-मीरा हिंगोरानी
कभी-कभी इंसान हालात के हाथों मजबूर हो जाता है। हालात उस पर इस क़दर हावी होने लगते हैं कि वो बस पिंजरे में क़ैद परिन्दे-सा फड़फड़ा कर रह जाता है। हमने बहुत चाहा पत्नी हमारे विचारों से सहमत हो। हमारी हर बात में हां में हां मिलाकर चले। क्या है कि हमें लिखने की बेहद बुरी बीमारी है। उधर पत्नी हर वक़्त डांटने फटकारने में माहिर है। वो तो हम दब्बू क़िस्म के ढोर हैं कि उनकी फटकार, हमारे ऊपर से चिकने घड़े पर पानी की तरह फिसल जाती है। वरना हमारी गृहस्थी की गाड़ी, कब की पटरी छोड़ चुकी होती।
जब कभी हम देर रात में टैगोर की ‘गीतांजली’ या दिनकर जी की ‘उर्वशी’ पढ़ रहे होते हैं तो हमारी श्रीमती जी, पड़ोसन उर्मिला भट्ट की रामायण का राग छेड़ देती है। हमें उनकी कम-अकली पर तरस आता है। वे कहती है- “सुना है उर्मिला के पति उमेश का दफ़्तर की किसी क्रिश्चियन लड़की से, इश्क-विश्क चल रहा है। अजी अब तो बेशर्मी की हद हो गई, अब तो घर पर फ़ोन भी आने लगे हैं। आज मुझसे बात करते-करते, बेचारी उर्मिला उखड़ गई। औरत जात, क्या पता कब पराई चीज़ हथिया ले? बेचारी उर्मिला! मायके में मां का साया नहीं वरना, कब की चली गई होती।”
हम पत्नी की आवाज़ से सहम जाते हैं। अंतिम पंक्ति के शब्द अपने ऊपर ले लेते हैं। दुबक कर रज़ाई में सरक लेते हैं। इधर पत्नी का भाषण, उधर हम किताब में मुंह दिए पढ़ने का नाटक करते हैं। यही चुप्पी की सही सज़ा भी है। हम क्या करें? पत्नी की बातों का सिलसिला ख़त्म होने में ही नहीं आता। यहीं से हमारी सहन शक्ति की ईश्वरी परीक्षा शुरू होती है। हम जानते हैं कि सुकरात जी भी अपनी ग़ुस्सैल पत्नी की गालियों का स्वागत मुस्कुराकर करते थे। तभी शिवजी की तरह, गर्ल पीकर नीलकंठी बने।
अगर भूले से भी हम घर की व्यवस्था के विषय में कुछ बोलें तो समझो हमारी शामत निश्चित है। हम दफ़्तर में भी सदा मिट्टी के माधो बने रहे। इधर वाचालता हमारे चंट, चापलूस दोस्त मार ले गए। घर में खाने का बुलावा मेज़ के खनकते बर्तन देते हैं। ऐसे में हमें एक क़िस्मत के मारे, पत्थर खाए कवि की पंक्तियां याद आती हैं।
हमने एक आवाज़ उठाई थी रिवाज़ों के ख़िलाफ़।
बर्छियां ले के निकले, घरों से कुछ लोग।
इन बर्छियों की बौछार तो हर वो मर्द झेलेगा जिसकी मर्दानगी चूक गई होगी। अब आलम ये है कि पत्नी बोलती है, हम सुनते हैं। कभी-कभी उनकी कानफोड़ू आवाज़ें पड़ोसियों की नींद में ख़लल डालती है। अब हम बस दिन रात बच्चन जी की मधुशाला में आकंठ डूबे रहते हैं-
चतुर्दशी के चांद-सा चेहरा।
उस पर था, तिल काला।
खुदा का कर्म। हम रिटायर प्राणी हैं, अपनी ज़िन्दगी का टायर कब पंचर हो जाए, कौन जाने? महीने के शुभारंभ में, पेंशन की राशि पाकर भी, पत्नी के चेहरे पे, मधुबाला वाली मोहक मुस्कान कभी नहीं आती।
हमारे पुश्तैनी मकान की छत अभी सलामत है। छत पर टहलने का अलग आनंद है। हमारे बाएं हाथ वाली पड़ोसन की बेटी सुशीला, जब हमारी तरफ़ देख कर मुस्कुराती है तो हमारा दिल बल्लियों उछलने लगता है। तभी पत्नी की तेज़ तीखी नज़रें, हमारा सीना छेदती हैं। हम मन मसोस कर, नीचे उतरते हैं। उदासी भरे मन में शब्द चुपचाप, पतझड़ी पत्तों से झरते रहते हैं।
अब हमने अपनी सोचों का दायरा बदल लिया है। मिमियाते शंखी की तरह एक किनारे पड़े रहना, कहां की बुद्धिमानी है। इतनी मशक़्क़त के बाद वीरप्पन जंगलों में ही क्यों मरा? मोदी पर गुजरात की गहन गाथा का इतिहास, कौन-सी क़लम से लिखा जाएगा? ऐसे कई सवाल हैं जो, हमारे चिंतनशील लेखक मन को उद्वेलित करते हैं। अब घर की बागडोर पूरी तरह पत्नी के हाथों सौंप, हम देश के प्रति सजग हो उठे हैं। हमारी सोचों का सागर गहराया है- इस देश का क्या होगा? जिसकी राजनीति के खंभे, बेईमानी की बुनियाद पर खड़े चरमरा रहे हैं।
कौन-सी दुकान पर कैसी सेल लगी है, उनकी कौन-सी सहेली ने, पिछली किट्टी-पार्टी में, कितनी महंगी साड़ी पहनी। इन गणित हिसाबों में पत्नी का दिमाग़ खूब काम करता है। एक बार वे नई साड़ी लेने पर अड़ गई। हमने समझाया- “भाग्यवान। आपकी अलमारी ठसाठस साड़ियों से भरी है।” उनका तर्क था कि वे सब साड़ियां हमारे पड़ोसियों की देखी भाली हैं। अब हम सोच रहे हैं कि मुहल्ला बदल लें। लेकिन, फिर छत पर सुशीला की मधुबालाई मुस्कान का क्या होगा? अब लगता है, चुप रहने में ही भलाई है। एक तो एनर्जी की बचत, दूसरा भीतर क्या चल रहा है, कोई नहीं जान पाता। तिस पर लोगों की सहानुभूति। इसलिए-
बस हम चुप हैं ।। और चुप हैं।।