फ़िल्म की शूटिंग पूरे ज़ोरों पर थी। फ़िल्म का सैट एक हवालात का था। हवालात में बंद मुलज़िम (सन्नी देयोल) खून से लथपथ हुआ सलाख़ों वाले दरवाज़े की तरफ़ चलता आता हुआ चीखता है, “मुझे तो तुमने ज़िंदा छोड़ दिया है इंस्पेक्टर, पर अब मैं तुम्हें ज़िंदा नहीं छोड़ूंगा।”
    “कट।” निर्देशक की आवाज़ गूंजी, “राइटर कहां है?”
     लेखक काग़ज़ों का पुलिंदा उठाता हुआ आगे आया तो निर्देशक ने कहा, “यह डायलॉग तो पांच फुट की जगह में समाप्‍त हो जाना चाहिए था पर कई फुट लम्बा हो गया।”
      लेखक ने डायलॉग फिर लिखा। सन्नी देयोल के चलने के लिए रखी हुई पांच फुट की जगह में चलकर उसने डायलॉग खुद बोल कर देखा। डायलॉग की लम्बाई ठीक होने की तसल्ली की और शूटिंग फिर से शुरू हो गई।
    हवालात के बन्द दरवाज़े की तरफ़ आते हुए सन्नी देयोल ने ऊंची आवाज़ में दहाड़ लगाई “मुझे ज़िंदा छोड़ोगे तो बहुत पछताओगे, इंस्पेक्टर।”
     हीरो का हाथ कुछ देर तक सलाख़ों से बाहर फ्रेम में दिखता रहा।
    शॉट ओ. के. हुआ।
    फ़िल्म के लेखक के लिए स्क्रिप्ट में बार-बार सुधार करना आम बात है। साहित्य का लेखक स्वतन्त्र होता है पर फ़िल्म का लेखक अपनी मर्ज़ी का मालिक नहीं होता है। फ़िल्मों के लिए लिखना अकसर निम्न स्तर पर आने वाली बात होती है। कहानी की ज़रूरत न होते हुए भी फ़िल्म के लेखक को कभी बलात्कार का दृश्य लिखना पड़ता है और कभी अश्‍लील वार्तालाप लिखनी पड़ती है। बहुत बार फ़िल्म के लेखक को अच्छी लेखनी पर भी ग़ैर-साहित्यक और नासमझ लोगों के हाथों ज़लील होना पड़ता है, क्योंकि लेखक ने दृश्य लिखते समय उन लोगों की निम्न स्तर की अनैतिक और काम-पिपासा को सामने नहीं रखा होता है।
    निर्देशक द्वारा स्क्रिप्ट की मक़बूलियत तो लेखक के लिए जंग जीतने जैसी बात होती है। साहित्य सृजन करने वाले के पास कल्पना की असीम उड़ान होती है। उस की उड़ान में बाधा डालने वाला कोई नहीं होता। निजी तजुर्बे की ज़रख़ेज़ मिट्टी उसकी रचना का आधार बनती है। सच को कल्पना के साथ गूंथ कर वह कैसी भी रचना कर ले। लेखक अपनी सृजना का भगवान् होता है।
    फ़िल्म के लेखक द्वारा लिखा हुआ अन्तिम नहीं होता। उसके लिखे हुए को रद्द करने वाले कई भगवान् होते हैं। लेखक द्वारा रात-रात भर जाग कर लिखे हुए दृश्यों को पल-भर में कतर दिया जाता है। निर्देशक संजय भंसाली लिखे हुए सीन को रद्द करने के लिए अकसर कहता है, “पार्टनर, यह दृश्य तुमने बड़ा सुन्दर लिखा है, पर ‘मैजिक’ पैदा नहीं हुआ।”
    निर्देशक राज कंवल का फ़िल्मी लेखक के लिखे हुए को रद्द करने के लिए तक़िया-कलाम है, “भाई, सीन तुमने धूनी जलाकर नहीं लिखा है।”
    जितने निर्देशक, उतने ही लिखे हुए को रद्द करने के लिए तकिया-कलाम।
     फ़िल्म का लेखक पहले लिखे पर लकीर लगाकर वापिस लिखने बैठ जाता है, एक शब्द भी इधर से उधर नहीं हो सकता, “यह संजय भंसाली या राज कंवल कौन होते हैं उसके लिखे को रद्द करने वाले” अगर वह यह सोचने बैठ जाएं तो वह लेखक फ़िल्म से बाहर हो जाता है।
    फ़िल्म निर्देशक का माध्यम है और साहित्य लेखक का। फ़िल्म के निर्माण के लिए साहित्य की ज़रूरत हमेशा होती है, पर फ़िल्म विधान की कुछ ज़रूरतें पूरी करने की ख़ातिर फ़िल्म वालों को साहित्य रचना में कई तरह के सुधार करने पड़ते हैं। साहित्य रचना में परिवर्तन तो तकनीकी के कारण होते हैं और कुछ इस करके भी कि प्रोड्यूसर फ़िल्म के निर्माण में लाखों-करोड़ों रुपये ख़र्च करता है वह फ़िल्म में से लागत से कई गुणा अधिक प्राप्‍त करना भी चाहता है। साहित्यक रचना के व्यापारिक छूट लेते समय बहुत बार रचना में से साहित्य आलोप भी हो जाता है।
     शब्द की शक्‍ति अथाह होती है। वाक्य में आने पर शब्द परत-दर-परत अनेक अर्थों की सृजना करता है। विजुअल में आने के बाद शब्द की वह शक्‍ति सीमित हो जाती है। अर्थ उतने ही रह जाते हैं, जितना आंख देख लेती है। पर सामर्थ्यवान निर्देशक फिर भी अर्थ और परतों का निर्माण कर लेते हैं। फ़िल्म में वार्तालाप, चुप, रौशनी और संगीत के सही प्रयोग के साथ वह अनेक अर्थों का संचार करते हैं।
    फ़िल्म के लेखक के लिए बहुत बंदिशें हैं। बहुत बार तो कहानी का आधार भी लेखक का अपना नहीं होता। फ़िल्म के लिए विषय का चुनाव निर्माता-निर्देशक की इच्छा पर निर्भर करता है। फ़िल्म ‘सरदारी बेगम’ की उदाहरण सब के सामने है।
    निर्देशक श्याम बेनेगल ने फ़िल्म ‘सरदारी बेगम’ बनाने से पहले सिर्फ़ इतनी-सी बात सुनी हुई थी कि एक ठुमरी गायिका होती थी। गायिकी के क्षेत्र में उसे पहले कुछ सफलता भी मिली और फिर वह गुमनामी के अंधेरे में गुम हो गई। वर्षों बाद किसी अख़बार के कॉलम में एक इंच भर का समाचार प्रकाशित हुआ था कि वह गायिका सांप्रदायिक दंगों में मारी गई थी। और बस, एक इंच भर के इस बयान के बाद श्याम बेनेगल फ़िल्म ‘सरदारी बेगम’ बनाना चाहता था।
    उसके लिए लेखक ख़ालिद मुहम्मद ने कहानी विकसित की और फ़िल्म बन गई। पर यह जोख़िम भरा कार्य यहीं पर समाप्‍त नहीं होता है। फ़िल्म लेखक के कल्पना के पंख बार-बार कतरे जाते हैं। लेखक को जब लिखने के लिए फ़िल्म हासिल होती है तो वह अपने बचाव के लिए पहले से ही कमर कस लेता है। वह निर्माता-निर्देशक को यह ज़रूर पूछता है कि फ़िल्म के किरदार कौन-से अभिनेता तथा अभिनेत्रियां हैं? नायक-नायिका के स्वभाव, बोलने के ढंग, उनकी इमेज को मुख्य रखकर ही लेखक कहानी के पात्रों का निर्माण करता है।
    एक्टर लेखक के लिखे हुए अनुसार अभिनय नहीं करते। उनकी अपनी कमज़ोरियां होती हैं। सन्नी देयोल लम्बे डॉयलॉग नहीं बोल सकता। उसके लिए लेखक को छोटे-छोटे वाक्य लिखने पड़ते हैं। गंभीर वार्तालाप सलमान ख़ान के स्वभाव और शख़्सियत से मेल नहीं करते। लेखक को सलमान ख़ान के लिए हल्के-फुल्के और कुछ चुलबुले वाक्य लिखने पड़ते हैं। यदि नसीरूदीन शाह, ओमपुरी या आमिर ख़ान की तरह के एक्टर हों तो लेखक के लिए कोई बंदिश नहीं होती। उनकी प्रतिभा लेखक के लिखे हुए को अंजाम देती है।
    कई बार इस तरह भी होता है कि निर्देशक के कहने पर लिखी हुई स्क्रिप्ट काट कर किसी का रोल दोबारा लिखकर बड़ा कर दिया जाता है, किसी से नाराज़ होकर उसका रोल छोटा कर दिया जाता है। कई निर्माताओं-निर्देशकों की किसी ख़ास नायिका या किसी ख़ास नायक के प्रति भावुकता होती है। वह उनको लेकर ही फ़िल्म का निर्माण करना चाहता है। वह लेखक को हिदायत देता है कि उसकी चहेती नायिका या नायक को ही ध्यान में रखकर फ़िल्म लिखे और भी बड़ा कुछ होता है। मसलन, किसी के लिए गाना गाने की स्थिति पैदा कर दी जाती है और किसी अन्य को असामयिक मौत ही मार दिया जाता है। दरअसल हर स्थिति में लेखक स्वयं ही मरता है। कई बार तो कहानी की काट-छांट इस क़दर बढ़ जाती है कि स्क्रिप्ट में से लेखक की कहानी ही गुम हो जाती है।
    बहुत साल पहले फ़िल्म निर्माता आई. ए. नाडियाडवाला और बी. महेन्द्रशाह ने एक गुजराती फ़िल्म ‘संतू रंगीली’ बनाई थी। गुजरात में फ़िल्म उद्योग को उत्साहित करने के लिए वहां की सरकार एक बड़ी रक़म निर्माता को सहयोग के रूप में देती थी। 1972-73 में वह रक़म 75 हज़ार रूपये होती थी। यह दोनों निर्माता भी प्रांत की राजधानी जाकर ‘संतू रंगीली’ के लिए यह रक़म वसूल करके ले आए। उनकी खुशी (प्रसन्नता) शीर्ष पर थी। दोनों ने नई फ़िल्म का निर्माण करने के बारे सोचा। उन्होंने यह भी निर्णय लिया कि नई फ़िल्म को-ऐजुकेशन कॉलेज की चार वर्षीय ज़िंदगी के बारे में हो। उन चार वर्षो में बहुत कुछ दिखाया जा सकता था, मसलन बलात्कार, लड़के-लड़कियों का इश्क, उनके कामुक सम्बन्ध, नशों का प्रयोग, कुछ का कॉलेज के होस्टल को समलैंगिक के अड्डे बतौर इस्तेमाल करना और…..।
    मैं उस समय अहमदाबाद में था। उन्होंने सारा विवरण मुझे दिया और उस नई फ़िल्म की कहानी लिखने के लिए भी कहा। मैं फ़ौज में था। मैं अतिरिक्‍त कमाई के लिए बाहर कोई अन्य काम नहीं कर सकता था। मैंने कहा, “इस तरह का काम करने के लिए शायद मुझे आर्मी हैडक्वाटर से अनुमति लेनी पड़ेगी।”
     नाडियाडवाला ने बताया कि इस की नौबत नहीं आएगी। फ़िल्म की स्क्रीन पर बतौर लेखक तुम्हारा नाम नहीं होगा।
    “और किसका नाम होगा?” मैं हैरान हुआ था।
    “ तुम्हारे अलावा दो व्यक्‍ति और भी यही कहानी लिखेंगे। इन तीनों कहानियों पर सिटिंग होगी। स्क्रीनप्ले और डायलॉग लिखने के माहिर इन तीनों कहानियों से एक नई कहानी तैयार करेंगे। फिर उस कहानी पर फ़िल्म बनेगी। क्या पता बतौर लेखक तुम तीनों में से किसी का नाम भी न हो।” नाडियाडवाला ने बड़े धैर्यपूर्वक बताया। पर मैंने हैरान-परेशान होते हुए पूछा था, “यदि तीनों में से किसी एक को भी उस कहानी का लेखक नहीं समझा जाता तो फिर वह चौथा व्यक्‍ति कौन होगा जिसे आप उस कहानी का लेखक कहेंगे?”
    पहले वह हंसा, और फिर गंभीर होता हुआ बोला, “फ़िल्म को बेचने के समय जिन नामों द्वारा फ़िल्म की क़ीमत बढ़ती है, कोई ऐसा नाम ही फ़िल्म के लेखक के तौर पर प्रयोग करेंगे। जब उस लेखक को उसके नाम की पूरी क़ीमत मिल जाएगी तो उसे भला क्या एतराज़ होगा?”
    मुझे आई. ए. नाडियाडवाला से कुछ और सवाल पूछने की ज़रूरत नहीं रह गई थी। मुझे फ़िल्मों की कहानियां लिखने के बारे में एक और ढंग (कला) का पता चल गया था। मैंने उस फ़िल्म की कहानी नहीं लिखी थी पर मुझे पूरा यक़ीन है कि किसी दूसरे ने ज़रूर लिख दी होगी।
    फ़िल्म का लेखक, लेखक की आज़ादी से विहीन होता है। अब ज़रा फ़िल्म लेखन के एक-एक दृश्य पर होती मेहनत का अंदाज़ा भी लगा लें। एक सिल्वर जुबली फ़िल्म का लेखक उस फ़िल्म का आख़िरी दृश्य लिखते समय परेशान था, पर वह दृश्य न ‘धूनी रमाकर’ लिखा हुआ लगता था और न ही उस दृश्य में ‘मैजिक’ पैदा हुआ था।
दूसरे दिन आख़िरी दृश्य की शूटिंग थी पर दृश्य में न कोई तनाव की स्थिति ही पैदा हुई थी और न ही कहीं टकराव दिखाई देता था। उस दृश्य में करिश्मा कपूर के पति सलमान ख़ान को सन्नी देयोल मौत के मुंह से बचाकर लाता है। सभी के दिलों में से एक-दूसरे के प्रति पैदा हुए भ्रम दूर हो जाते हैं। वह एक-दूसरे की प्रशंसा करते हैं। वह प्रशंसा उबाऊ थी। यह दृश्य किसी तरह भी क्लाई-मेक्स का दृश्य नहीं था।

    लेखक बेचारा क्या करे?
    वह अपनी राहत के लिए बुज़ुर्ग नायक दिलीप कुमार के पास पहुंच गया। दिलीप कुमार ने उसके थके हुए चेहरे की तरफ़ देख कर पूछा, “बरखुरदार, कुछ परेशान लग रहे हो?”
    “ख़ान साहिब! मैं सचमुच ही परेशान हूं।” उसने अपनी समस्या बताई, “परसों शूटिंग है और क्लाईमेक्स का सीन मुझसे निर्देशक की तसल्ली मुताबिक़ नहीं लिखा जा रहा है। मैं तो दलदल में फंसा हुआ हूं।”
  दिलीप कुमार अपने ख़ास अंदाज़ में मुस्कुराया, “दलदल में फंसे हुए को तो मांएं ही बाहर निकालती हैं।”
“मांएं? मैं समझा नहीं।”

    “देख, जब किसी भयानक जंगल में बच्चा अकेला घिर जाए, किसी तरफ़ रास्ता दिखाई न दे तो वह सहायता के लिए भला किसे याद करता है?” दिलीप कुमार ने झुककर लेखक के कंधे पर हाथ रख दिया, “मुश्किल समय बच्चा अपनी मां को ही याद करता है। तुम भी मां को ही याद करो।” लेखक के चेहरे पर उलझन देखकर उसने खुलासा किया, “तू इस मुश्किल सीन को मातृभाषा में लिख, यानी पंजाबी में और फिर उस का अनुवाद कर लेना।”
    दिलीप कुमार को जिस स्थिति में एक्टिंग कठिन प्रतीत हो उसे दृश्य की रिहर्सल के समय वह वार्तालाप पंजाबी में अनुवाद करके अभिनय करता था। फिर शूटिंग के दौरान उसे कोई कठिनाई पेश नहीं आती थी। फ़िल्म मुग़ले-आज़म में अनारकली को लेकर अकबर के साथ हुई तकरार वाले दृश्य में उसने यही किया था और नतीजे कमाल के निकले थे।
    लेखक ने उसका परामर्श मान लिया। घर पहुंच कर उसने वह दृश्य पंजाबी में लिखा तो हैरान रह गया। उसकी कल्पना के सामने दूसरी भाषा की रुकावट नहीं थी। विचार स्वाभाविक रूप से ही उसके पास आ रहे थे। उसके लेखन में ऊंचाई से बहते हुए पानी जैसी रवानी थी। लिखते-लिखते उसे शब्दों की तलाश में रुकना भी नहीं पड़ रहा था। निर्देशक भी ठीक लग रहा था कि शीर्ष के दृश्य के लिए उसने जिस ‘मैजिक’ की आशा थी, वह निर्मित किया जा चुका था। और वह मैजिक दिलीप कुमार के बताए हुए टिप्स से पैदा हुआ था। जिन्होंने वह फ़िल्म देखी है, उनको मालूम है कि फ़िल्म के अन्तिम दृश्य का फ़िल्म की सफलता में अहम योगदान था।
पर एक बात तो सच है जो मैं यहां अवश्‍य कहना चाहूंगा कि यदि किसी लेखक ने फ़िल्मों के लिए कहानियां, स्क्रीनप्ले या डायलॉग लिखने का इरादा किया हुआ है तो उसे पहले अपनी भावुकता और संवेदनशीलता को दूर कर देना चाहिए।

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