–शिवनंदन भारद्वाज
जीवन का मूल तत्व आनंद ही है। यदि हमारा जीवन आनंदभरा संगीत नहीं तो इस के कई कारण होने चाहिए। वह है ईर्ष्या, भय, क्रोध, लोभ, निराशा आदि। इन दोषों से विमुक्त जीवन आनंदभरा, प्रेमभरा, निष्काम सेवा भरा और सुन्दरता भरा होगा।
स्वस्थ जीवन यह है कि हम वर्तमान में प्रसन्न रहें। पर लोभी व्यक्ति वर्तमान में कोई आनंद नहीं पाता। वह सदा भविष्य की ओर ताकता हुआ वर्तमान आनंद को खोता है।
क्रोध मनुष्य का महान् बैरी है। यह दोनों को जलाता है जो क्रोध करे व जिस पर क्रोध किया जाये।
निराशावादी जीता है, मृतक के समान। आशा मनुष्य को जीवन देती है। निराशा मनुष्य को शुष्क बना डालती है। आशावान कर्मठ पृथ्वी पर ही स्वर्ग बना सकता है।
बेलगाम प्रतियोगिता की भावना हृदय को प्रेम शून्य बना देती है। “जियो और जीने दो”, इससे सर्वोदय होता है।
मानसिक व शारीरिक थकावट भी अधिक बढ़ जाने पर जीवन को बोझिल बना डालती है। अत: मनोरंजन को जीवन में यथायोग्य स्थान देना आवश्यक है।
ईर्ष्या मनुष्य को अशांत कर देती है। इस का उन्मूलन अविद्या-विनाश से हो सकता है। आत्मज्ञान यही सिखाता है कि सभी के अंदर एक ही आत्मज्योति जीवन प्रदान कर रही है। कोई पराया नहीं है। जो बात तुम्हें अपने लिए पंसद नहीं, उसे दूसरों के लिए भी पसंद न करो।
भय तथा आनंद कभी इक्ट्ठे नहीं रह सकते। भय मनोबल को कमज़ोर कर देता है। शायद पिघलाने वाली ज्वलंत भट्ठी में तो कमल विकसित हो सके, परन्तु भयभीत हृदय में आनंद का प्रवेश सर्वथा असंभव है। मृत्यु का भय आत्मा के अमरत्व के ज्ञान से दूर होता है, गरीबी का भय मेहनत से दूर होता है। लोकमत का भय दूर हो सकता है समाज के साथ असंगत विरोध पैदा न होने देने से। निराशावादी को अपनी आंखों पर से काली ऐनक उतारनी पडेगी व सफेद साफ़ शीशों का चश्मा लगाना होगा।
पारिवारिक प्रेम, विश्व प्रेम व आत्मरति प्रेम जीवन को विकसित करने के साधन हैं। खूब काम करना, उसके पश्चात् खूब आराम करना सफलता की कुंजी है।
लिंग अर्थात सैक्स को जीवन में उचित स्थान देना होगा। इस नैसर्गिक प्रवृत्ति को आध्यात्मिक प्रेम तथा मानसिक उत्पादन में रूपांतरित कर डालना होगा। यही प्रबलभाव क्षणिक आनंद की झलकें दिखाने के स्थान में स्थाई तथा विमल आनंद का द्वार हो जाता है। संक्षेपत:, जीवन आनंद के लिए मनुष्य को जीवन का लक्ष्य सामने रखना चाहिये। वह है “सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम्”, इसको साकार करने के लिए कटिबद्ध होकर परिश्रम करना होगा, क्योंकि आदर्श मानव बनना होगा, आदर्श मानव ही जीवन आनंद का सच्चा अधिकारी हो सकता है। “ज़िन्दगी ज़िन्दादिली का नाम है, मुर्दा दिल क्या ख़ाक जिया करते हैं ?”
“वीरभोगया वसुन्धरा”, जीवन का आनंद वीरों को प्राप्त होता है न कि अधीरों को।