-विभा प्रकाश श्रीवास्तव

आज चारों ओर इस बात की धूम मची है कि युग बदल रहा है नारी पुरुष के साथ कंधा मिलाकर चल रही है किन्तु जब हम अपने अतीत पर दृष्टि डालते हैं तो नारियां आदिकाल से ही पुरुष के साथ रही हैं।

उन्नत विकसित सभ्य कहे जाने वाले देशों के लोग, जिस समय नदियों, झरनों, तालाबों में घुटनों के बल, जानवर की तरह पानी पीते थे, उस समय भी हमारे देशवासियों ने भूगोल, खगोल, यंत्रविद्या, ज्ञान-विज्ञान, योग बल, जड़ी-बूटी चिकित्सा गुुह्य विद्यायों के साथ विकास कर लिया था।

यह सत्य है कि नारी की प्रतिभा, क्षमता, योग्यता, पुरुष की प्रतिभा, क्षमता, योग्यता से मिलकर अनन्तगुनी प्रभावशाली हो जाती है। इतिहास से अगर नारी की भूमिका हटा दी जाए तो उसका स्वरूप ही बदल जाता है।

रामायण में सीता, महाभारत में कुंती, गांधारी, द्रोपदी, भागवत में देवकी, यशोदा, गोपियां, अलग कर दी जाएं, शिव के साथ सती, विष्णु के साथ लक्षमी ब्रह्मा के साथ ब्राह्मणी के नाम हटा दिए जाएं तब कहने-सुनने को कुछ बचता नहीं।

नारी को अबला कहने वाले जान लें- आसुरी उत्पात के कारण असुरों का संहार करने में मातृशक्ति दुर्गा ही समर्थ हुई थी। ईश्वरीय शक्ति उत्पन्न करने में अकेले ‘मनु’ की तपस्या सफल नहीं हुई। उनकी पत्नी ‘सतरूपा’ तपस्या में लगी तब उन्होंने कौशल्या बन राम को जन्म दिया। ‘कश्यप ऋषि’ ने  पत्नी अदिति के साथ तप किया। अदिति यशोदा बनी।

सूखे विन्ध्याचल पर्वत में हरिक्रांति और चित्रकूट में मंदाकिनी नदी, अनुसुइया के तप से आईं। भरत, जिनके नाम से हमारे देश का नाम ‘भारतवर्ष’ पड़ा, उनका पालन अकेली मां शकुन्तला ने किया जो कि बचपन में शेर के बच्चों के साथ खेलते थे। लवकुश वाल्मीकि आश्रम में सीता के संरक्षण में पले, जिन्होंने अजय बनकर राम, लक्ष्मण, हनुमान सभी को प्राजित किया।

विद्वता के क्षेत्र में देखें- वेदों की सृष्टा, मुनियों की दृष्टा के रूप में शची, लोपामुद्रा, अदिति, अपाला घोषा, विश्वपारा, अरुन्धती के नाम विख्यात हैं। गार्गी और याज्ञवल्क्य जनक और सुलभा शंकराचार्य और देवी भारती का शास्त्रार्थ सर्वविदित है। विदुषियों में विदग्धा उद्दालिका, अनुसुइया, गौतमी आदि के नाम भी विख्यात हैं।

शौर्य साहस वीरता की ओर चलें- शिवधनुष अच्छे महावीर नहीं उठा पाए, सीता ने उठाया, कृष्णार्जुन युद्ध में अर्जुन के रथ के घोड़ों की लगाम द्रोपदी ने थामी थी। दशरथ जी के साथ कैकेई युद्ध में रहती थीं।

पहले भी महिलाओं को धनुविद्या की शिक्षा दी जाती थी। आज हमारी सरकार ने व्यवस्था हेतु नारियों को अवसर दिया- उसके परिणाम उत्साहवर्धक हैं।

नेतृत्व के मामले में नारी पीछे नहीं रही, इन्द्र को इन्द्राणी दिशा-निर्देश देती थी। धृतराष्ट्र का कार्य गांधारी संभालती थी। वैसे भी नूरजहां, राज्यश्री, चांदबीबी, रज़िया बेगम, पद्मावती, लक्ष्मीबाई, दुर्गावती, इंदिरा अनगिनत उदाहरण हैं।

कहने का मतलब यह है कि नारी को किसी भी सही दिशा में बढ़ने से रोकना, व्यक्तिगत हानि तो है ही, समय और मांग पर सामाजिक अपराध भी है क्योंकि प्रत्येक नारी अपनी ज़िम्मेदारी स्वयं समझती है। घर-परिवार के कार्य के बाद अगर नारी को एकस्ट्रा समय मिलता है उसमें वह कुछ करना चाहती है, उसे रोका नहीं जाना चाहिए।

देश की दुर्दशा के लिए कुछ शताब्दियों की ग़ुलामी ज़िम्मेदार नहीं है बल्कि नारी पर अभी भी परम्परागत ढंग से लगे हुए प्रतिबंध ज़िम्मेदार हैं। हमें स्वतंत्र हुए 59 साल हो गए अपनी स्थिति सुधारने के लिए इतना समय बहुत होता है। मेरा यह कहना नहीं कि स्थिति ज्यों की त्यों है बल्कि विकास, प्रगति जिस चाल-ढाल से जिस गति से होनी थी, नहीं हो पाई।

इसका कारण सिर्फ़ यही है कि देश की आधी जनशक्ति आज भी अपंग और बोझ बनी है या समझी जा रही है। लोग नारी शक्ति की महत्ता को समझ नहीं रहे या जानबूझकर अन्जान बने हैं, इसका परिणाम नववधू व कन्या भ्रूण की हत्या के रूप में सामने आया है।

अंधविश्वास, कुरीतियों को पोषण देते बहुत समय हो गया, इनका महंगा मूल्य कछुए की चाल से चलते चुकाया जाता रहा है पर अब इस चाल का क्रम बदलना चाहिए। सभी चाहते हैं अतीत का गौरव वापिस लौटे, नारियां प्रत्येक क्षेत्र में उतरें, राष्ट्र की प्रगति हो, गौरव बढ़े, इन आकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए नारी शक्ति को पुनः प्रतिष्ठित करना होगा। उन्हें आगे बढ़ने, उनका आत्म विश्वास जागृत करने हेतु पुरुष का प्रोत्साहन भी बहुत ज़रूरी है, इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा मार्ग नहीं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*