-आकाश पाठक

साक्षरता से पुरुषों को फ़ायदा हुआ हो या नहीं अलबत्ता औरतों को अवश्य नुकसान हुआ है, समाज में पढ़े लिखे लोग ज़्यादा आने से महिलाएं कोई भी क़दम उठाने से पूर्व सोचने लगती हैं और यही कारण है कि शर्म, झिझक के कारण स्त्री बेलन को नज़र अंदाज़ करती जा रही है। यह एक चिंता का विषय है, साथ ही इसके (यानी कि बेलन महाशय के) उपयोग में काफ़ी गिरावट आई है। इनकी बिक्री पर भी यकायक गिरावट आने से बेलन विक्रेता दुखी हैं, गोदाम में पड़े माल पर दीमक लग रही है।

बेलन की बिक्री गम्भीर समस्या नहीं है। समस्या यह है कि आज के दौर में पति (यानी कि हसबैण्ड) बेलन की मार से कम पिटते सुनाई देते हैं। विशेषज्ञों ने रिसर्च

के दौरान पाया है कि जब से पति या प्राणनाथ को शौहर, वो, ए जी या हसबैण्ड कह कर पुकारा जाने लगा है तभी से पति या प्राणनाथ के प्राण लेने की घटना कम होने लगी है।  

यह महिलाओं के लिए बेहद चिंता का विषय है आजतक प्रायः ही देखने को मिल जाता है कि पति यानी प्राणेश्वर सिर उठा कर चलते हुए, सीना निकाले, आमतौर पर दिखाई देने लगे हैं। उनके सिर पर कहीं भी गूमढ़ (फूला हुआ चोट का निशान) नहीं दिखाई देता और न ही ‘जॉनसन एण्ड जॉनसन’ का विज्ञापन सिर या माथे पर दिखाई दे रहा है। नार अर्थात् गर्दन में लटकने वाली नारी (माफ़ करना श्रीमती जी) जहां बेलन की उपयोगिता को नज़र-अंदाज़ करती जा रही हैं, वहीं पतियों के दिलो दिमाग़ से बेलन का ख़ौफ़ शून्य में विलीन होता जा रहा है। कदाचित् यह सभी प्राणेश्वरों यानी कि ए जी, वो जी के लिए गर्व की बात है।

आज देश भर में लाखों की संख्या में मैगज़ीन छप रहे हैं। जिस में ब्यूटी कैसे संवारे, चेहरे की रंगत कैसे बनाए, घर कैसे साफ़ रखें इत्यादि कई प्रकार के लेख प्रकाशित होते हैं। सही मायने में महिलाओं के हित्त का ख़्याल किसी भी पत्रिका को नहीं है। क्या कभी भी किसी भी पत्रिका में इस गम्भीर विषय पर परिचर्चा हुई है कि पति को कैसे सुधारें, बेलन का उपयोग कैसे करें?

नहीं। जिस प्रकार बेलन की उपयोगिता कम होती जा रही है, उसी प्रकार पत्र-पत्रिकाओं के लिए एक रोचक समाचार का अंत होता जा रहा है कि फलाने पति की या उस पड़ोसी की बेलन से पत्नी द्वारा पिटाई हुई। न्यूज़ पेपर में इस प्रकार की न्यूज़ न होने से समाचार पत्र को पढ़ने में कदापि मज़ा नहीं आता है। इतिहास साक्षी है कि पूर्व ‘वाइफों’ ने हमेशा नाइफों (चाकुओं) का काम किया है। पतियों के पूर्वज भी गवाह हैं कि उन्होंने बेलन की मर्यादा को कभी कम नहीं होने दिया था। हमेशा बेलन को चोटी (जो सिर पर होती है) पर रखा है, यह कहा जाए कि रखवाया है तो ग़लत नहीं होगा। और पत्नियों ने भी कभी शिकायत का मौक़ा नहीं दिया। वह भी दिन थे बेलन महाशय के, जब हरे-भरे घर में उसके द्वारा चहल पहल रहती थी।

लेकिन दुर्भाग्य! बेलन आज सिसकता नज़र आ रहा है और हसबैण्डों का समाज ठहाके लगाता हुआ साफ़ नज़र आता है। यह स्थिति पत्नियों के लिए शर्मनाक है, अगर यही हालात रहे तो पत्नियों के हाथों में से पतियों पर व्याप्त साम्राज्य शेष नहीं रह पाएगा। पुरुष, समाज के बदलते माहौल पर प्रफुल्लित हो रहा है। इस देश की नारी जो नहीं रही बेचारी, उसे जागना होगा, उनका साम्राज्य छिनता जा रहा है, अगर आज की नारी को पतियों पर पुनः अपना ख़ौफ़ कायम रखना है तो बेलन का फिर से सहारा लेना होगा। क्योंकि समय गवाह है कि मर्द तलवार, टैंक, पिस्तौल आदि प्रकार के घातक से घातक हथियार से कभी डरा, सहमा नहीं किन्तु अगर वह ख़ौफ़ से पीला हुआ या ख़ौफ़ से नीली पैन्ट पीली हुई तो इस का पूर्ण श्रेय बेलन के हक़ में जाता है।

पत्नियों को बेलन की उपयोगिता पर गम्भीरता से सोचना पड़ेगा, ऐसा नहीं है कि पत्नियां इस बात से अंजान हैं कि उनका ख़ौफ़ कम होता जा रहा है। उन्हें इस बात का पूर्ण एहसास है कि पूर्वजों द्वारा सौंपी गई रियासत का तख्ता पलटता जा रहा है। ऐसे में घबराने की आवश्यकता नहीं है, ऐसे संवेदनशील समय में उन्हें धैर्य से काम लेना पड़ेगा, विवेक से काम लेना पड़ेगा। साथ ही पत्नियों को एक संस्था का निर्माण करना चाहिए, जिसका नाम- ‘बेलन सुधार संस्था’ होना चाहिए।

मुख्यस्तर पर इस कार्य को शुरू किया जाना चाहिए। जगह जगह पर गोष्टियां आयोजित करनी चाहिए कि बेलन को पुनः वही सम्मान कैसे दिया जाए। महिलाओं को सरकार से मांग करनी चाहिए कि उनकी जाती हुई सत्ता पर गम्भीरता से विचार करें। और उनके बेलन सुधार कार्यक्रम को सफल बनाने में सहयोग प्रदान करें।

मगर क्या पत्नियों का साम्राज्य फिर से पतियों पर कायम हो सकेगा या पति खुल्लम-खुल्ला बिना बैन्डेड में घूमते नज़र आएंगे? क्या पत्र, पत्रिकाओं में बेलन की मार-पीट की ख़बरें पाठकों को पढ़ने हेतु मिलेंगी? इन सभी सवालों को अपनी अर्धांगिनी पर छोड़ देते हैं।

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