-चित्रेश
वह भीड़-भाड़ से हटकर एक खंभे पर पीठ टिकाए खड़ा था और काफ़ी देर से उस लड़की की तरफ़ देख रहा था। लड़की तेरह-चौदह साल की रही होगी। शरीर दुबला-पतला, रंग पीलापन लिए हुए, साफ़ चेहरा निस्तेज होते हुए भी अच्छे नैन-नक्श की वजह से प्यारा लग रहा था। उसने अपने विकसित शरीर को फटे-पुराने कपड़ों से ढक रखा था।
लड़की प्लेटफार्म पर घूम-घूमकर ट्रेन की प्रतीक्षा में खड़े-बैठे लोगों के सामने अपनी हथेली फैला रही थी। किसी से पच्चीस-पच्चास का सिक्का, किसी से झिड़की या नसीहत के कुछ शब्द पाकर वह एकरस भाव से आगे बढ़ जाती। उसके अन्दर लड़की के प्रति बेपनाह दया उमड़ने लगी- बेचारी किसी ठीक-ठाक घर परिवार में जन्मती तो स्कूल जाती। हंसती-खेलती… धीरे-धीरे उसे ग़ुस्सा-सा आने लगा उस व्यवस्था पर, जिसने एक नाज़ुक उम्र की बच्ची को…
इसी बीच लड़की उसके सामने हाथ फैलाए खड़ी हो गई। वह लड़की की दीनता के प्रति कुछ अधिक ही पिघल गया था। उसने कुर्ते की जेेब में हाथ डाला और बीस का नोट निकाल, लड़की की हथेली पर रख दिया। लड़की ने नोट झट मुट्ठी में दबोच लिया। हाथ और आंखों से स्टेशन के बाहर कंटीली झाड़ियों के फैलाव की तरफ़ इशारा करते हुए बेझिझक फुसफुसाई “उधर आ जाओ… एकदम सुनसान रहता है….”
अपनी भावना के ऐसे ग़लीज़ मूल्यांकन की उम्मीद उसे सपने में भी न थी, लिहाज़ा वह हक्का-बक्का सा लड़की को निर्दिष्ट दिशा की ओर जाते अपलक देखता रह गया।