धीरे-धीरे यूं लगने लगा था कि रुकमणी किसी असाध्य बीमारी से पीड़ित है। गांव और इलाके को छोड़ दूर राजधानी के बड़े डॉक्टरों को भी दिखा चुकी थी। एक्स-रे, खून टेस्ट व दूसरे टेस्ट जिनके बिना सरकारी अस्पतालों में इलाज ही नहीं होता। सब करवा चुकी थी। गर्ज़ यह कि जो कुछ ठीक होने के लिए किया जा सकता था रुकमणी करवा चुकी थी। लेकिन बीमारी थी कि जाने का नाम नहीं ले रही थी। हां, दवाइयों से थोड़ा बहुत फ़र्क़ हो जाता था। अच्छा ख़ासा पैसा ख़र्च हो चुका था। अब तो कुछ बेचने की नौबत आने वाली थी। एक तो कंगाली ऊपर से आटा गीला वाली बात थी। अकेले में उसकी आंखों से टप-टप आंसू गिरने लगते। कभी शीशे में चेहरा देखती या लोग बाग उसकी कमज़ोर सेहत के बारे में कुछ कहते तो उसकी आह-सी निकल जाती। गाहे-बगाहे अतीत की दुनियां में पहुंच जाती। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ जब वह दवाई लेने पास के आयुर्वैदिक अस्पताल तक गयी थी। दवाई के साथ-साथ यादों की गठरी भी लेती आई।

तब वह मुश्किल से बारह-तेरह वर्ष की होगी। मां की अचानक मौत से उसकी दुनियां ही बदल गयी थी। घास लाने के लिए गई अम्मा फिर कभी घर वापिस नहीं आई। ढाक से पैर फिसला और सीधे गहरी खड्ड में सारा शरीर छलनी हो गया था। वह बहुत रोयी थी पर मां वापिस नहीं आई। उसके बचपन की दुनियां वीरान हो गयी थी। वह अकेली लड़की थी। तीन भाई थे। छः सात महीने बाद नानी उसे अपने साथ ले गयी थी। नानी का गांव उसके गांव से काफ़ी दूर था। ऊंचे पहाड़ों की ओट में। दूर तक फैली एक संकरी सी घाटी। बीच में बहती हुई एक छोटी-सी नदी। बारह महीनों सदा सलिला। सामने दूर-दूर तक जंगलों से ढके ऊंचे पहाड़। दूर तक छोटे-छोटे खेतों का सिलसिला। जो हर मौसम में अपनी नई छटा बिखेरते थे। फ़सलों से लदे खेत। जहां औरतें काम में जुटी रहती थीं।

नानी के गांव में बर्फ़ पड़ती थी। चेतर में जब बर्फ़ पिघलने लगती तो सारी घाटी मखमली हरियाली और रंगे-बिरंगे जंगली फूलों से लद जाती थी। जिनमें सबसे अधिक मोहक होते थे, भीनी-भीनी महक वाले बनक्कशे के फूल। ये फूल बड़े गुणकारी होते हैं। और खूब महंगे बिकते हैं। नानी बताती रहती थी। इसलिए सब बच्चे बड़े चाव और यत्न से इन फूलों को चुनते थे। इसके पीछे पैसे कमाने का लालच होता था तो कुछ बचपन की अल्हड़ता।

कोई महीना डेढ़ यह सिलसिला चलता रहता। सुबह-सवेरे गांव के हम उम्र बच्चे अपने-अपने दल बनाकर फूल चुनने के लिए चल पड़ते। जंगल में मंगल हो जाता। उससे अगले साल की बात थी। मैं भी फूल चुनने गयी थी। दूसरे साथियों के साथ। फूल चुनने की धुन में दूर निकल गयी थी। आती बार थोड़ा पीछे रह गयी। पांव फिसला और मैं गिर गयी। चोट लगी थी। मैं चिल्लाती रही पर शायद किसी ने नहीं सुना। थोड़ी देर बाद किसी ने पुकारा था, “ठहरो, मैं आया।” सारे फूल बिखर गए थे। उसने हाथ से पकड़ कर उठाया। फूल समेट कर मेरे आंचल में बांध दिए। फिर हाथ से पकड़ कर घर तक छोड़ आया। साथ के गांव वाला लड़का था। नाम था मोहन। मेरी ही उम्र का होगा। परन्तु देखते-सुनने में लम्बा-तगड़ा और सुन्दर था। बड़ी-बड़ी आंखें। गोरा रंग। उस रोज़ तो उसने यही पूछा था कि तुम्हारी मां नहीं है क्या! फिर मेरा हाथ पकड़ लिया था जिससे बहुत खून बह रहा था। दो-तीन दिन मैं घर पर रही। नानी ने दवा-दारू के साथ उपदेशों का टॉनिक भी पिलाया था। जबकि मामियां ताने मारने का काम करती थी। जब फिर से फूल चुनने गयी तो लगा जैसे कोई पुकार रहा है। सच में मोहन बुला रहा था। हाथ पकड़कर बोला, “अब तो ठीक है। दर्द तो नहीं होता? देखभाल कर चलना चाहिए पहाड़ी रास्तों पर।” मैं बस गर्दन हिलाती रही। अब हम इकट्ठे ही फूल चुनते। मुक़ाबला-सा होता। कौन ज़्यादा चुनेगा।

उस दिन बड़ा ही सुहावना दिन था। बसंत का मौसम। मोहन ने आते ही पूछा था, “और क्या-क्या काम करती हो?” “फूल चुनती हूं। जंगल में पशु चराती हूं। घास काटती हूं। पनघट से पानी लाती हूं।” मैं एक सांस में कह गई। उसने फिर बड़े शांत भाव से पूछा था, “और क्या करती हो?” “और गीत भी गा लेती हूं। नाचती भी हूं।” मैंने सहज भाव से कहा था। गीत…. ! वह कुछ चौंका था।

कौन से गीत भला। वो फ़िल्म वाले या पहाड़ी। मैं उसका जवाब सुनकर ज़ोर से हंसी थी, “फ़िल्म वाले नहीं ओए, अपने पहाड़ के गीत। चंचलो कुंजू वाला। वो गंगी। वो मेले जाने वाला और वो….।”

वह अधीर हो उठा था, “अभी सुनाओ न गीत।”

“नहीं, फिर सुनाऊंगी।” कहकर मैं वहां से चल दी थी। पहले अकेले में गाने के लिए रास्ते भर गुनगुनाती रही। कौन-सा गीत अच्छा रहेगा। पर कोई गीत जंच नहीं रहा था। आख़िर एक गीत चुन लिया था। एक दिन घर में अकेले गुनगुना रही थी। नानी ने सुन लिया। कहने लगी, “ओ छोरी तेरा गला तो बड़ा मीठा है। बड़ा बांका गाती हो, तेरी अम्मा भी बड़ी रागण (गाने वाली) थी। इसी गीत को बचपन में गाती थी। बिल्कुल तेरी तरह थी। कहते-कहते नानी की आंखें टपकने लगी। उन्होंने मुझे गोद में भर लिया था। अम्मा को याद करके मैं बहुत रोयी थी। फिर तो यह गीत मेरी पहली पसंद बन गया। मेरी अम्मा की निशानी।”

एक दिन मोहन को सुना ही दिया। चरखे री पूणी अम्मा चरखे विच रही यां दूध रहेया अधछोलेया, हाए माए चली ओ जाणा। (हे मां अब तो मेरे ससुराल जाने का वक़्त आ गया है। तुम्हारे चरखे की पूनी और दूध मटकने का काम तुम्हारे पास रहेगा।) हंसते हुए उसने कहा था, “वाह! रुक्को बहुत अच्छा गाती हो। कौन-सा गीत हुआ ये।”

मैं कहती, “तुम्हें पता ही नहीं चलता। बस पक्के बुद्धू हो। अरे वही, जब लड़की ससुराल जाने की तैयारी करती है।” उसने एकदम छेड़ दिया था, “तुम भी जाओगी न?”

“धत तेरे की! शर्म नहीं आती कहते हुए। मैं बोलूंगी नानी से।”

“जा, अभी जा और बोल दे। मैं नहीं डरता।”

सचमुच नहीं डरता था वह। बड़ा निधड़क लड़का था। हरदम कहता था फ़ौजी बनूंगा और तुम्हें भी साथ ले जाया करूंगा। दिल्ली बॉम्बे और कलकत्ता दिखाऊंगा। मेरा चाचा भी फ़ौजी है। चाची उसके साथ दिल्ली रहती है।

“पर मुझे क्यों ले जाएगा?” मैं पलट कर पूछती। “तुझे इतना भी नहीं पता? मैं तेरे साथ ब्याह करूंगा।” बड़े सहज भाव से कहता। जैसे कोई डर ही न हो। मैं डंडा लेकर उसे मारने दौड़ती।

रुकमणी ने कराहते हुए करवट बदली। दोनों हाथों में घुटनों को दबाया। एक लम्बी सांस लेने के बाद फिर यादों में खो गयी।

अब मैं पन्द्रह वर्ष की हो गयी थी। सब कुछ बदला-बदला-सा लगने लगा था। कहीं दूर नीले आकाश में उड़ने को मन करता था। पर नानी थी कि पूछो मत बस पीछे पड़ी रहती। स्कूल से निकाल दी थी। इसलिए अब सिलाई-कढ़ाई सीखती और दिन में भी सपने बुनती।

अब नानी को मेरे विवाह की चिन्ता सताने लगी थी। हर जान-पहचान वाले से रिश्ते की बात करती रहती। और एक दिन रिश्ता भी हो गया। मोहन के साथ नहीं किसी और के साथ। पर मैं मोहन की कल्पनाओं में खोई रहती। मैं कहना चाहती थी कि मेरा विवाह मोहन के साथ होना चाहिए। लेकिन इतनी हिम्मत ही नहीं हुई। फिर मोहन अभी नादान सा लड़का था। ऊपर से जात-पात, यह-वो सौ बातें। इसलिए बस चुप ही रही थी। हिम्मत ही नहीं थी। विवाह को लेकर जैसी कल्पनाएं हर लड़की की होती हैं, मेरी भी थी। सतरंगी मीठी और धरती से दूर। आख़िर विवाह भी हो गया। नानी ही सब कुछ थी मेरी।

लाल सुर्ख़ जोड़ा, कलाइयां चूड़ियों से भरी हुई, सहमी हिरनी-सी मैं ससुराल पहुंची थी। मायके से काफ़ी दूर के गांव में रिश्ता हुआ था। अलग ही ढंग की पहाड़ी बोलते। यूं कहिए कुछ बेढंगा-सा इलाका और वैसे ही बेढंगे से लोग। मेरा पति सुन्दर और सेहतमंद था। उनकी छोटी-सी सरकारी नौकरी थी। गर्मियों में पानी की भारी क़िल्लत होती थी। बड़ी दूर से पानी लाना होता था। खेत और घासनियां भी घरों से दूर थे। मायके की बड़ी याद आती। जहां सब कुछ ऐसा नहीं था। धीरे-धीरे ससुराल के रंग में रंग गई। जो था उसे मैं बदल नहीं सकती थी। पहले मायके दौड़ी रहती फिर धीरे-धीरे सब छूट सा गया। बच्चे हो गए। घर गृहस्थी में ऐसी डूबी कि अगला-पिछला याद ही नहीं रहता। हां कभी-कभार किसी मेले, ब्याह में जाना होता तो कुछ कसक सी हो उठती। सजना-धजना अच्छा लगता। दस-पंद्रह वर्ष बीत गए। नानी स्वर्ग सिधार गयीं। ननिहाल जाने का मतलब ही नहीं था अब। सब कुछ सामान्य ढंग से चल रहा था। फिर कुछ ऐसा घटा कि सारे सपने बिखर से गए। भरी दुनियां में वह अकेली रह गई। हादसे में पति का चले जाना उसे अंदर से तोड़ गया। मुसीबतों का पहाड़ घास, लकड़ी उठाने वाले कंधों पर आ पड़ा। ज़िंदगी कैसे-कैसे इम्तिहान लेती है। पर वक़्त सारे ज़ख़्म भर देता है। धीरे-धीरे वह सहज होती गयी। कभी याद आती तो जी भर कर रो लेती। रोने से जी हल्का हो जाता है। आज कितने सालों बाद बीती ज़िंदगी को यूं याद कर उसे अजीब-सा सुकून मिला। उसे लगा कि वह फिर से युवा हो गई है। फिर से बनक्कशे के फूल चुनने के लिए दिल मचल रहा है मानों कोई आवाज़ देकर बुला रहा है। किसी ने उसका ज़ख़्मी हाथ अपने हाथों में लिया है।

सामने वाले जंगल से किसी बड़े पेड़ के गिरने की आवाज़ आई। रुकमणी फिर से वर्तमान की कठोर धरती पर खड़ी थी। उसके शरीर के जोड़ो में बहुत ज़ोर का दर्द हो रहा था। उसके हाथ प्रार्थना में जुड़ गए, “हे! भगवान, कुछ तो दया करो। मैं कब ठीक हूंगी।” शीशे में चेहरा देखा तो अपनी ही शक्ल बेगानी लगी। झुर्रियां और गड्ढे, आंखों में चमक न के बराबर।

बीमारी से ग़रीबी भली। उसने खुद से ही कहा। डॉक्टर ने उसे देसी दवाइयां लिखी हैं। एक नुसख़ा है बनक्कशे के सूखे पुराने फूलों का काढ़ा पीओ। बस इन फूलों के नाम से ही इतना कुछ याद हो आया। पर यहां तो ये फूल होते नहीं, शायद घर में रखे हों। बहुत ढूंढ़े पर नहीं मिले। मंगवाने पड़ेंगे। ननिहाल के गांव या मायके में ही मिलेंगे।

आज रुक्को चालीस के पास पहुंच गयी है। पच्चीस साल का अरसा लम्बा ज़माना होता है। कई कुछ बदल जाता है। उसकी ज़िंदगी में भी कई कुछ बदल गया। बीच-बीच में उसने जानने की कोशिश की थी कि मोहन कहां है? क्या करता है? पर कुछ पता नहीं चला था। सिवाए इसके कि उसके परिवार ने वह गांव छोड़ कर कहीं और शहर की ओर ठिकाना बना लिया था। गांव कभी-कभार ही आते हैं। किसी अच्छे-बुरे समय पर। फिर रुक्को अपनी ज़िंदगी के चक्रव्यूह में उलझी रही। उसने सब कुछ सहन कर लिया था। पर इस बीमारी के कारण वह ज़िंदगी से हारती जा रही थी। यदि मर गयी तो बच्चे अनाथ हो जाएंगे। ऊपर से पैसों की तंगी और। उसने हिसाब लगाया एक आधा गहना गिरवी रख देगी या बेच देगी। जान है तो जहान है।

महीने भर के बाद रुकमणी को सचमुच कुछ फ़र्क़ होता नज़र आया। उसे एक उम्मीद हो गई वह फिर से तंदरुस्त हो जाएगी। पर पैसों की चिंता से मन बैठ जाता। डॉक्टर ने कहा है कि इलाज लम्बा चलेगा। तभी पूरा आराम होगा। हफ़्ते-दस दिन बाद जाती दवाई वगै़रह लेने के लिए साथ में हाल-चाल भी बता देती। क्योंकि अस्पताल में मरीज़ों का आना-जाना लगा रहता था। इसलिए ज़्यादा देर टिकना मुनासिब नहीं होता।

रुकमणी फिर यादों की दुनियां में खो गयी। उसने खुद को झिंझोड़ा भी यह आज क्या हो गया है। किस नशे में वह डूबती जा रही है कि सारे दर्द कम होते जा रहे हैं। जब उसकी सगाई हो गयी थी तो कुछ दिनों बाद मोहन मिला था। अकेले रास्ते में। “रुक्को बहुत खुश हो न? मुबारक हो।” वह सख़्त लहज़े में बोली थी, “अब मेरे साथ ऐसी बातें न किया करो। अब शादी होने वाली है। बेइज़्ज़ती हो जाएगी।”

“नहीं, रुक्को, बस एक बात पूछना चाहता हूं। क्या तुम्हें सब अच्छा लग रहा है। मेरा ख़्याल, मेरी याद। मैं तो बस तुमसे ही शादी करना चाहता था। तुम मुझे बहुत सुन्दर लगती हो। मेरे घरवालों ने भी मान जाना था तुमने एक बार भी न नहीं कही।”

“मैं लड़की होकर कैसे कहती कि मेरी मर्ज़ी….।”

“क्या लड़की की मर्ज़ी नहीं होती।”

“होती है पर उसे कौन देखता है। यहां तो….।”

“तुम भी चाहती थी कि मैं ही तुम्हारे….।”

रुक्को ने साफ़ शब्दों में कहा था, “नहीं, मैं कुछ नहीं चाहती थी।”

उसने अपने मन से उलट बात कही थी। क्यों कह गयी नहीं जान पाई।

“रुक्को, भूल जाना सब कुछ।” कहता हुआ वह चला गया था। पीछे मुड़कर नहीं देखा था। उस दिन वह नए रूप में था। रुकमणी देर तक रोती रही थी। पर वह कह भी क्या सकती थी। उस उम्र में इतनी ही समझ थी। धीरे-धीरे सब कुछ भूलती गयी। समय नये सपने, नये इरादे सामने लाता रहता है। दूसरा उसकी ससुराल काफ़ी दूर थी। इधर आना जाना ही नहीं होता।

विवाह के आरम्भिक वर्षों में जब वह मां नहीं बनी थी और पति एक छोटे से शहर में कार्यरत थे। वह साथ गयी थी। दूर पहाड़ों से निकल कर शहरी आबो हवा में। उसकी पहाड़ी खूबसूरती सभी में चर्चा का विषय बन गयी थी। पर वह बेख़बर-सी थी। उसे शहर अच्छा नहीं लगा। बहुत भोली या न-समझ सी थी। जब बाहर निकलती लोग बुरी तरह से घूरते। वह डर जाती। वहां भी कोई उसके निकट आने के लिए बेताब था। कई प्रकार से निकटता बढ़ाने का प्रयास, शहरी बाबू था। उसके प्रस्ताव पर वह सिहर उठी थी। तब उसने मन ही मन कहा था वो बचपन का प्यार। बस वही…. ये कितना बड़ा धोखा है। पति से लिपट कर कहा था, “पहाड़ में छोड़ आओ। देख लिया शहर।” अब नहीं रहना। वह आ गयी थी गांव। हद तो तब हुई जब उसकी चिट्ठी गांव पहुंच गयी। फिर सब शांत हो गया था। फिर कभी साथ जाना नहीं हुआ। न ज़िंदगी ने ऐसे किसी चौराहे पर खड़ा किया। इधर-उधर आना-जाना होता तो कहीं किसी कोने में कभी-कभार कुछ कसक-सी हो उठती थी। पति के भरपूर प्यार और सुखी गृहस्थ जीवन ने उसे कुछ याद ही नहीं आने दिया था।

डॉक्टर ने दवाइयों के साथ कुछ योगाभ्यास के आसन भी बताए थे। रुकमणी अब स्वास्थ्य सुधार की ओर बढ़ रही थी। उसके मन का बोझ हल्का होता जा रहा था।

एक दिन उसकी पड़ोसन ने बताया कि यह नया डॉक्टर उसके मायके की ओर से है। ऐसा उसके पति बता रहे थे। सुनते ही रुकमणी चौंक पड़ी, “मायके की तरफ़ का….?” हां, हां, सोनू के डैडी बता रहे थे। इनका नाम मोहन सिंह ठाकुर है। गांव पता नहीं जोलधार या ऐसा कुछ बता रहे थे।

मोहन सिंह…! रुकमणी हैरान होती जा रही थी। मायके और ननिहाल के गांवों में थोड़ा ही फ़ासला था। कई सालों से नानके की ओर गयी ही नहीं। पर मोहन नाम से वह थोड़ा सकपका गयी। हो न हो यह डॉक्टर वही मोहन है। उसका बचपन का नाम एक परिचित या….।

रुकमणी बोली, “नहीं, शायद ऐसा नहीं है, यदि उस तरफ़ के होते तो मुझे पहचान लेते। या मैं उन्हें पहचान जाती।” पड़ोसन ने जवाब दिया, “उसी तरफ़ के हैं। और तुम्हें पहचानते भी हैं। उनके साथ ऐसा कह रहे थे कि शायद रुकमणी ने हमें पहचाना नहीं। पूरा हाल-चाल पूछ रहे थे।” सुनते ही रुकमणी के चेहरे पर एक अजीब-सी चमक उभर आई। सारा दर्द मानों काफ़ूर हो गया। वह बुदबुदाई मोहन और हमें बताया तक नहीं। फिर उसे खुद पर ही आया। क्यों न पहचान पाई। मैं तो ज़रूर बुलाती। वह कुछ उदास-सी हो गयी। सोचा होगा मैं बड़ा डॉक्टर और यह मामूली-सी बीमार औरत। आजकल आदमी की पहचान रुतबे से ही होती है। क्या जान-पहचान निकालनी उसकी आंखें छलछला गई। मैं व्यर्थ ही यादों में खो गई थी। आख़िर पच्चीस सालों में कोई एक-सा कैसे रह सकता है?

पर अस्पताल गयी तो ज़रूर बुलाऊंगी और घर पर भी लाऊंगी। ऐसा भी क्या। आदमी तो आदमी ही होता है। दूसरे दिन रुकमणी जांच के बहाने से भी और मिलने के इरादे से अस्पताल पहुंची। उसकी निगाहें डॉक्टर मोहन को ही ढूंढ़ रही थीं। वे कहीं नज़र न आए। स्टाफ़ से पूछा तो पता चला कि वो कल ही गए हैं। आगे की पढ़ाई के लिए। साल भर बाद ही लौटेंगे शायद।

रुकमणी ने सुना तो झटका-सा लगा। पुरानी बीमारी फिर से लौट आई है। वह सिर थामे वहीं बैठकर अपनी बारी का इंतज़ार करने लगी आंखें पोंछते हुए।  

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