-मुकेश अग्रवाल

प्रसिद्ध दार्शनिक सेंटपॉल को जनकल्याण हेतु पौधारोपण करते देख उनके शिष्यों ने इसका विरोध करते हुए कहा ‘यदि जनता की सेवा ही करनी है तो सराय अथवा भोजनालय बनवाना उचित रहेगा।’ सेंटपॉल ने शिष्यों को समझाते हुए कहा ‘मेरी मृत्यु के बाद सराय टूट सकती है, भोजनालय बंद हो सकता है। किन्तु मेरे लगाए हुए वृक्ष वर्षों तक भूखे को फल, पूजा के लिए फूल, ईंधन की लकड़ी और गर्मी की दोपहरी में शीतल छाया देते रहेंगे।’ आज के परिवेश में उपरोक्त प्रसंग की प्रासंगिकता भले ही समाप्त हो गई है, किन्तु इतना तय है कि पुरातन काल में पेड़-पौधे लोगों की ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा थे। जनसाधारण ईश्वर द्वारा दी गई इस अनमोल विरासत को सहेज कर रखने में ही विश्वास रखते थे। अनेक सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में वृक्षों की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती थी। घरों में तुलसी एवं पीपल का पौधा लगाना वृक्षों की उपयोगिता का साक्षात् प्रमाण था। विवाह मंडप को केले के पत्तों से सजाना, नवजात शिशु के जन्म पर घर के मुख्य द्वार पर नीम की टहनियां लगाना, हवन में आम की लकड़ियों का प्रयोग आदि ढेरों ऐसे उदाहरण हैं जिनसे तत्कालीन समाज में वृक्षों की महत्ता का बखूबी पता चलता है।

प्रकृति के संचालन में वृक्षों की अद्वितीय भूमिका है। सदियों से वृक्ष हमें अपने शरीर को रोग मुक्त करने के लिए अमूल्य औषधियां प्रदान करते रहे हैं। आकाश में विचरण करते लाखों पक्षियों और असंख्य जीव जंतुओं को आश्रय देने के साथ-साथ वन हमें इमारती लकड़ी एवं ईंधन भी देते हैं। ज़रा सोचिए, यदि वृक्षों का अस्तित्त्व ही न होता तो हमें खाने के लिए फल और राह चलते यात्री को ठंडी छाया कहां से मिलती? वृक्षों की महत्ता और उपयोगिता के विषय में वर्णन किया जाए तो संभवतः यह स्थान ही कम पड़ जाएगा किन्तु यहां प्रसंगवश यह उल्लेख करना अत्यंत रोचक होगा कि वृक्ष हमें सांस लेने के लिए बहुमूल्य ऑक्सीजन भी प्रदान करते हैं जो दुनियां की किसी भी दुकान पर ख़रीदी नहीं जा सकती।

किन्तु आज स्थिति ठीक इसके विपरीत है। आज का सभ्य समाज प्रगति की होड़ में वृक्षों के महत्त्व को नकार उन्हें अपना शत्रु मानने की भूल कर बैठा है। जिसका ख़ामियाज़ा संपूर्ण विश्व भुगत रहा है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यदि वृक्षों के साथ शत्रुता का दौर यूं ही चलता रहा तो इसके भयंकर परिणाम भुगतने होंगे। ग़ौरतलब है कि पांच दशक पहले देश में जनसंख्या वृद्धि एवं वैज्ञानिक प्रगति का ऐसा दौर चला जिसने वृक्षों के कटान की कुप्रथा को जन्म दिया। बढ़ती आवासीय समस्या और औद्योगिक संस्थानों की मांग ने मिलकर बड़ी बेरहमी के साथ वृक्षों का ‘क़त्ल’ करना आरंभ किया। जो आज भी बदस्तूर जारी है। इमारती लकड़ी और ईंधन की बढ़ती ज़रूरत ने जलती आग में घी का काम किया। नतीजतन आज वृक्षों की सैंकड़ों प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं। वृक्षों में बेतहाशा कमी के कारण ही जहां रेगिस्तान का क्षेत्रफल धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है वहीं अनेक जीव-जंतु मात्र चित्रों तक ही सीमित होकर रह गए हैं। वृक्षों के नाम पर गमलों में दो-चार पौधे लगाकर पर्यावरण के प्रति अपने कर्त्तव्य की इतिश्री करने का ही नतीजा है कि आज महानगरों में पूर्वजों को जलार्पण करने के लिए ढूंढ़ने से भी वटवृक्ष नहीं मिलता। शहरीकरण एवं आधुनिकीकरण की होड़ में असमय दी गई पेड़-पौधों की बलि का ही नतीजा है कि संपूर्ण विश्व आज पर्यावरण में असंतुलन की समस्या से जूझ रहा है। वृक्षों की घटती संख्या से वायुमंडल में कार्बनडाइऑक्साइड एवं ऑक्सीजन गैस का अनुपात बुरी तरह प्रभावित हुआ है। पर्यावरण में असंतुलन का ही नतीजा है कि पिछले कुछ वर्षों में औसत तापमान में वृद्धि, सूखा, बाढ़, ऋतु-परिवर्तन जैसी अनेक समस्याएं जन्म ले रहीं हैं। ज्ञातव्य है कि कार्बनडाइऑक्साइड गैस सूर्य की पराबैंगनी किरणों को भी वापिस जाने से रोकती हैं। वायुमंडल में पराबैंगनी किरणों की अधिकता के परिणामस्वरूप ही आंखों एवं श्वास संबंधी रोग फैलते जा रहे हैं।

एक सर्वेक्षण के अनुसार प्रति वर्ष 4 लाख मिलियन टन कार्बनडाइऑक्साइड पर्यावरण में केवल मानवीय गतिविधियों के कारण बढ़ जाती हैं। पर्यावरणविदों का कहना है कि यदि वृक्षों की पर्याप्त संख्या बनी रहती तो कार्बनडाइऑक्साइड की मात्रा इतनी न बढ़ती। क्योंकि वृक्ष इस गैस को अपने भोजन के रूप में प्रयोग करते हैं। भुवनेश्वर स्थित भौतिकी संस्थान के वैज्ञानिक एस. अफ़सर अब्बास के अनुसार हरियाली तथा जलवायु को संतुलित रखने में वन अहम भूमिका निभाते हैं। यदि वनों का अधिकाधिक प्रसार हो जाए तो भीषण गर्मी एवं कड़ाके की ठंड से छुटकारा पाया जा सकता है।

मौसम विशेषज्ञों का मानना है कि पर्यावरण में संतुलन के लिए वृक्षों का एक निश्चित अनुपात में होना अति आवश्यक है। किन्तु उपग्रह से प्राप्त चित्र के अनुसार 33 प्रतिशत वन संपदा के स्थान पर 16 प्रतिशत वन ही शेष हैं। इस संबंध में पर्यावरण कार्यकर्त्ता मेधा पाटकर का कहना है कि अगर पर्यावरण में असंतुलन शीघ्र ही समाप्त न हुआ तो वह दिन दूर नहीं जब नदियां सूख जायेंगी, बाढ़ एवं सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाएं हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में शामिल हो जाएंगी।

इतना ही नहीं ‘इंटरनैशनल कमीशन फॉर स्नो एण्ड आइस’ एवं ‘वेदर एण्ड वर्ल्ड’ की रिर्पोट में अनेक पर्यावरण विशेषज्ञों ने बताया है कि यदि वृक्षों का कटान इसी प्रकार जारी रहा तो कोई आश्चर्य की बात नहीं, जब हिमालय में बर्फ़ से ढके पहाड़ों के स्थान पर हवा के गर्म थपेडों के कारण वहां खड़ा होना भी मुश्किल होगा। जबकि शिमला, नैनीताल, मसूरी, कुल्लू-मनाली आदि हिल स्टेशनों में भयंकर गर्मी के कारण कोई जाना पसंद नहीं करेगा। राजस्थान में जहां रेत के ऊंचे टीले हैं। वहां दूर-दूर तक पानी ही पानी नज़र आयेगा। विश्व का सर्वाधिक वर्षा वाला इलाक़ा चिरापूंजी भयंकर सूखे से ग्रस्त नज़र आएगा।

पर्यावरण में असंतुलन से उपजे दुष्परिणामों की कहानी यहीं पर ख़त्म होती नज़र नहीं आती। कुछेक वैज्ञानिकों ने तो यहां तक भविष्यवाणी की है कि मौसम में अत्यधिक गर्मी होने से ग्लेशियरों के पिघलने में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि होगी। जिसके कारण समुद्री जल स्तर 2.0 से.मी. तक बढ़ जाएगा। परिणामस्वरूप समुद्र के किनारे बसे देश तो असमय जल समाधि लेने पर मजबूर होंगे ही साथ ही मलेरिया, डेंगू और चर्म रोग जैसे भयानक रोग भी जनता को अपनी चपेट में ले लेंगे। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के पर्यावरण वैज्ञानिक वी. सुब्रह्मण्यम के अनुसार पृथ्वी का तापमान बढ़ने से समुद्री जल स्तर में वृद्धि यदि इसी रफ़्तार से बढ़ती रही तो बंगलादेश, कोलकाता और मालदीव जैसे इलाक़े समुद्र का हिस्सा बन जायेंगे।

प्रसिद्ध पर्यावरण विद् सुंदर लाल बहुगुणा के मतानुसार हिमालय तथा तराई क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर हो रही जंगलों की कटाई इसके लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेवार है। भूमंडलीय स्तर पर जलवायु के गर्म होने का सीधा असर हिमपात पर पड़ रहा है।

हाल ही के वर्षों में पर्यावरण को सुधारने के लिए कई कानून लागू किए गए हैं, फिर भी समस्या ज्यों की त्यों है। दरअसल जो मुद्दा जनता की सोच से जुड़ा हो वहां कानून प्रायः निष्प्रभावी ही रहता है। अतः हमें पर्यावरण सुधारने के लिए पत्तों को सींचने की अपेक्षा समस्या की जड़ पर प्रहार करना होगा। पर्यावरण में असंतुलन का मुख्य कारण वृक्षों की घटती संख्या है। इसलिए हमें वृक्षारोपण जैसे कार्यक्रमों को जनआंदोलन का रूप देना होगा। सियोल में विवाह के अवसर पर बीस पौधे लगाने जैसे कानूनों को भारत में जल्द से जल्द लागू किए जाने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त जनता शुभ अवसरों पर पौधे लगाने की परंपरा का निर्वाह कर पर्यावरण स्वच्छ रखने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है। स्कूल, कॉलेजों एवं पंचायतों द्वारा वृक्षारोपण करने एवं उनकी देखभाल करने के फलस्वरूप उन्हें सरकारी स्तर पर पुरस्कृत कर पर्यावरण को बढ़ावा दिया जा सकता है। वृक्षों के कटान पर पूर्ण प्रतिबंध पर्यावरण के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है।

याद रखें, केवल वृक्ष ही इस धरती को हरा-भरा रख सकते हैं। वृक्ष धरती के लिए फेफड़ों का काम करते हैं। जिससे धरती का वातावरण शुद्ध और प्रदूषण रहित रहता है। निश्चित रूप से अब वो समय आ गया है जब हमें पर्यावरण की सुरक्षा के लिए सर्वस्व दांव पर लगा देना चाहिए। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्कूलों में पर्यावरण संबंधी पाठ्यक्रम लागू करने संबंधी आदेश को पर्यावरण सुधारने की दिशा में महत्वपूर्ण क़दम माना जा सकता है।

बहरहाल, वर्षों में बढ़े हुए प्रदूषण को समाप्त होने में समय लगेगा ही। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि हम पर्यावरण स्वच्छ रखने के दायित्व से मुंह मोड़ लें। यदि पर्यावरण की उपेक्षा यूं ही जारी रही तो एक दिन ऐसा आयेगा जब पहाड़ वासियों को गर्मी से निजात पाने के लिए दिल्ली की ओर कूच करना पड़ेगा। सोचिए क्या मौसम का ऐसा वीभत्स रूप हमें स्वीकार्य होगा?

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