उस दिन अकेलापन निर्धनता की तरह हावी हो गया था। अजनबी चेहरों की भीड़ में अकेलेपन ने अभी आत्मघात नहीं किया था, जब मैंने अपनी ओर घूरती हुई आंखों को देखा।

चाल ढाल से उसके फ़ौजी होने का अनुमान मैंने लगा लिया था। उसके नक़्श अवचेतन मन के किसी कोने में दिखाई दिए, इससे पूर्व कि व्यतीत के पानी की झिलमिल कुछ पारदर्शी होती वो मेरे पास से गुज़र गया।

सदर बाज़ार का चक्कर लगाकर मैं सिनेमा की ओर मुड़ा तो वह सामने से आता हुआ दिखाई दिया, इस बार पहले तो वह ठिठका और फिर मेरे पास आकर खड़ा हो गया।

“आप को कहीं देखा है। ….. कहीं आप खालसा कॉलेज में तो नहीं पढ़ते थे?”

कुछ झेंपते हुए शब्दों को मैं अपनी मुस्कान से ढांपने की कोशिश कर रहा था। उस ने शीघ्रता से मेरी मुस्कान की बांह पकड़ ली, “आप मनमोहन ही हैं न?”

मेरी मुस्कुराहट ने हमारे बीच फैले वर्षों के अंतराल को मनफ़ी कर दिया था। मैंने स्वयं ही उसकी आवाज़ का झेंपता-सा सुर पहचान लिया था। मेरी यादों के अंधेरे कोने में जैसे उसी क्षण चिराग़ जल गया।

“अरे, धत् तेरे की!” कंधों पर धौल जमाते हुए उसने मुझे अपने बाहुपाश में बांध लिया, “मैं तुम्हें पहचानता भी तो कैसे? कॉलेज के दिनों में तो तुम्हारे दाढ़ी नहीं आई थी न!”

“मेरी ठुड्डी पर तो फिर भी झूठे गवाह के अंगूठे जैसी कालिमा थी।” मैं उसकी बांहों में ही हंसा, “….. मगर तुम्हारा चेहरा तो एकदम हथेली-सा साफ़ था।”

न मैं कृष्ण था और न ही वह सुदामा, मगर मेरी मित्रता उसके पल्लू की गांठ थी। केमिस्ट्री के पाठ मेरे से कतरा कर कोसों दूर भाग जाते थे। वह ख़ाली पीरियड में मेरे साथ माथा-पच्ची करता रहता। इस तरह उसके साये में मैं भी आगे सरकता गया।

उस दिन यख़ सर्दी में शरीर सुन्न हो गया। अंतिम अध्याय समझने के पश्चात् मैंने कहा, “चलो कैंटीन में चलकर चाय पीते हैं।”

वह अभी दुविधा में ही था कि मैं उसे बाजू से पकड़ कर साथ ले गया। कैंटीन की कुर्सी पर बैठा वह बौना-सा हो गया था। गर्म चाय के घूंट भरता हुआ वह भीतर ही भीतर कहीं ठिठुर रहा था। कैंटीन से निकलते समय वह जेब में हाथ डाल कर पैसे देने का प्रदर्शन भी न कर सका था। उसका किताबें मांग कर घर ले जाने का अर्थ भी मैंने उसी दिन समझा था।

मैं उसकी बांह पकड़ कर फिर कभी कैंटीन में नहीं ले जा सका था। मुझे इस बात का भय हो गया था कि कहीं फिर से उस पर बौनापन हावी न हो जाए।

वह पुराने चिट्ठे खोल कर बैठ गया।

सड़क के पेड़ों को धूल से भरती हुई एक कार हमारे पास से गुज़र गई।

“चलो कहीं चाय पीते हैं।” बाजू से पकड़ कर वह मुझे चाय की दुकान की ओर ले गया, ठीक उसी तरह जिस तरह एक बार मैं उसकी बांह पकड़ कर कॉलेज की कैंटीन में ले गया था।

हम सूनी-सी दुकान की स्निग्धी कुर्सियों पर जा बैठे।

 

आज शाम को मैंने कल्ब के उत्सव में भी जाना था। मैं उसके साथ आधा घंटा और बैठ सकता था, लेकिन यार ने तो अतीत के दीये जला लिए थे। बातों की लड़ी पहाड़ी रास्तों जैसे मोड़ काटती हुई आख़िर लड़कियों पर आ गई। अब बातें जल्दी ख़त्म होने वाली नहीं थीं।

“वह लड़की फिर नहीं मिली कभी?”

“कौन-सी लड़की?”

“लो, ….. जैसे सैंकड़ों लड़कियां इर्द-गिर्द घूमती थीं बड़े रांझे के।” मैं शरारत में मुस्कुराया, “ले दे कर वही तो थी एक ….. ।”

वह झेंप-सा गया, नाखून से मेज़ पर रेखाएं खींचता हुआ वह हंसा, “मेरे लिए भी तो वह दीवार की दूसरी ओर थी।”

उस वर्ष परीक्षा के दिनों में वह मेरे पास आ गया था।

किराये के कमरे को सागर मानकर हम बातों की नावें तैराने लगे थे।

आंगन से आती हुई उस लड़की के गीत की गुनगुनाहट हमारे सीलन भरे कमरे की प्रथम सूर्यमुखी थी।

यदि आवाज़ के लिए केवल कान खुले रखने होते तो अलग बात थी, मगर आंखों में तो मरुस्थल थे और हमारी प्यास बीच वाले किवाड़ के छिद्र की मोहताज थी। लड़की की गुनगुनाहट बंद कमरे में आकर अंगड़ाई लेती तो हमारी किताबें खुली ही रह जातीं। दगड़-दगड़ करते हम दोनों कमरे के बंद दरवाज़े की ओर दौड़ते। पहले पहुंचने वाला छिद्र पर अधिकार जमा लेता और दूसरा बेचैनी में कहता, “यार ….. थोड़ा-सा मुझे भी तो देखने दे।”

यह दूसरा प्रायः वही होता था। अपने साथ प्रतिदिन हो रहे अन्याय का हल भी उसी ने ही ढूंढ़ा था। लड़की की आवाज़ की रिमझिम में वह अध-लिपटा हुआ बिस्तर दूसरी चारपाई पर फेंक कर चारपाई दीवार के सहारे खड़ी कर लेता। चारपाई की मूंज में अंगूठे फंसा कर पलक झपकते ही वह रौशनदान तक जा पहुंचता। परीक्षा समाप्त होने तक यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहा था, मगर उसने अपने कष्ट का ज़िक्र तक नहीं किया था।

दो पहाड़ों के बीच प्रायः एक नदी होती है, मगर वह नदी हमारे बीच नहीं थी। वह तो गुनगुनाती हुई पास से बह रही थी। हमने तो उसके पानी को केवल नज़रों से ही चूमा था।

“अब तो वीरान-सा कमरा शायद अपनी जवानी के लिए आहें भर रहा हो। क्या मालूम ….. क्या मालूम है हमें …… नहीं।” मांझी के आशिक़ ने खामोशी सा ठहाका लगाया, “जो लड़कियां पहुंच से दूर होती हैं, वे भला इतनी प्रिय क्यूं लगती हैं?”

मैंने उसकी हंसी में उदासी की पद्चाप सुनी। यह भी एक हादसा ही था कि उस लड़की को लेकर कोई हादसा नहीं हुआ था। उदासी के गुम्बद को ध्वस्त करने के लिए मैं हंसा, “तूने शादी कर ली है कि अभी भी दरवाज़े के छिद्रों में से पराई लड़कियां ही देखता रहता है।”

“अब तो अपना भरपूर परिवार है,” उसने पुलकित होकर बताया, ….. “तीन बच्चे हैं।”

“फिर कब मिलवा रहा है?”

“एक महीने तक क्वार्टर मिल जाएगा। चिन्ता न कर, परिवार आएगा तो सबसे पहले तुम्हें ही पता चलेगा। मगर तू मेरी ही सुनता जाएगा या अपनी भी कुछ बताएगा?”

“मैं तो यहीं हूं छावनी में, शादी अभी हुई नहीं, होने वाली है।”

“फ़ौजी तो तुम चौखटे से ही नज़र आ रहे हो, मगर यूनिट कौन सी है?”

“ए.एस.सी. बटालियन और तुम्हारी?”

“मैं वर्कशाप में हूं।”

“कमाल है!” मैंने कहा, मुझे यहां आए एक वर्ष होने को है। ….. मगर तुम्हारा पता ही न चला। तुम्हारी वर्कशाप से तो प्रायः मुझे कोई न कोई काम रहता ही है।

“मेरे होते हुए अब तुम किसी काम की चिंता न करना। तुम्हारे सब काम स्वतः ही हो जाया करेंगे। उसने गर्व से कहा, …… मगर तुम आना ज़रूर। किसी से भी हवलदार अमोलक सिंह कह कर पूछ लेना। सभी जानते हैं। यहां पर अपनी खूब चलती है।”

“तुम भी आना।”

“मैं तो आऊंगा ही। ….. कहां पर मिलेगा तू?”

“मेरा पता तो सीधा है। वर्कशाप वाली सड़क सीधी ऑफ़िसर मेस को आती है। फाटक वाले संतरी से कैप्टन मनमोहन कह कर पूछ लेना वह तुम्हें मेरे कमरे तक छोड़ आएगा।”

अकस्मात् ही उसका रंग पीला पड़ गया। चाय की अंतिम चुसकी कड़वे घूंट की तरह भरते हुए वह कुर्सी में ही सिकुड़ गया।

“कल को आ जाना। कल मैं ख़ाली हूं।”

“नहीं सर! कल तो नहीं आ पाऊंगा। …… फिर किसी दिन ……,” अपने खोल में ही दुबक कर बैठा वह धीरे से बोला।

मेरी सांस घुटी रह गई। मेरे सामने दोस्ती का कमल जैसे पंखुड़ी-पंखुड़ी हो कर झड़ गया हो। एक अजनबी लड़की के लिए मिलकर भरे हुए ठंडे श्वास ओले बन कर सिर पर गिरे। पत्थर की लकीरों जैसा अतीत स्लेट पर लिखी पानी की इमारत सा हो गया।

वह जिसने मिलते ही मेरे कंधों पर धौल जमा दी थी, वह जिसने मुझे बांहों में भर लिया था, उसने अब मुझे कभी यार नहीं कहना था।

ग़रीबी शायद उसकी नसों का खून हो गई थी।

दुकान के काउंटर तक पहुंचते-पहुंचते वह कॉलेज के दिनों जैसा ही ग़रीब हो गया। हम एक ही सीढ़ी के दो डंडे थे। उसका नीचे वाला डंडा होने का यही अन्तर था कि उसे मध्य की दूरी आसमान की ओर दिखाई देती थी। इसी दूरी ने ही मुझे यार से अछूत बना दिया था।

दुकान से बाहर पहुंचने तक बातें हवा हो चुकी थीं। मैंने टूट चुके तंत्र को पकड़ने का प्रयास किया, “किसी भी तरह की कोई मुश्किल हो तो मुझे बताना। तुम्हारे साहब लोग मेरे यार दोस्त ही हैं।”

कॉलेज में चाय के निमन्त्रण पर उसने एक बार मुझ से बांह छुड़वा ली थी- मगर आज जैसे उसने अपनी बांह मेरे पास ही रहने दी, “सर मेरी रिपोर्ट जाने वाली है। अगर आप मेरे ओ.सी. से बोल दें तो रिपोर्ट अच्छी चली जाएगी। इस तरह प्रमोशन की बात जल्दी बन सकती है।”

मैं उसे बताना चाहता था कि यार तो यार ही होता है, सर नहीं होता, मगर वह तो पहले ही बौना था और मुझे उसके धरती पर बिछ जाने का भय हो गया था। मैंने महज़ इतना ही कहा, “तू चिंता न कर! – – – तेरा काम कल ही हो जाएगा।”

माल रोड के चौक तक हम दोनों के बीच निस्तब्धता छाई रही। सड़क पार करते ही उसने पीछे मुड़ने की बात की, “ – – – मैंने बाज़ार से कुछ समान ख़रीदना था।”

हमारा रास्ता एक होकर भी एक नहीं था। एक साथ चलने का केवल दिखावा ही हो सकता था। मेरे चारों ओर सलाख़ों का कटघरा था और उसके गिर्द बर्फ़ की सिल्लें। मैंने सलाख़ों में से अपना हाथ उसकी ओर बढ़ाया, “अच्छा फिर – – – कभी आना ज़रूर।”

उसने मुझे बांहों में भरना था, मगर उसने सावधान होने के फ़ौजी अन्दाज़ में बांहें पैंट की बाहरी सीवन की ओर खींच लीं और फिर झेंपते हुए हाथ आगे कर दिया, “अच्छा सर, – – – गुड नाइट!”

वह मुझसे कुछ इस तरह जुदा हुआ, जैसे किसी इल्ज़ाम की ज़िल्लत उसके साथ चल रही हो, उसने एक बार पीछे मुड़ कर देखा फिर गुम हो जाने के प्रयास में अपने क़दम भीड़ के रेले की ओर बढ़ा दिए।

सड़क पर खड़ा मैं मंदिर का कलश हो गया था। इस वक़्त मैं जानता था, उसने अब मुझे दूरी से ही देखना था या फिर कभी-कभी दुआ के लिए हाथ फैलाने थे।

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