-मंजुला दिनेश

समाज में हिंसा बढ़ती जा रही है। बेरोज़गारी, दरिद्रता, असमानता, साम्प्रदायिकता, विद्वेष और जातिवाद ने इस हिंसा के बढ़ावे को मदद दी है। मूल्यों के विघटन और पैसे की हवस ने आदमी को राक्षस बना दिया है। भारतीय समाज में स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार इसी का हिस्सा हैं।

भारतीय इतिहास में महिलाओं की स्थिति पर दृष्टिपात करें तो महिलाओं की स्थिति का ग्राफ निरन्तर गिरावट प्रदर्शित कर रहा है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि स्त्रियों की स्थिति बद से बदतर होती चली गई। यदा-कदा हमें यह अवश्य लिखा मिलता है कि “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता” किन्तु यह स्थिति का सैद्धांतिक पक्ष ही है व्यावहारिक पक्ष नहीं। प्रचीन काल में स्त्री के विषय में कहा जाता था कि बाल्य-काल में वह पिता के अधीन, युवावस्था में पति के अधीन तथा पति की मृत्यु के पश्चात् पुत्र के अधीन रहती है।

हर युग में महसूस किया जाता रहा कि समाज के सर्वांगीण विकास के लिये नारी को समाज में समान अवसर, संरक्षण प्राप्त हो। किसी समाज की उन्नति का मापदंड उस समाज में नारियों का स्थान है।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद मध्ययुगीन शोषित नारी की दशा सुधारने के लिये अनेक प्रयास किये गये। इस दिशा में भारतीय संविधान का सबसे बड़ा योगदान देश की नारियों को समान अधिकार प्रदान करना है। भारत जैसे समाजवादी देश में नारी की सक्रिय भागीदारी अति-आवश्यक है।

वास्तव में आज हम संक्रान्ति काल से गुज़र रहे हैं। सदियों से शोषित नारी ने सशक्त अंगड़ाई ली है। जिसमें उसकी पराधीनता की कड़ियों के बंधनों के जोड़ चटक-चटक कर टूट रहे हैं। किन्तु अभी तक भी इस दिशा में प्रगति अत्यधिक धीमी है, मंद है। भारतीय नारी आज भी अनेक संकटों से ग्रस्त है।

उसमें अशिक्षा और अंधविश्वास आज भी महामारी के रूप में प्रभावी है। दहेज़ के कारण नारी हत्या की अनेक घटनाएं प्रकाश में आ रही हैं। उसे अपनी जीविका के लिये पुरुष पर आश्रित रहना पड़ता है। इस कारण उसके साथ गुलाम जैसा व्यवहार किया जाता है।

सत्ता परिवर्तन एवं मशीनीकरण ने समाज में, सामाजिक रीति रिवाज़ों में, सामाजिक मान्यताओं में बदलाव ला दिया है। समय के साथ-साथ तो समाज बदलता गया लेकिन स्त्री वहीं की वहीं खड़ी रही। उसके प्रति समाज का नज़रिया ज्यों का त्यों रहा। आज भी स्त्री-पुरुषों के प्रति अपनी मानसिक गुलामी से उबरी नहीं। शिक्षा उसे इसलिये दी जाती है, क्योंकि उसकी शादी करनी है। नौकरी वह इसलिये करती है, क्योंकि उसे मां-बाप या पति के घर का ख़र्च चलाना है।

आज शायद ही कोई युवती कह सके कि दिन रात की मेहनत के उसके कमाए हुए पैसों पर उसका अपना हक़ है। यह एक वास्तविकता है कि अपने कमाए हुये पैसों पर उसका अपना हक़ नहीं। बाल-विवाह आज भी हो रहें हैं, विधवाएं आज भी उपेक्षित हैं, नारी की प्रगति का भ्रम हमें हमेशा ज़रूर होता रहा है, जबकि वास्तविकता यह है कि नारी की चेतना अभी भी पूर्ण विकसित नहीं हुई। आज भी वह पुरुष मानसिकता के जाल में फंसी है।

इधर कुछ महिला पत्रिकाओं से भी मुझे शिकायत रही है जो स्त्री को संपूर्ण बनाने के लिये, उसमें आत्मबल पैदा करने के लिये कुछ इस तरह की सामग्रियां प्रकाशित करती हैं- जैसे ग्लैमरस बनने के 10 टिप्स, पति को खुश करने के 20 टिप्स या अपने पति को इस तरह से रिझाएं या इसी प्रकार की अन्य सामग्रियां। क्या यह सामग्रियां पुरुष की सोच का परिणाम नहीं है? क्या इससे महिला स्वयं में एक जुझारू जज़्बा पैदा कर सकेगी? क्या इस तरह की सामग्रियों से उसमें सामाजिक अत्याचारों जैसे दहेज़, बलात्कार इत्यादि से छुटकारा पाने का आत्मबल आ पाएगा? या उनमें पूरे आत्मसम्मान के साथ समाज में जीने की प्ररेणा मिलेगी? ले-देकर एक स्त्री की सारी शिक्षा, सारी प्रतिभा और सारा श्रम, विवेक उसके पति, उसके ससुराल वालों की सेवा में ही समर्पित हो जाता है। क्या इसे ही कहेंगे महिला प्रगति?

सवाल सिर्फ यह है कि महिला रूढ़िवादी सोच से मुक्त हो कर अपने वजूद के पूरे सम्मान के साथ समाज में अपना स्थान बनाए। पर खेद है, इस दिशा में महिला पत्रकार अपना कोई ख़ास योगदान नहीं दे रहीं। वे घर परिवार को सुंदर बनाये रखने एवं परम्परा को जीवित रखने के लिए महिलाओं को वह सब बता रहीं हैं, जिससे पुरुषों को फ़ायदा हो। ये सामग्रियां उनमें तो जागृति पैदा नहीं कर रही परन्तु हां उन्हें एक रोमानी दुनियां की सैर अवश्य करवा रही हैं।

जहां कहीं विज्ञापनों की चर्चा होती है, पुरुषों की आंखों में महिलाओं की छवि घूम जाती है। महिलाओं का विज्ञापनों में उपयोग भी ऐसा किया जाता है कि जिसमें विज्ञापित वस्तु से ज़्यादा महिला के अंगों का प्रदर्शन होता है। अभी तक जितने फ़ैशन शो हो चुके हैं उनमें महिलाओं को प्रमुखता दी जाती है। इसी प्रकार जब हमारे देश की दो लड़कियां विश्व सुंदरी चुनी गईं तो हम भारतीय इस पर गर्व महसूस करने लगे हालांकि उस केे जलदी बाद ही जब यही विश्व सुंदरी प्रतियोगिता हमारे अपने भारत(बंगलौर) में आयोजित की गई तो यहीं की महिलाओं ने व पुरुषों ने इसका जमकर विरोध किया था। इस तरह विज्ञापन युग में महिलाओं की छवि का ग़लत इस्तेमाल किया जा रहा है।

भारतीय नारी ने अब करवट तो बदली है। वह अपनी सदियों की गुलामी मिटा देना चाहती हैं। यह कसक और बेचैनी एक शुभ लक्षण हैं। आधुनिक नारी भी निर्माण की प्रक्रिया के बीच खड़ी है। उसने अपने लक्ष्य निर्धारित किये हैं। उन लक्ष्यों को पाने के लिये उस मार्ग पर चलने का प्रयास भी कर रही है, यानि नारी अब संभलने लगी है। अपनी क्षमताओं के साथ अपनी सीमाओं को भी पहचानने लगी है।

आज नारी शिक्षा के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना चुकी है। विवाह के लिये भी शिक्षित व कामकाजी युवती को ही पसंद किया जाने लगा है, लेकिन स्त्रियों की उच्च शिक्षा व कार्यकारी स्थिति को आर्थिक-सामाजिक दबावों में ही स्वीकार किया गया है, मन की संस्कारिता अभी तक बदली नहीं है।

महिलाओं की शिक्षा पुरुषों के समान हो या अलग तरह की, नारी का स्थान मुख्यत: घर है या घर बाहर दोनों काम करना या कैरियर बनाना उसकी आर्थिक आवश्यकता ही है या कुछ और भी यह द्विपक्षीय विचार आज भी विवाद का विषय बने हुये हैं। आज महिला अपनी अलग पहचान बनाने के लिये कुछ भी करना चाहती है। वह नौकरी करे या व्यवसाय, कुकिंग या पेंटिंग की कक्षाएं चलाये या सामाजिक राजनैतिक कार्य हो वह इन सब में आगे आना चाहती है। अपने वजूद को निखार कर पुरुष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने का आत्मविश्वास उसने पैदा कर लिया है। घर की दहलीज़ लांघ कर उसने समाज में अपनी एक ज़रूरत पैदा कर ली है। वह दिन हवा हुए जब नारी चूल्हे-चौके तक ही सीमित थी आज उसे ‘ऑल इन वन’ की भूमिका निभानी पड़ती है। कुशल कुक, बच्चों की शिक्षिका, पति की सचिव, घर की वित्त मंत्री, गृहमंत्री इस तरह के सभी रोल उसे निभाने पड़ते हैं।

इतना होने पर भी उसके सामने समस्याएं कम नहीं, शिक्षण-प्रशिक्षण की बढ़ती सुविधाओं ने नारी में नौकरी की चेतना जागृत की है लेकिन अवसरों की कमी के कारण प्रतिस्पर्धा में बूढ़ी हो रही हैं। कार्यालयों में भी प्रेरक वातावरण की कमी, स्त्री-पुरुष के बीच सहज सहकर्मी की भावना का अभाव जिससे कार्यरत महिलाओं को कठिनाइयों व असुरक्षा की भावना का सामना ही नहीं करना पड़ता है बल्कि चरित्र को लेकर फैलाने वाली वे सच्ची-झूठी अफवाहें, कानाफूसियां और कहानियां मिलकर घरों से बाहर निकलने वाले नये पैरों में भी ज़ंजीरें डालने का काम करती हैं।

इस परिवर्तन को यदि महापरिवर्तन की शताब्दी कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी क्योंकि जो तंत्र सदियों से एक ढर्रे पे चले आ रहे थे वो अचानक बिखर गये और भारतीय नारी ने भी इस शुभ अवसर का फ़ायदा उठाने की भरपूर कोशिश की है। लेकिन ख़ेद की बात है कि नारी द्वारा अपने प्रयासों से प्राप्त स्वतंत्रता स्वच्छन्दता में परिवर्तित होकर अनेकानेक सामाजिक संकट खड़े कर रही है। वह अपने आप को आधुनिक समझने का दम्भ बेशक भर रही है, परन्तु टूटते परिवार, असंतुष्ट दाम्पत्य, तलाकों की बढ़ती संख्या उनके दम्भ की कलई खोल रही है। आज बहुधा परिवारों में पति-पत्नी के बीच रिश्ते रूहानी न होकर मात्र जिस्मानी रह गये हैं। मां-बेटी के बीच का आत्मीय रिश्ता मात्र औपचारिकताओं तक सीमित रह गया है क्योंकि यह ऐसा दौर है जहां प्रगति की छटपटाहट है और संस्कारों से जुड़े रहने की विवशता भी। उधर पुरुष वर्ग भी जागृत महिला की योग्यता व कौशल को देखकर आकुल है, वह किसी न किसी तरह उनके बढ़ते कदमों के रास्ते में रोड़े अटकाये लेकिन अगर महिला को अस्तित्त्व की उपस्थिति दर्ज़ करानी है तो बहुत ज़रूरी है कि वह संविधान द्वारा प्राप्त अपने विशिष्ट अधिकारों का लाभ उठाये और महिला संबंधी बनाये गये विशेष कानूनों की भी जानकारी रखे।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*