-दीप ज़ीरवी

जागती आंखों में सदैव स्वप्न पला करते हैं, सुनहरे, रूपहले स्वप्न धड़कते दिलों में पनपा करते हैं भावी राष्ट्र के निर्माण का संकल्प इन संकल्पों की पूर्ति हेतु वांछित होता है सुबुद्धिवान बालपन, कर्मनिष्ठ युवावर्ग एवं मार्गदर्शक वार्द्धक्य।

बालपन किसी भी समाज की नींव रहा है आज के दौर का अवलोकन करें तो बुद्धि विस्मित रह जाती है कि यह सब क्या हो रहा है।

तीन से चौदह बरस की अवधि व्यक्तित्व विकास में अति महत्वपूर्ण अवधि हुआ करती है इस अवधि के संचित कर्म ही संस्कार बन कर सूक्ष्म बुद्धि में प्रवेश कर जाते हैं।

कच्ची मिट्टी-सा होता है बालपन एवं बाल मन। कच्ची मिट्टी से क्या बनाना है यह निर्णय कुंभकार के विवेक पर रहता है। कुंभकार चाहे तो उस मिट्टी से आग उगलने वाली धूम्रपानी चिलम बना डाले अथवा चिलम की जगह सब को शीतल जल पिलाने वाली सुराही।

कच्चे बालमनों के कुंभकार बचपनों को योग्य, समर्थ युवावर्ग में ढाल सकते हैं आज वस्तु स्थिति यह है कि साज़ तो है किन्तु साज़ से, वाद्य से सुरीला संगीत पैदा करने वाले सधे हाथों की कमी खलने लगी है जगती आंखों में!! जगती आंखों से विवेचना वांछित है कि आज का बचपन किधर जा रहा है?

आज भौतिकता के प्रभाव ने आत्मीयता डस डाली है। परिवार छिन्न-भिन्न हो रहे हैं संयुक्त परिवारों की परिपाटी को छोड़, एकल परिवारों का चलन हो चला है। एकल परिवार जहां बच्चे की मां है, पापा है एक-आध बहन अथवा भाई और अनन्त शून्य … या फिर बुद्धू बक्सा (टी.वी.)। इन सभी से वातावरण निर्मित होता है जिसमें बालपन को पलना होता है, न ताऊ-चाचा का स्नेह, न दादा-दादी का मनुहार, लाड़-प्यार। मम्मी-पापा बच्चों के लिए भौतिक सुविधाएं जुटाने की होड़ में अपने नैसर्गिक कर्त्तव्य से कदाचित् विमुख होते जा रहे हैं।

भोगवादी संस्कृति ने बच्चों को उनके माता-पिता से दूर कर दिया है बच्चे को महंगे स्कूल में भर्ती करवा कर माता-पिता अपने कर्त्तव्य की इति समझ बैठते हैं। आज बच्चों की मनःस्थिति समझने को कोई मां-बाप तैयार नहीं हैं। सभी बच्चे को समझाने पर ज़ोर देते दिखते हैं। परिणाम कई प्रकार की कुंठाओं और तनाव से ग्रस्त बालपन एवं बाल मन और आगे चल कर अभाव ग्रस्त कुंठित आपराधिक मानस लिए दुविधा ग्रस्त युवा-वर्ग समाज में व्याप्त होता जा रहा है।

आज का बचपन अपनी जड़ से कटता जा रहा है। आज का बचपन पांव में विदेशी जूते देखना चाहता है विदेशी धुनों पर थिरकता है विदेशी सपनों को देसी आंखों से देखता है। उसे यह सपने दिखाते हैं सौदागर जो सपने बेचते हैं चकाचौंध कर देने वाले विज्ञापन को माध्यम बना कर। अभी समय है जगने का अभी कुछ बिगड़ा नहीं है अभी सब संवर सकता है। भौतिक सुखों को इकट्ठे करते-करते कहीं हमारी आत्मीयता ही लुप्त न हो जाए बचपन को कोमल ही रहने दें। उन्हें टी. वी. की नहीं मां-बाप और उनकी ममता चाहिए। पैसा सब कुछ नहीं है सन्तान ही सच्ची सम्पत्ति है इन को पूरा-पूरा समय और ध्यान चाहिए। आपका, हमारा, देश का इसी में भला है।

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