-डॉ. राजिन्द्र कौर कालड़ा सोनिया गोखड़

बच्चे सेहतमंद समाज की नींव  होते हैं। जिस समाज का बचपन ही उपेक्षित हो वह समाज कभी भी प्रगति नहीं कर सकता। इसलिए जो देश उन्नति करना चाहता है और चाहता है कि इसके लोग जेलों में बंद न हों, मारधाड़ न हो तो उस देश की सरकार का, मां-बाप का यह पहला फ़र्ज़ बनता है कि वह अपने बच्चे के सर्वपक्षीय विकास की ओर ध्यान दें क्योंकि हर किसी की इन्सानियत उसके बचपन के विकास पर निर्भर करती है।

मेरी होविट ने कहा है- “मेरी आत्मा उस परम पिता को पूजती है जिसने हमारी धरती को बच्चों के साथ खिला दिया है।”

इसलिए भगवान् सिर्फ़ मनुष्यता को क़ायम रखने के लिए बच्चे नहीं भेजता बल्कि किसी और मनोरथ के लिए ही भेजता है। हमें निष्कामता का सबक देने के लिए तथा हमें हमदर्दी और प्यार से भरपूर करने के लिए, हमारे घरों में रोशन मुखड़े, प्रसन्न मुस्कुराहटें और प्यारे कोमल दिलों की रौनक़ के लिए।

बच्चा खुशी की तलाश में रहता है। अपने बच्चे की खुशी ढूंढने में उसकी मदद करें। बच्चे की उम्र के ख़ास समय यह हैं जिन पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है।

एक से तीन साल:- यह वह उम्र है जिसमें बच्चे की ज़िंदगी की नींव रखी जाती है। उसने किस क़िस्म का इंसान बनना है इसकी बुनियाद लगभग बन चुकी होती है।

बच्चा अपने पैरों पर खड़ा होने लगता है तो वह दुनिया को जानना चाहता है। यह उसकी फ़ितरत बन जाती है कि वह हर एक चीज़ को पकड़ता है, सूंघता है, मुंह में डालता है। इस वक़्त माता-पिता की तरफ़ से मनाही शुरू हो जाती है। समझदार माता-पिता वे हैं जो ऐसा वातावरण बना देते हैं कि मनाही की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। बच्चे को मना भी करना पड़ता है मगर ज़रूरी नहीं कि बच्चे को डांट कर या थप्पड़ लगा कर ही मना किया जाए। इस काम के लिए ऐसी समझदार तदबीर सोचें कि बच्चा बिना दु:खी हुए खुद ही वह काम न करे जिससे आप उसको मना कर रहे हो।

हम किसी बड़े बुज़ुर्ग का दिल रखने के लिए सौ बहाने बनाते हैं पर बच्चे का दिल एक खिलौने की तरह तोड़ देते हैं। याद रखें प्रत्येक डांट, घुड़की, थप्पड़, हर बेइन्साफ़ी बच्चे की ज़िंदगी के साज़ की एक तार तोड़ती जाती है। और फिर यह तार सुरों भरा संगीत नहीं निकाल सकती। याद रखो इस उम्र में बच्चे के चाल-चलन की नींवें रखी जाती हैं। इसलिए माता-पिता को चौकन्ने हो जाना चाहिए कि उनके घर एक बच्चा नहीं बल्कि दुनिया पल रही है।

तीन से छ: साल:– यह बच्चे की खुदग़र्ज़ी का समय होता है इसमें बच्चे को उसकी खुदग़र्ज़ी के बारे में शर्मिंदा न करें। हो सकता है जो कुछ हमें मूर्खता लगती है, वह बच्चे के लिए बड़ा अर्थपूर्ण हो। बच्चे को छ: साल से पहले, डांटना, शर्मसार करना, उसका निरादर करना, सज़ा देना, छोटे से पौधे की टहानियां तोड़ने के बराबर होता है। यह पेड़ पूरी तरह से फल-फूल नहीं सकता। यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारा बच्चा ज़िंदगी को जीत कर क़ामयाब बने उसको मनाही के बिना खूबसूरती और खुशियों में पालो। मजबूर करके किसी भी मर्यादा की पंजाली को उसके गले में न डालो। आज्ञा देने से बच्चे अच्छे नहीं बनते बल्कि घर में अच्छी क़द्रों-क़ीमतों वाला माहौल पैदा करने से ही वे अच्छे और बहादुर बन सकते हैं। माता-पिता से हुआ निरादर, कठोर ज़ुबान, माता-पिता का डर और हुकूमत ही बच्चों में हरेक बुराई का बीज बोतेे हैं। माता-पिता इन तीन सालों में ही बच्चों को बिगाड़ या सुधार सकते हैं। हरेक बच्चा प्यार की तलाश करता है। यदि यह उसके घर में नही मिलता तो वह इसकी बाहर तलाश करेगा और फिर हो सकता है कि वह बुरी संगत में पड़ कर बिगड़ जाए। इसलिए बच्चों की प्राकृतिक ख्वाहिशों को समझ कर उसको वैसी ही फ़िक्र के साथ पूरा करो जैसे कि उसकी खुराक का इंतज़ाम करते हो। थोड़ी बहुत भूख से उसका कुछ ख़ास नहीं बिगड़ता परन्तु उसकी ख्वाहिशों में रुकावट, उसकी सभी तरह की सोचने की क्रिया में रुकावट डाल देती है। यदि माता-पिता अपने बच्चों को पहले छःसाल खुश रख सकें तो ज़िंदगी के बहुत से मुश्किल सवाल हल हो जाएंगे।

छ: से दस साल:- यह वह समय होता है जब बच्चे अपनी ज़िंदगी की कविता बनाते हैं। यही समय है जब माता-पिता कई सुन्दर कल्पनाओं और कई सुन्दर चित्रों को बालमन में बड़ी आसानी से भर सकते हैं और यह चित्र उनकी दुनिया को सुन्दर बनाने में मदद कर सकते हैं। बच्चों की दुनियां उतनी ही सुन्दर हो जितना बड़ा और सुन्दर ख़ाका आप इन छ: से दस साल की उम्र तक के बच्चों के मन में बना सकते हो। शेष उम्र तो बच्चेे इस ख़ाके में रंग ही भरेंगे। इसमेें बच्चे को नाकाम बना देने वाली दो बातें होती हैं:- एक डर और दूसरा जो बड़े कहें वही करने की मजबूरी। कई माता-पिता अपना सारा ज़ोर इस बात पर ही लगा देते हैं कि बच्चे वही करें जो वे कहें। इस तरह से बच्चे ज़िद्दी बन जाते हैं। प्रत्येक बात पर उन्हें न ही कहने लगते हैं। छोटी-मोटी चोरी भी करते है, झूठ बोलते हैं। अपने साथियों से अच्छा व्यवहार नहीं करते हैं, अकेले रहना पसंद करते हैं, यह सभी निशानियां माता-पिता के लिए ख़तरे की सूचक हैं। माता-पिता को समझना चाहिए कि उनके लालन-पालन में कहीं कोई कमी है, न कि बच्चों में दोष निकालना चाहिए। बच्चों से ग़ुस्सा होने की बजाय इन बातों के कारण ढूंढ कर हल करने का प्रयत्न करना चाहिए। दूूसरी बात बच्चे की ज़िंदगी को डर रूपी कीड़ा न लगने दें। उनकी ज़िंदगी में से डर को कम करें। उनका ग़ुस्सा कम होगा और प्यार की भावना बढ़ेगी। बच्चे को निराशता से बचाएं। बच्चों को मर्यादा का सबक सिखाने की इच्छा रखने वाले माता-पिता के लिए पहले उसूल यह हैं कि बच्चों के सामने कोई ऐसी बात न करें जो आप खुद बच्चों में देखना पसंद नही करते। कभी भी बच्चों के सामने नौकरों को गालियां न दें। कभी भी घरेलू बात के लिए बच्चों से झूठ न कहलाएं। जिस तरह तितलियों का रंग वैसा ही होता है जिस तरह के रंगों के फूलों पर वे बैठती हैं, उसी प्रकार बच्चों का व्यक्तित्व भी उसी तरह का होगा जिस तरह उसके घर का माहौल होगा। दूसरी बात यह है कि बच्चों को अधिक कोसना नहीं चाहिए। बच्चों से दवाई गिर जाती है, शीशा टूट जाता है तो बहुत ज़्यादा लाल-पीला होने की ज़रूरत नहीं है। बल्कि मौक़े के अनुसार ग़लती समझाकर एक कोमल-सा व्याख्यान दें ताकि बच्चे आगे से स्वयं ही लापरवाही न करें। और बिलकुल यह एहसास न होने दें कि वस्तु के टूटने से आपका बहुत नुक़सान हो गया है। बल्कि बच्चों के मन में यह होना चाहिए कि माता-पिता को वस्तु का इतना फ़िक्र नहीं जितना बच्चेे की आदत बिगड़ने का। समय अनुसार बच्चों को अच्छी शख़्सियतों के बारे में ज्ञान दें।

दस से तेरह साल :- यह भाईचारिक समय है, इसमेें बच्चे दोस्त बनाते हैं। इस समय बच्चों के हर वक़्त गार्ड बने रहने से बेहतर है कि उनका योग्य मार्गदर्शन किया जाए और समझदार समझौता करवाया जाए। ताकि वे दोस्तों की परख करने में माहिर बन सकें और किसी के साथ अच्छी तरह निभा भी सकें। बच्चों के लिए तीन बातें ज़रूरी हैं :-दृष्टि, कल्पना और दलेरी। दृष्टि का अर्थ है कि बच्चे असलियत को पहचानने की शक्ति रखते हों। कल्पना का अर्थ है कि वो भविष्य के लिए सपने संजो सकते हों। दलेरी का अर्थ है कि वे अपने सपनों को पूरा करने के लिए हिम्मत रखते हों।

बच्चों के दिल में प्रशंसा की भी ख्वाहिश होती है। इसलिए बच्चों की उनके कामों के लिए उपयुक्त प्रशंसा भी करनी चाहिए। नहीं तो बच्चा प्रशंसा की भूख मिटाने के लिए कोई अन्य रास्ता तलाश करेगा और फिर हो सकता है कि वह अपने रास्ते से भटक जाए।

तेरह से अठारह साल :- यह समय अनोखा ही होता है। संसार का रंग बदलता है और एक नई ज़िंदगी की शुरुआत हो रही होती है। इस समय बच्चों में बड़े विचित्र स्वभाव पैदा हो जाते हैं। कभी-कभार वो बहुत चुपचाप रहने लगते हैं। इस समय उनको ग़लत नहीं समझना चाहिए बल्कि समझदार माता-पिता अपने बच्चों को विश्वास में लेकर उनके अन्दर उठ रहे प्रश्नों के मुनासिब उत्तर देते हैं। अठरह साल तक के बच्चों को अपनी समझदार और शुभेच्छुक आंखों में रख कर पूरी खुदमुख़्तारी ले सकने के योग्य बना देना चाहिए। बच्चों का हर क़सूर माफ़ किए जाने योग्य समझना चाहिए। बच्चों को विश्वास हो कि हर मुश्किल में माता-पिता उनके साथ हैं और रहेंगे। बच्चों को पूर्ण हक, पूर्ण खुशी के साथ दिए जाएं कि जिस तरह से वेे चाहते हैं ज़िंदगी व्यतीत कर सकते हैं।

आज सबसे बड़ा भाईचारिक और राजनैतिक कार्य बच्चों की अच्छी परवरिश है। अच्छी परवरिश का अर्थ सिर्फ़ अच्छी खुराक, अच्छी पोशाक और बेहतर ट्यूशनें ही नहीं है। असली परवरिश उनकी ज़िंदगी में से डर निकालना, उनको तजुर्बे करने की छूट देनी इत्यादि है ताकि हमारा जीवन खुशियों से भरा व्यतीत हो।

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