-विजय रानी बंसल
एक दिन शाम को पतिदेव बड़ी प्रसन्न मुद्रा में घर आए और आते ही मुझे बांहों में भरकर बोले- “अरे डार्लिंग। एक खुशख़बरी सुनो। परसों हमारे यहां अधिकारी क्लब में एक कवि-गोष्ठी का आयोजन हो रहा है और उसके बाद रात्रि-भोज दिया जाएगा। भई मैंने तो अपनी कविता तैयार कर ली है। अब तुम भी भोज में जाने की तैयारी शुरू कर दो। तुम्हें बहुत अरमान था न कि कभी क्लब नहीं गयी, वहां जाकर डिनर नहीं किया। अब तो तुम्हारी मुराद पूरी होने जा रही है। बस इसी खुशी में गरमा-गरम पकौड़े खिला दो अब।”
कवि-गोष्ठी का सुनकर मन कसैला हो उठा। पर क्लब जाने की कल्पना से रोम-रोम खिल उठा। मेरे पैर ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। चाय पीकर मैं क्लब जाने की धुआंदार तैयारी में जुट गई और जो तैयारी मैंने तब की उसे याद करके अपनी बेवकूफ़ी पर आज भी हंसी आ जाती है।
सबसे पहले मैंने अपनी अलमारी में से सारी साड़ियां निकाल कर बेड पर फैला दीं। एक-एक करके मैंने उन साड़ियों को पहनना शुरू कर दिया और आईने के सामने खड़े होकर हर कोण से अपने को निहारने लगी। पर किसी भी साड़ी को पहनकर मन खुश नहीं हुआ और मौक़े का फ़ायदा उठा कर मैंने ऐलान कर दिया कि अभी एक क़ीमती नई साड़ी लानी पड़ेगी जिसे पहनकर क्लब जा सकूँ। पति देव ने भी हमारी भावनाओं की क़दर करते हुए तुरन्त हां कर दी। मन बाग़-बाग़ हो उठा।
अगले दिन ब्यूटी-पार्लर जाकर अपना चेहरा पॉलिश करवाया और बाल भी नए स्टाइल में सैट करवा लिए। आईने में अपना रूप देखकर खुद ही शरमा गई। पति की प्रशंसात्मक दृष्टि ने तो सोने पे सुहागे का काम किया और चेहरा गर्व के दर्प से दमक उठा। अगले दिन श्रीमान जी सारा इन्तज़ाम करवा कर ऑफ़िस से जल्दी आने का कह कर चले गए। दोपहर को आकर सबसे पहले इन्होंने मुझे बूफे के तौर-तरीकों से अवगत कराना शुरू कर दिया, “वहां सब कुछ अपने आप ही लेकर खाना होता है। अत: अपनी मन पसन्द की चीज़ें लगा लेना और मन भर कर खाना और हां नेपकिन को प्लेट के साथ इस तरह से रखना” पतिदेव की शिक्षा पर ध्यान न देते हुए बस यही सोचती रही कि मेरी पसन्द की क्या-क्या चीज़ें होंगी वहां। ‘मैं तो बस चार-पांच गुलाब जामुन और पनीर की सब्ज़ी ही खाऊंगी’ और इन्हीं ख़्यालों में डूबी मैं पार्टी में जाने के लिए तैयार होना शुरू हो गई।
जब शाम के सात बजे तक भी मेरा सोलह-सिंगार पूरा नहीं हुआ तो पतिदेव के सब्र का बांध टूट गया और वे भड़क उठे, “अब चलो भी जब सारा कार्यक्रम समाप्त हो जाएगा तब चलोगी क्या?” मैं बड़बड़ाती हुई पड़ोसन से मांगे हील वाले सैंडिल पहनकर जैसे ही चलने को तैयार हुई, गिरते-गिरते बची और ऐसे ही गिरते-पड़ते आख़िरकार क्लब पहुंच ही गई। वहां कवि-गोष्ठी चल रही थी। मुझे एक तरफ़ बिठाकर पतिदेव मंच पर जा पहुंचे। काव्य-पाठ हो रहा था मगर अपनी समझ से बाहर था। अपना ध्यान तो बस वहां आई महिलाओं पर ही केन्द्रित था। अधिकतर महिलाएं सादे व शालीन लिबास में थीं। मुझे अपने सोलह-सिंगार पर बेहद ग्लानि आई और साथ ही नई साड़ी पर पैसे बर्बाद करने का अफ़सोस हुआ सो अलग। पर अब क्या हो सकता था। इसी उधेड़बुन में कवि-गोष्ठी कब सम्पन्न हुई, पता नहीं चला। अपनी तन्द्रा तो तब भंग हुई जब माईक पर घोषणा सुनी कि बाहर लॉन में भोजन का प्रबन्ध किया जा चुका है अतः सभी वहां पहुंच जाएं। सुनते ही लोगों में इस तरह अफ़रा-तफ़री मच गई मानों कहीं बम मिलने की बात हुई हो। एक दूसरे को धकेलते हुए सबसे पहले पहुंचने की होड़ में सभी बाहर की ओर लपके। इसी के बीच किसी का पैर मेरी साड़ी पर पड़ गया और वह थोड़ी-सी फट गई। साड़ी संभाली तो सैंडिल पैर से निकल कर दूर जाकर पड़ा। उसे पाने के चक्कर में मैं औरों से पीछे रह गई। धक्का देते हुए जैसे-तैसे खाने के मेज़ तक पहुंच ही गई। पतिदेव कहीं नज़र नहीं आ रहे थे। सोचा खाना लगा लूं पर यह क्या। प्लेटें तो वहां दूर कोने में रखी हुई थी। भीड़ को चीरती हुई जैसे-तैसे बाहर आई। तब तक बाल खुल कर बिखर चुके थे और मेकअॅप साथ खड़ी महिला के पल्लू द्वारा पोंछा जा चुका था।
प्लेट उठा कर फिर जैसे-तैसे खाने की मेज़ तक पहुंची और डोंगे से पनीर की सब्ज़ी प्लेट में डालने में क़ामयाब हो गई पर तभी साथ वाले सज्जन की प्लेट से चम्मच मेरी प्लेट में आ गिरी और सब्ज़ी छटक कर साड़ी पर जा गिरी। आगे बढ़कर डोंगे से रायता लेना चाहा, मगर एक सज्जन ने ऊपर हाथ करके पूरा का पूरा डोंगा ही उठा लिया। मन खिन्न हो उठा। तभी किसी का सिर डोंगे से टकराया और वह मेरे सिर पर उल्टा हो गया। मेरा तो खून ही खौल उठा, पर किस पर गुस्सा उतारूं? मुझे नहीं खाना ऐसा खाना और मैं अपना सना-पुता वजूद लिए भीड़ को चीरती हुई बाहर निकल आई। सोचा खाना न सही, पर दो-तीन गुलाब जामुन खाकर ही पेट भर लूं। और उन्हें खाने का लोभ-संवरण न कर पाने के कारण जैसे ही उस तरफ़ बड़ी मेरा खुद का पैर साड़ी में उलझ गया। मैं तो गिरते-गिरते बची, पर प्लेट हाथ से छूट कर औंधे मुंह ज़मीन पर जा गिरी। ज़मीन पर फैली पनीर की बची-खुची सब्ज़ी मुझे मुंह चिड़ा रही थी। अब तो मेरी सहनशक्ति जवाब दे चुकी थी। नहीं खाना मुझे कुछ भी।
मैं भीड़ को चीरती हुई, अपने उलझे बाल और फटी साड़ी को सम्भालती हुई जैसे-तैसे बाहर आई तो खुली हवा में सांस लेकर कुछ जान में जान आई। श्रीमान जी का अब भी कुछ अता-पता नहीं था। एक गिलास पानी पीकर भूख शांत करने का प्रयास किया और श्रीमान जी का इंतज़ार किए बग़ैर ऑटो करके खुद ही घर वापिस आ गई। फिर कभी इस तरह के बूफे में न जाने की भीष्म-प्रतिज्ञा करके सो गई।