-डॉ. सुरेन्द्र कुमार ‘अंशुल’

“कल एक पत्रिका में आपकी कहानी पढ़ी।” उसने कहा।

“कैसी लगी?” लेखक ने उत्सुकता से पूछा।

“बहुत सशक्त कहानी लिखी है। नारी के शोषण के प्रति तुम्हारी जागरूकता कहानी के माध्यम से देखने को मिली। सचमुच तुम बधाई के पात्र हो। नारी सुबह से ले कर शाम तक कोल्हू के बैल की तरह काम करती है। चेहरे पर न शिकन न शिकवा हर वक़्त मुस्कान चेहरे पर लिये। घर का काम और ऑफ़िस के काम के बावजूद, बच्चों की परवरिश, बूढ़े सास-ससुर की सेवा और पति की देखभाल उसकी ख्वाहिश…! सचमुच तुमने कहानी में वर्तमान का अक्स दिखा दिया।” उसने प्रशंसा के पुल बांधते हुए कहा। अपनी कहानी की प्रशंसा सुन कर वह खुशी से फूला न समा रहा था। तभी मित्र ने पूछा।

“तुम्हें इतना सशक्त पात्र कहां से मिला?”

“मेरे ही घर में!”… लेखक, ने संक्षिप्त जवाब दिया।

“मैं समझा नहीं? तुम्हारे घर में…? लेकिन कौन?” मित्र ने फिर पूछा।

“मेरी पत्नी!” लेखक धीरे से बड़बड़ाया।

“कहानी में फै़सला तुमने पाठकों पर छोड़ दिया।

लेकिन तुम्हारे विचार में तुमने उसके शोषण के प्रति क्या निर्णय लिया? क्या उसकी कोई मदद…।”

“नहीं… मैं फै़सला नहीं कर पाया। रही मदद की बात? मेरे वश की बात नहीं… रसोई में क्या मदद दूं? बस सोचता हूं कि नारी की नियति है यह। इसी लिए भगवान् ने उसे इतना ज़्यादा सहनशील व सामर्थ्य से भरा बनाया है।” लेखक कहते हुए हंस पड़ा और वह कहानी के पात्र और ज़िंदगी के पात्रों के बारे सिर्फ़ सोचता ही रह गया।

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