“समर्पिता…” पति की आवाज़ उसके कानों में टकराई तो खीझ-सी उठी। पता नहीं क्यों, उसे चिढ़ जैसी लगती थी अपने इस नाम से।

“समर्पिता, देखो तो कौन आया है?” पति ने फिर पुकारा।

उनके स्वर में उसे, अनायास ही एक अनपेक्षित सी उत्कंठा महसूस हुई। वह अन्दर रसोई में चाय के लिए पानी चढ़ा रही थी और उदयन, उसका पति, बाहर बैठक में अपनी नई पेंटिंग में उलझा था।

पेंटिंग उदयन का फुर्सत का शौक़ था। जब भी वह ख़ाली होता, अपनी कूची और रंगों की दुनिया में खो जाता। पेंटिंग, जहां उसके ख़ालीपन का मनोरंजन थी, वहीं उसके जीवन की मखमली, रूपहली खूबसूरती भी थी।

वैसे, व्यवसायिक तौर पर वह एक पेशेवर और काफ़ी हद तक क़ामयाब वकील था। यही लिखा भी था, घर के बाहर लगी तख़्ती पर- उदयन, एल. एल. बी, एडवोकेट।

कभी वह सोचती – कैसा अजीब इत्तफ़ाक़ है, उदयन का व्यक्तित्व भी। पेंटिंग और वकालत जैसी बेमेल दो चीज़ों को समेटे, परस्पर विरोधी जैसे दो जीवन-छोरों को पकड़े। कहां वकालत जैसा शुद्ध मानसिक व्यायाम जहां दिल के किसी दख़ल की कोई ज़रूरत नहीं होती। फिर कहाँ पेंटिंग जैसी दिल्लगी जिसके साथ दिमाग़ को कोई दिल्लगी करने की इजाज़त नहीं होती।

कभी खीझ भी उठती वह उदयन को अपनी खूबियों को बखूबी बरकरार बनाये हुए देखकर; दोनों असंतुलित सिरों में एक सामंजस्य बनाये हुए देखकर ईर्ष्या भी होने को होती कभी तो अपने साथ उसकी तुलना करते हुए।

एक वह था, उदयन जो अपनी दोनों ही विरोधी विशेषताओं के बीच भी स्वयं का संतुलन बनाये हुए; उसको अपने औरतपन की तमाम-सी उपेक्षाओं के बावजूद अपने मर्द होने को बचाये हुए।

फिर वह थी, समर्पिता जो अपनी इकलौती और नैसर्गिक नियति, औरत होने को भी न संभाल पाई थी, न संभाल पा रही थी। उदयन के सकारात्मक सहयोग के चलते भी।

“अरे सुनो तो भाई, यहाँ आओ। देखो तो, कौन आया है?” चौंकती, कांपती किसी अविश्वसनीय खुशी भरी उदयन की आवाज़ आई।

हठात् वह चाय और प्याले उठाये ड्राइंग रूम में पहुँची।

“अरे…. रे! सुजाता तुम” हैरानी से उसकी आँखें फैल गईं। चाय के बर्तन नीचे टेबल पर टिकाकर, वह सुजाता के गले से लिपट ही तो गई, विभोर होकर। उसके सुन्न-से होते मस्तिष्क में अतीत, करवट बदल कर बोलने-डोलने लगा।

आदमी के मन की बुनावट भी कितनी अनोखी, कितनी निराली होती है मकड़ी के जाले जैसी जिसमें आदमी अपने ही बुने तानों-बानों में, खुद ही अटक-भटक जाता है।

समर्पिता के साथ भी तो काफ़ी कुछ ऐसा ही था। जब जवानी की दहलीज़ पर पैर टिकाने ही को थी कि घर में चलती बुदबुदाहट से, उसे अपनी शादी की आहट आने लगी थी।

एक दिन शाम को बात खुल ही तो गई जब उसे भी औपचारिक रूप से पूछा-बताया गया। प्रस्तावित परिवार का इतिवृत्त एवं भावी पति के चित्र साथ, माँ की प्रशंसात्मक आख्या, अनुशंसा भी थमाई गई उसे कि एकमात्र और परिणाम स्वरूप चहेती संतान होने के नाते, उससे भी सहमति की अपेक्षा की गई थी।

अभी मामला विचाराधीन ही था कि एक अप्रत्याशित और अविश्वसनीय अनहोनी ने घर के मंगलाचार को हाहाकार में बदल दिया। गर्मी की छुट्टियों में समर्पिता अपनी ननिहाल आ गई थी, कुछ चेंज का सोचकर, और भी एक दूसरा कारण रहा होगा इसके पीछे, शायद। वहाँ सुजाता, उसकी मौसी मतलब माँ की छोटी बहन का, संयोग से उसकी भी छोटी बहन जैसी होना, उम्र के नज़रिये से। और इसीलिये, उन दोनों के बीच, स्वाभाविक ही, सहेलपन के सम्बंध थे। एक अन्तरंगता, एक अण्डर स्टैंडिंग थी।

शायद इसलिये भी वह, अपने अकेलेपन और ख़ालीपन से ऊब कर, सुजाता को शेयर करने चली आई थी। वहीं उसे अपनी माँ के मरने की ख़बर लगी थी। सुनकर, सभी तो सुन्न रह गये थे। और आनन फ़ानन में ही वहां जा पहुँचे थे समर्पिता को साथ लेकर।

सुनकर, उदयन उसका मंगेतर भी वहाँ आया, सपरिवार। मातमपुर्सी में और भी कितने ही सगे-सम्बन्धी, अपने-पराये आये और चले गये। हाँ, सुजाता रुकी रह गई थी उसके पास, उसकी तसल्ली-तीमारदारी के लिये।

जैसे-तैसे, सकपकाया-सा समय का कबूतर फिर संभला और अपने पंख फैलाने-फड़फड़ाने लगा। दुनियादारी भी भला कभी रुकती है, किसी के लिये? उसे तो हर हाल में चलते ही जाना होता है। दुर्घटना के दो ही महीने पीछे, आँसू की सिसकियों के थमते ही, घर में शहनाइयां तो नहीं पर शादी के मंत्रोच्चार गूंज ही तो गये। एक सादे समारोह में, कुछ ही क़रीबियों के बीच, शादी की रस्म पूरी की गई और वह कुमारी समर्पिता से, श्रीमती समर्पिता बन गई। चली गई उदयन के साथ, अपने नये घर-संसार में।

वहाँ, हालिया हादसे का ख़्याल करते, उसकी गुमसुम लाचारी का लिहाज़ करते उदयन ने उसे छेड़ा नहीं; छुआ तक नहीं। हाँ, उसके दुखते घाव पर हमदर्दी का मरहम लगाने में, किसी तरह की कोताही-कंजूसी नहीं की गई। उसकी हर छोटी बड़ी ज़रूरत और सुख-सुविधा का विशेष ध्यान रखा गया जब तक वह वहां रही।

शायद पांचवें ही दिन पिता जी पहुँच गये, उसकी वापसी विदाई कराने। और भीगी आँखों से, अनछुई कामना लिये वह लौट आई अपने घर, पुराने घर।

घर में था ही कौन, सुजाता के सिवाय, उसकी अगवानी करने को। वह ज़रूर मिली, उसका इन्तज़ार करते। देखते ही वह बेतरह लिपट गई समर्पिता से। और समर्पिता भी, उसके गले लगी तो छलक पड़ी; हिलकी बँध गई उसकी। बड़ी देर तक, यूँ ही बिना बोले एक दूसरे को बांहों में बाँधे ही रही दोनों। दरअसल, बोलने-बताने को जब ज़्यादा ही हो जाता है तो शब्दों की पकड़ से बाहर चला जाता है। बोला नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता। अपनी-अपनी इसी मजबूरी के चलते, वे दोनों हिलकियों और हिचकियों की भाषा में ही एक दूसरे से कह-सुन रही थीं। एक ऐसी बहस जिसे सुना नहीं, सिर्फ़ समझा जाता है दोनों के बीच चल रही थी।

अगले रोज़, समर्पिता के मामा आ गये। उसकी ससुराल की खैैर-खुशी पूछते, सुनते उन्होंने सुजाता को लौटा ले जाने की भी बात उठाई। लेकिन समर्पिता ने जब कुछ दिन के लिये और सुजाता को वहीं छोड़ जाने को कहा तो वह मान भी गये और सुजाता फिर रुक गई उसके पास।

धीरे-धीरे, घर का सब यथावत् होने-चलने लगा। घर के आँगन, द्वार, मुँह, बिसूरते पर उन दोनों के बचपन जैसी शोखियां और जवानी जैसी चुहलबाज़ियां, बुढ़ऊ उदासी को मुँह चिढ़ाने लगीं। इस प्रकार, माँ की मौत से बदरंग हुई घर की रंगत और रौनक़ एक बार फिर लौटने लगी थी, उनकी शरारतों की उंगली पकड़ कर।

अभी यह चल ही रहा था कि एक बार फिर समर्पिता की निष्ठुर नियति ने पलटी खाई, और….।

घर लौटे, उसे महीने के ऊपर हो आया था। इस बीच, दो बार उदयन हो के जा चुके थे वहां से उसे ले जाने। लेकिन दोनों दफ़े, पिताजी ने थोड़ा-सा और रुक लेने को कह कर उन्हें टाल दिया था; इस बहाने के साथ कि समर्पिता को, अपनी माँ की मौत के आघात से उबरने-संभलने को थोड़ा तो समय मिलना ही चाहिये।

पर कब तक? और वह दिन आ ही गया, एक दिन। उस दिन वे दोनों सुजाता और समर्पिता, बाज़ार से कुछ ख़रीदारी करके घर लौटीं तो पाया कि घर में मेहमानों का जमावड़ा लगा था। समर्पिता के मामा-मामी और पति उदयन भी।

अहमक़-सी हुई समर्पिता को तो कुछ समझ ही न पड़ा, कुछ सूझ ही न सका, उन सबके इकट्ठे आने का कारण। रात को, पिताजी के कमरे में उन सब की बैठक हुई गर्मागर्म बहस के बीच। समर्पिता जब उन्हें खाना खा लेने को कहने वहाँ गई तो लौटते में उसकी मामी भी उठकर, उसके साथ किचन में चली आई। सुजाता वहाँ, खाना लगाने में लगी थी।

   मामी, आते ही कहने लगी, ‘सुजाता, समर्पिता तुम भी- जानती हो वहाँ बैठक में क्या कुछ चल रहा है? मैं सोचती हूँ, सारी बहस का फ़ैसला तो आख़िर तुम्हें ही करना होगा। इसलिए चाहती हूँ…।’ फिर अटकती-सी बोली, ‘ख़ैैर अभी तो छोड़ो। खाने से निपटने के बाद हम तसल्ली से बात करते हैं। क्या खाना लगाने में, मैं कुछ मदद करूँ?’

‘नहीं भाभी जी, हम हैं न दोनों। आप चलिए, हम खाना लेकर बैठक में अभी पहुँच रही हैं।’ सुजाता पहले ही बोल गई, इसके पहले कि समर्पिता कुछ कह पाती।

खाना ख़त्म हुआ तो एक बार वे लोग अपनी उसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में फिर लग गए। उन दोनों को कॉफ़ी बना लाने को कहकर फिर से अलग कर दिया गया था शायद। लेकिन थोड़ी ही देर में सुजाता की भाभी यानी कि समर्पिता की मामी भी उनके पास किचन में चली आई।

बच्चों को समझाने जैसे अन्दाज़ में उन्होंने कहना शुरू किया, ‘समर्पिता, देख रही हो कुुदरत ने तुम्हारे घर को किस चौराहे पर ला खड़ा किया है। क्या ये सब सोचने जैसा नहीं कि…. कि तुम्हारे पिताजी का क्या हो? इतना बड़ा घर है, व्यवसाय है, व्यस्तता है और ऊपर से यह अन्याय जैसा अकेलापन! इधर का, इस समस्या का भी, क्या कुछ सोच पाती हो?’

किसी प्रतिफल-प्रत्युत्तर के लिए ठहरने के बजाय, उन्होंने कहना जारी रखा, ‘जानती हो, उदयन भी इसी कारण यहाँ से दो बार लौट चुके हैं?’

‘हाँ, पर समाधान? आख़िर किया भी क्या जा सकता है, उनके, हमारे सब के दुर्भाग्य के साथ?’ समर्पिता के अबोध ने प्रतिप्रश्न उठाया तो उनका जवाब था, ‘समाधान…. हाँ हो सकता है समाधान भी। दो विकल्प हैं इसके – पहले कि तुम ही रुकी रहो यहाँ, उदयन के साथ या कि उनके बग़ैर भी। और दूसरा – कि सुजाता को रुकना होगा यहाँ, मौसी नहीं, माँ बनकर समर्पिता की।’

‘क्या….?’ सुनकर दोनों ही उछलीं; एक साथ। ‘हाँ, रुकना तो होगा ही तुम दोनों में से किसी एक को, इस घर को घर बनाए रखने को। अब किसे, यह फ़ैसला भी तुम्हीं दोनों को करना होगा।’

लगा जैसे धरती हिली हो, कोई भूचाल आया हो।

घिग्घी-सी बँध गई दोनों की क्योंकि दोनों ही बातों में से कुछ भी कर पाना, असंभव ही तो था। एक तो, लगता नहीं था कि उदयन समर्पिता को वहाँ छोड़ने अथवा खुद भी वहाँ रुक जाने को राज़ी हो पाएं। दूसरे, सुजाता और समर्पिता का सहेलपन, माँ-बेटी बनने की इजाज़त दे पाए।

हार कर वह सुजाता की ओर मुड़ी, ‘तुम क्या सोचती हो सुजाता?’ सुजाता ने सुना तो हड़बड़ा-सी गई वह। बोली, ‘मैं…. मैं माँ? समर्पिता, तुम्हारी माँ, मैं….’ उसके भरे गले में शब्द घुट-घुट कर मर गए।

तभी लगा जैसे, बाक़ी लोग भी उधर ही आ रहे हों। अत: जल्दी से कॉफ़ी-पॉट उठाए सुजाता बैठक की ओर बढ़ गई। पीछे से उसकी भाभी और समर्पिता भी।

अगली सुबह, तुरत-फुुरत शुरुआत कर दी गई थी, तैयारियों की। सुजाता भी अपने भैया, भाभी के साथ जाने को थी दुलहन बन कर लौट आने को। ताकि समर्पिता उदयन के घर जा सके।

सुजाता ने चलते-चलते सिर्फ़ इतना ही कहा था समर्पिता से, ‘तुम तो खुश हो न समर्पिता?’ पलटकर जवाब की जगह, उसने भी प्रतिप्रश्न किया था, ‘और तुम?’ इस सुलगते सवाल का जवाब, सुजाता ने नहीं; उसकी आँसू भरी सिसकियों ने दिया था, ‘मैं…. मेरा क्या समर्पिता? बच्चों की खुशी के लिए बड़ों को बलि पर चढ़ना ही होता है। ये भी, ऐसी भी सही। सुना नहीं, बाबर ने अपनी उम्र अपने मरते बेटे को उधार दे दी थी। दुआ करना मैं भी अपने सपने तुम्हारे नाम कर सकूँ।’

और उसे लगा था, हमेशा लगता रहा सही मायनों में, समर्पिता तो सुजाता ही रही। अपनी हंसी, अपनी खुशी, अपने सपने…. सब कुछ तो उसने उसे उधार दे छोड़ा।

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