लोगों में यह धारणा थी कि खौलते दूध में भगवान् के पास गई नवजात लड़की अगले जन्म में लड़के के रूप में उसी घर में जन्म लेगी। अंधविश्वास और नारी विरोधी यह समाज नृशंसता के इस निकृष्टतम् स्तर पर पहुंच गया है कि वह खुद कृत्य पर पश्चाताप करने के बजाए उसे सुकृत्य मानने लगा है।

समाज में व्याप्त इस बीमारी का भाजन न केवल ग़रीब घर की कन्याओं को ही बनना पड़ता है बल्कि पढ़ी-लिखी सैल्फ डिपेन्डेंट और आधुनिक कही जाने वाली महिलाओं को भी इस समस्या से जूझना पड़ता है। आलम यह है कि आज लड़कियां जितनी अधिक पढ़ी-लिखी अथवा कामकाजी होती हैं उनके लिए वर तलाशने में उतनी ही मोटी बोली लगानी पड़ती है। आज अख़बार, टी.वी., रेडियो और इंटरनेट आदि पर हर तरह के लड़कों की रेट-लिस्ट आसानी से मिल जाती है जिसमें एक आई. ए. एस. से लेकर क्लर्क तक का रेट शुमार होता है। आज के मां-बाप लड़के के जन्म से जवानी तक के पालन-पोषण और पढ़ाई-लिखाई आदि का ख़र्च लड़की वालों से बेझिझक वसूलना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। यहां यह प्रश्न उठता है कि क्या लड़की के मां-बाप अपनी बेटी की परवरिश और ऐजुकेशन पर ख़र्च नहीं करते? फिर यह हिसाब-किताब सिर्फ़ लड़के वाले क्यों करते हैं लड़की वाले क्यों नहीं?

आज समाज में यह समस्या इस क़दर हावी हो गई है कि अगर समय रहते इस पर क़ाबू नहीं पाया गया तो एक समय ऐसा आएगा जब लोगों के पास गृह तो होगा लेकिन उसे संवारने वाली गृहलक्ष्मी का नामोनिशान तक मिट चुका होगा। फिर हालत वैसी ही होगी जैसे वर्तमान में यू. पी. के लखनऊ स्थित उस गांव की है जहां बिजली पानी न होने के चलते गांव के युवकों का विवाह नहीं हो पा रहा है। अतः उस गांव के युवक कहीं बाहर जाकर बस रहे हैं और वहीं अपने जीवन साथी को तलाश रहे हैं। लेकिन दहेज़ के प्रकोप के चलते यह विकल्प भी भविष्य में मिलना नामुमकिन होगा।

ऐसा नहीं है कि हमारी सरकारों ने इस कुप्रथा पर नियंत्रण या अंकुश लगाने के लिए कोई कानून नहीं बनाया है। कानून भी बने हैं लेकिन उनका सही ढंग से क्रियान्वयन नहीं हुआ है। लोक लाज और अंधकारमय भविष्य के डर से बहुत ही कम लोग समय रहते इस कानून का सहारा लेते हैं। मानव अधिकार संगठन, महिला आयोग समेत कई सरकारी एवं ग़ैर-सरकारी स्वयंसेवी संस्थाएं इस दिशा में प्रयासरत भी हैं कई सामाजिक संगठन हैं जो लड़कियों का सामूहिक विवाह संपन्न कराते हैं परन्तु यह सभी प्रयास तब तक निरर्थक हैं जब तक कि व्यक्ति स्वयं से जागरूक नहीं होता है। लोगों को अपनी मानसिकता एवं विचारधारा में भी परिवर्तन लाने की आवश्यकता है क्योंकि बेहतर एवं सुयोग्य वर की कामना में स्त्रीपक्ष की ओर से इस कुरीति को स्वीकार करना भी इस समस्या को बढ़ावा देता है। संपन्न एवं नौकरीपेशा लड़कों को लड़की वालों की तरफ़ से मुंह मांगा दहेज़ देना एक तरह के दहेज़ लोभियों के मनोबल को ऊर्जा प्रदान करता है। अतः जब तक इंसान और समाज अपनी इस मानसिकता को परिवर्तित नहीं करेगा तब तक विवाहिताओं का दहेज़ की भेंट चढ़ने का यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा।

 

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