-सुकीर्ति भटनागर

मन्दिर से लौट घर का दरवाज़ा खोल ही रही थी कि फ़ोन की घंटी सुनाई दी। जया का फ़ोन था। बता रही थी कि सोमेश को दिल्ली में अच्छी नौकरी मिल गई है और इसी महीने के अंत तक वह परिवार सहित दिल्ली चला जाएगा। फ़ोन सुनने के बाद सर्दियों की ठिठुरन भरी ठंड से बचने के लिए मैं आंगन में पड़े तख़्त पर जा लेटी और पत्रिका पढ़ने का प्रयास करने लगी किन्तु ध्यान विगत पर केन्द्रित हो गया।

जया और मेरी घनिष्टता बहुत पुरानी है। हम दोनों बहनों से भी बढ़कर हैं। आयु में उससे बड़ी होने के कारण वह मुझे दीदी कहकर बुलाती ही नहीं बल्कि बड़ी बहन जैसा सम्मान भी देती है। लगभग तीन वर्ष पूर्व उसके बेटे सोमेश की शादी पर गई थी। वहां अन्य सम्बंधियों के होते हुए भी वह हर काम मुझी से पूछ कर करती रही। विवाह के बाद जब सभी मेहमान विदा हो गए तो सोमेश और महक भी हनीमून पर चले गए। तब घर की साफ़-सफ़ाई और रख रखाव के बाद मैं और जया आराम से बैठ कर ढेरों बातें किया करतीं। एक सप्ताह पश्चात् नवविवाहितों के हनीमून से लौटने पर सारा घर फिर से किलकने-महकने लगा था, किन्तु दो दिन बाद ही कुछ ऐसा घटित हुआ कि महक के फूल से चेहरे पर उदासी की परछाइयां घिर आईं।

उस दिन महक के जीजा जी का फ़ोन आ गया जो रिश्ते में जया का भांजा भी लगता है इसलिए कोई औपचारिकता न होने के कारण आपस में हंसी मज़ाक भी चलता रहता है। महक से बात करने के उपरान्त वह जया से हंसते हुए बोला, “और फिर मामी जी, क्या हाल चाल हैं? मज़े से तो हैं न, महक आपकी कुछ सेवा भी करती है या नहीं?” इस पर उसकी चुहलबाज़ी में पूछे प्रश्न के उत्तर में जया भी अपने सरल स्वभाव के अनुरूप कह गई, “अरे भई, इतनी ही चिन्ता है मामी की तो देख सुन के देते न लड़की।”

यह सुन सहज बैठी महक एकाएक अपने कमरे में चली गई और फूट-फूट कर रोने लगी। बाद में सोमेश ने मुझे बताया कि वह मां की इस बात पर नाराज़ हो गई है कि उन्होंने उसके जीजा के सामने यह कह कर कि ‘लड़की देख सुन कर देते न’ उसका अपमान कर दिया है। आख़िर उन्हें ऐसा कहने की आवश्यकता ही क्या थी?

हंसी-हंसी में कही गई यह बात महक को इतना परेशान कर देगी इस बात का अनुमान नहीं था जया को, तब मैंने उसे समझाया कि नई नवेली बहू और उसके रिश्तेदारों से सदैव सोच समझ कर ही बात करनी चाहिए क्योंकि एक दूसरे को जानने, समझने में तो बहुत समय लग जाता है, फिर महक को तो इस घर में आए अभी महीना भी नहीं हुआ। इस पर जया ने मुझे आश्वासन दिया कि भविष्य में वह इस बात का ध्यान रखेगी कि महक से किसी प्रकार का मज़ाक न करे क्योंकि वह इसे सहन नहीं कर पाती। इस घटना के दो-तीन दिन बाद ही मैं घर लौट गई पर मन जया की ओर ही लगा रहता और उसकी बहू का वह नाराज़गी भरा चेहरा मुझे अशान्त कर देता।

सोमेश के विवाह के कुछ समय बाद ही फिर जया से मिलना हुआ। उन्हीं दिनों महक को थोड़ा बहुत जानने का अवसर मिला। यूं तो घर गृहस्थी के अधिकतर काम जया स्वयं ही करती थी ताकि बहू पर किसी भी काम का अतिरिक्त बोझ न पड़े, फिर भी महक घर के कामों में जया का हाथ बटाती रहती। सुघड़, सयानी होने के साथ-साथ कलात्मकता थी उसके हाथों में, कढ़ाई, बुनाई में प्रवीण, घर की साज-सज्जा में दक्ष।

सोमेश उन दिनों घर से प्रायः पचास मील की दूरी तय कर के नौकरी पर जाता था और शाम को सात-आठ बज जाते थे उसे घर लौटने में, सोमेश के पिता भी काम पर चले जाते। इस बीच महक और जया आपस में ही हंस बोल कर अपना समय बिताती। मुझसे मिल कर भी बहुत प्रसन्न हुई थी महक। चार-पांच दिन बाद जब मैं लौटने को हुई तो अपने हाथ से काढ़ी गई एक सुन्दर चादर मुझे देते हुए उसने कहा,

“मौसी जी, यह आपके लिए है।”

विभोर हो गई थी मैं वह चादर लेकर, कितने हुनर और सलीक़े वाली है यह लड़की, मैंने सोचा, और कुल्लू से लाई एक लाल रंग की शाॅल उसे थमा दी।

“मेरी बेटी नीलिमा की पसन्द है, कह रही थी गोरी-गोरी महक भाभी पर खूब खिलेगी यह शाॅल”

मेरी बात सुन एक लजीली मुस्कान उसके चेहरे पर तिर आई और वह बोली, “मौसी जी अगली बार अधिक दिनों के लिए आइएगा। इतने कम दिनों में तो हमारा मन ही नहीं भरा।”

“अब तुम्हारी बारी है महक, शादी के बाद एक बार भी नहीं आई हमारे पास। जानती हूं सोमेश को काम बहुत है फिर भी कोशिश तो करो आने की, बच्चे भी तुम दोनों को बहुत याद करते हैं।”

“जी, मौसी जी,” कहते हुए वह मेरे पैरों में झुक गई। इस बार घर लौटने पर मन शान्त रहा और महक एक सुशील प्रेममयी बहू के रूप में मेरे मन में बस गई, पर शीघ्र ही मेरा यह भ्रम टूट गया।

एक दिन जया के फ़ोन से पता चला कि महक मां बनने वाली है। अत्यधिक प्रसन्नता हुई थी यह जान कर। फिर कुछ महीनों बाद गोद भराई की रस्म पर वहां जाना हुआ। सभी प्रेमपूर्वक मिले किन्तु इस बार महक का व्यवहार बदला-बदला था, शुष्क और नीरस। मैं सोचती रही कि शायद यह परिवर्तन गर्भावस्था के कारण है क्योंकि ऐसे समय में मां को कई प्रकार के शारीरिक और मानसिक बदलाव झेलने पड़ते हैं। आने वाले शिशु की प्रतीक्षा की ऊहा-पोह तथा बच्चे के जन्म के बाद की समस्याओं का अनचाहा डर होने वाली मां के मन मस्तिष्क पर हर समय छाया रहता है और इन्हीं कारणों से कई बार मानसिक तनाव भी हो जाता है। पर इतना भी क्या कि किसी से सीधे मुंह बात ही न करो, जब कि सास हर समय उसकी सेवा में लगी रहती है। उसके खान-पान का, उस की हर सुविधा और आराम का उसे ध्यान रहता है फिर भी बहू रानी के माथे के बल ही नहीं हटते। इस बार मन नहीं लग रहा था वहां, इसलिए गोद भराई की रस्म के बाद मैं लौट जाना चाहती थी पर जया के अनुरोध पर कुछ दिन और रुकना पड़ा।

उन दिनों महक अधिक काम नहीं कर पाती थी, इसलिए सुबह-शाम की सैर के अतिरिक्त टी.वी देखना, पत्रिकाएं पढ़ना और अधिक से अधिक आराम करना ही उसकी दिनचर्या थी। एक दिन शाम को सैर करते समय उसने जया से कहा, “मम्मी, आज मेरा परीक्षण करने के बाद डॉ. ने कहा कि सब ठीक है, चाहो तो पोंछा लगाओ, कपड़े धोओ।”

“अरे इस हाल में पोंछा कहां लगता है, हां इतना अवश्य किया करो कि टी.वी देखते समय बीच-बीच में उठकर बाहर आंगन में फैले कपड़े उठा कर उनकी तह लगा दिया करो, इस तरह थोड़ा चलना फिरना हो जाता है,” प्रत्युत्तर में जया ने कहा था।

पर इतना सुनते ही वह ग़ुस्से से भर उठी और बोली, “तो क्या मैं काम नहीं करती, मैं क्या बैठी रहती हूं हर समय, आपको तो यही लगता है कि सारा दिन आराम ही करती हूं मैं।”

उसे लगा था जया काम न करने का ताना दे रही है। तब जया के मुंह से भी निकल गया, “बड़ी लड़ाकी हो गई है तू महक, जो मुझसे इस तरह बहस कर रही है। मेरा तात्पर्य तेरे काम करने या ना करने से नहीं था, मैं तो केवल यह कहना चाह रही थी कि हर समय कुर्सी पर बैठे-बैठे टी.वी देखते रहने से पेट घुटा रहता है जो तुम्हारे अजन्मे बच्चे के लिए ठीक नहीं। इसलिए बीच-बीच में उठकर अन्दर-बाहर चली जाओ तो इसमें बुराई ही क्या है?”

पर महक कुछ भी सुनने, समझने को तैयार नहीं थी। अब तो जया द्वारा कहे एक ‘लड़ाकी’ शब्द ने आग में घी का काम किया था। इस कारण पूरी सैर किए बिना ही क्रोध से पैर पटकती महक घर लौट आई और सोमेश से जाने क्या कुछ कहने लगी।

जया के पति भी उसके व्यवहार से हतप्रभ थे। पूरी बात जानने के बाद उन्होंने जया से कहा, “आख़िर ऐसा क्या कह दिया तुमने कि इतना उत्तेजित हो रही है, और अगर ‘लड़ाकी’ शब्द तुम्हारे मुंह से निकल भी गया तो इसमें झूठ क्या है, क्या यही तरीक़ा है बहू-बेटियों का मां से बात करने का, जब देखो तुमसे उलझी रहती है। अब तुम्हारे पास है तो तुम्हीं अच्छा बुरा समझाओगी न उसे। यदि यही बात उसकी अपनी मां, बहन कहतीं तो क्या तब भी ऐसा ही रोना धोना मचाती। ऐसी लड़कियों को तो कृष्णा भाभी और अलका मौसी जैसी दबंग और तीखे स्वभाव वाली सासें ही मिलनी चाहिए, तभी ठीक रहती हैं ये। पर तुम ने तो अपने लाड़ प्यार से उसे सिर पर चढ़ा लिया और वह तुम पर हावी होती चली गई।”

लॉबी में बैठी सुनती रही थी मैं उनकी बातें और अगाध पीड़ा से भर गया था मेरा मन, जया की स्थिति के विषय में सोचकर। यह सच है कि कुछ लड़कियों के मन में बचपन से ही ऐसे संस्कार डाल दिए जाते हैं कि ससुराल में दब कर मत रहना, नहीं तो ननदें, जेठानियां और सास जीना हराम कर देंगी, क्योंकि मायका, मायका होता है और ससुराल? ससुराल पर यह आवश्यक तो नहीं कि सभी ससुराल वाले बुरे ही हों। सौ बुरी प्रकृति के लोगों में दस अच्छी प्रकृति के लोग भी तो हो सकते हैं, किन्तु अपने पूर्वाग्रहों के कारण कुछ नव विवाहिताएं ससुराल वालों से सामंजस्य स्थापित करने की चेष्टा ही नहीं करती और अच्छे बुरे की पहचान किए बिना सब को एक ही कसौटी पर परखते हुए स्वयं के जीवन को अवसादपूर्ण बना लेती हैं। काश! जीवन एक सहज नदी समान होता, जहां केवल प्रेम, विश्वास एवं अपनत्व की धाराएं ही संचरित होती। तभी हर ओर सुख, शान्ति की अपूर्व छटा महकती, सरसती दिखाई देती ऐसे ही विचारों में डूबी करवटें बदलती रही थी रात भर, इसलिए सुबह आंख देर से खुली।

शाम की गाड़ी से मुझे वापिस लौटना था इसलिए मौक़ा देख सोमेश से महक के ऐसे बर्ताव का कारण जानना चाहा। सोमेश मुझे सगी मौसी से भी बढ़कर मानता है, यहां तक कि जो बात वह अपने माता-पिता से नहीं कह सकता मुझसे कह लेता है। इसलिए उसने तुरन्त मेरे सामने अपना दिल खोल कर रख दिया, मानो इसी क्षण की प्रतीक्षा थी उसे। उसने अपने विवाह के बाद की कई ऐसी बातें मुझे बताई जो साधारण होते हुए भी महक के मन में गांठ बन पनपने लगी थीं और बीच-बीच में आक्रोश बन फूट पड़ती थीं। स्तब्ध रह गई थी मैं उन छोटी-छोटी बातों के विषय में जान कर, जो सर्वथा अर्थहीन थीं और जिन्हें लेकर तिल का पहाड़ बनाने की कोशिश की थी महक ने। मैं चाहती थी कि जया को वे बातें बताऊं पर सोमेश ने यह कहकर मना कर दिया कि वह अपनी मां को अच्छी तरह जानता है जो कभी भी किसी का दिल दुखाने और ताना मारने जैसी बातें नहीं कर सकती। यह तो महक के मन का भ्रम है जो मां द्वारा कही हर बात का विपरीत अर्थ निकाल उन्हें ही दोषी ठहराती है, फिर मां से इन सब बातों की चर्चा करने का क्या लाभ। आनंदातिरेक से भर उठी थी मैं एक बेटे का अपनी मां के प्रति ऐसा अटूट विश्वास देख। सरल, सादा सोमेश आन्तरिक रूप से इतना गम्भीर और परिपक्व होगा यह मैं पहले नहीं जानती थी। इसलिए उसी की बात मान जया से बिना कुछ कहे वापिस लौट गई। अब तो बहुत समय हो चुका था जया के पास गए। महक के प्रसव काल में भी नहीं जा पाई क्योंकि उन्हीं दिनों मेरी शल्य चिकित्सा हुई थी। जया के पौत्र के शुभागमन के उपलक्ष्य में रखे गए समारोह में जाने का बहुत मन था किन्तु स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया। मेरे पति और छोटी बेटी नीरा ही जा पाए थे।

जाने कब से अतीत में खोई थी कि समय का पता ही नहीं चला। अब तक मीठी धूप मेरा साथ छोड़ आंगन के एक कोने में सिमट गई थी और ढलते सूरज ने दिया बाती करने का संकेत दे दिया था। इसलिए बाहर की चीज़ें समेट मैं अन्दर आ गई। रात को भोजनोपरान्त जब पतिदेव से सोमेश की नौकरी के विषय में बात की तो वह भी प्रसन्न हो गए और कहने लगे कि पांच दिन बाद ही उन्हें काॅन्फ्रैंस में भाग लेने आगरा जाना है तब मुझे जया के पास छोड़ते हुए आगे निकल जाएंगे और वापसी पर घर लेते आएंगे। खिल उठा मेरा अंतर्मन उनकी बात सुन और मैं वहां जाने की तैयारियों में व्यस्त हो गई। पूर्व सूचना दिए बिना ही जब हम वहां पहुंच गए तो सबकी खुशी दुगनी हो गई।

“मौसा जी आपने तो कमाल कर दिया, सच, विश्वास ही नहीं हो रहा कि आप और मौसी मेरे सामने खड़े हैं।” मेरे पति के पैर छूता सोमेश बोला तो उसे गले से लगा इन्होंने कहा, “साहबज़ादे को बधाई नहीं देनी थी क्या, इतनी अच्छी नौकरी मिल गई है। कहो कब जा रहे हो दिल्ली?”

“अभी कल तो मैं और पापा घर का सारा सामान लेकर जा रहे हैं, बाद में महक को ले जाऊंगा।” सोमेश ने हमें ड्राइंग रूम में बैठाते हुए कहा।

“दीदी, आपके आने से मानसिक स्तर पर अपने आपको संयत महसूस करने लगी हूं, नहीं तो मन बहुत उदास हो रहा था,” मेरा हाथ थाम जया बोली तो मैंने प्यार से उसके कंधे थपथपाए और खोजती निगाहों से इधर-उधर देखते हुए उससे पूछा, “महक नज़र नहीं आ रही, कहीं गई है क्या?”

“जाना कहां है दीदी अपने गुड्डे राजा को नहला रही है। आओ तुम्हें उन महाशय से मिलाऊं।”

इतना कह वह मुझे महक के कमरे में ले गई। तौलिए में लिपटा गोरा, चिकना, घुंघराले बालों वाला मुन्ना बड़ा प्यारा लग रहा था। उसे तैयार कर महक चाय बना लाई। नाश्ते के बाद उन सबके लिए लाए उपहार मैंने जया को थमा दिए। मेरे पति मुन्ने राजा की तस्वीर लेने को आतुर थे। जैसे ही गोद में उठा कर मैंने सोने की चेन उसके गले में डाली पतिदेव ने झट से उस पल को कैमरे में क़ैद कर लिया। इसके बाद सबकी तस्वीरें ली गई। फिर देर रात तक हंसी खुशी से महकता रहा घर आंगन, पर महक बुझी-बुझी ही रही।

आज सुबह ही सोमेश और उसके पिता के दिल्ली चले जाने के बाद महक गुमसुम-सी अपने बच्चे सहित कमरे में जा कर लेट गई। मेरे पति भी आगरा जा चुके थे। ख़ाली-ख़ाली सा घर मन को कचोटने लगा तो जया मुझे साथ ले घर के सामने बने पार्क की ओर चल दी और एक बैंच पर बैठ भरे गले से बोली,

“दीदी, मैं कभी नहीं चाहती थी कि सोमेश हम से दूर चला जाए। वह स्वयं भी नहीं जाना चाहता था, पर उसके पिता नहीं माने, कहने लगे यह नौकरी पहले वाली से बहुत अच्छी है और आय भी अधिक है, फिर आगे चल कर प्रगति के अवसर भी बहुत मिलेंगे।”

“ठीक ही तो कहते हैं तुम्हारे पति। बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तो उन्हें बांध कर नहीं रखा जा सकता और न ही रखना चाहिए। वे तो पक्षियों की तरह होते हैं जया, इसलिए उन्हें खुले आकाश का विस्तार दिखाते हुए लम्बी उड़ान भरने का मौक़ा देना चाहिए। इस तरह बाहर की दुनियां देख अच्छे-बुरे की पहचान करने में सक्षम हो पाते हैं वे।”

“पर दीदी, यहां घर की सुविधाएं हैं, आराम है और हमारे साथ रह कर सोमेश का ख़र्चा भी कम है। अकेले रह कर तो उस पर बहुत बोझ पड़ जाएगा। बहुत सीधा और भोला है मेरा सोमेश।”

“यह मत भूलो जया कि नदी में उतरे बिना कोई भी तैरना नहीं सीख सकता। जब सिर पर पड़ती है न तो स्वयं हर चीज़ का लेखा-जोखा करना आ जाता है। हम लोगों ने भी तो इसी तरह धीरे-धीरे अपनी गृहस्थी संभालनी सीखी थी, भूल गई क्या? अच्छा महक के बारे में बताओ वह क्या चाहती है?”

महक की बात आते ही जया देर तक शून्य में निहारती रही फिर बुझे स्वर में बोली, “उसके बारे में क्या बताऊं दीदी। विवाह के बाद के कुछ महीनों के अतिरिक्त उसे कभी प्रसन्न नहीं देखा। हर समय उखड़ी-उखड़ी सी रहती है। मुझसे तो ढंग से बात ही नहीं करती और कभी-कभी तो मेरी बात का उत्तर तक नहीं देती, मैं तो आज तक समझ ही नहीं पाई कि उसे परेशानी क्या है?”

“जया, आज जब बात चली ही है तो महक के बारे में तुमसे कुछ कहना चाहूंगी, क्योंकि तुम्हें उसकी नाराज़गी तो दिखाई देती है किन्तु उस नाराज़गी के पीछे छिपे कारणों से तुम अनजान हो। आज से पहले मैंने कभी भी इस विषय पर तुमसे बात नहीं की किन्तु आज महक के वास्तविक रूप से तुम्हें परिचित करवाना मेरा कर्त्तव्य है। इसका यह अर्थ नहीं कि मैं उसकी चुगली या बुराई कर रही हूं, यह तो एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है जिस पर प्रकाश डालने की चेष्टा की है मैंने।”

“अब पहेलियां मत बुझाओ दीदी और साफ़-साफ़ कह डालो। जो भी कहना है।” जया की उत्सुकता देख मैंने सोमेश द्वारा बताई ऐसी अनेकों बातें उसे बतानी शुरू की, जिन्हें सुन वह ठगी-सी बैठी रह गई।

“जया तुम्हें याद होगा एक दिन तुमने बातों ही बातों में मुझसे कहा था कि जिस इन्स्टीट्यूट में सोमेश नौकरी करता है वहां दोपहर का खाना बहुत अच्छा मिलता है। महक जो उस समय वहीं बैठी थी उसे तुम्हारा यह कहना बहुत बुरा लगा और उसने सोमेश से कहा, इसका मतलब तो यह हुआ न कि मैं अच्छा खाना नहीं बनाती, बाहर का खाना मेरे बनाए खाने से ज़्यादा अच्छा होता है।”

ऐसे ही एक दिन किसी सम्बन्धी की बेटी की बात छिड़ गई और तुमने मुझसे कहा, “दीदी, बड़ी मेहनती और सुघड़ है उनकी बेटी।” इस पर महक सोमेश से बोली, “बस एक मैं ही सुघड़ और मेहनती नहीं हूं मां को तो बस यही लगता रहता है।”

एक और बात याद आ रही है। एक दिन सोमेश का एक मित्र विवाह के बाद पहली बार तुम्हारे घर आया, तब बहुत आवभगत की थी तुमने उसकी और उनके जाने के बाद सोमेश से बोली थी, “भई सोमेश, तुम्हारे मित्र की पत्नी तो बहुत सुन्दर है।”

यह सुनते ही भड़क गई थी महक और तुम्हारे कमरे से जाते ही सोमेश पर बरस पड़ी “इतनी ही सुन्दर है वह तो उसी से कर देती न मां आपकी शादी, मुझसे क्यों की।”

“तब सोमेश ने उससे कहा था कि भले ही उसका विवाह उसकी अपनी इच्छानुसार हुआ हो, पर इसके लिए अपने माता-पिता का भी पूरा समर्थन उसे प्राप्त था। ऐसी और भी बहुत-सी बातें हैं जिन्हें ले उसने बेकार ही उलझनें पैदा की हैं। उसका तो यहां तक मानना है जया कि मैं और तुम्हारी ननद आभा तुम्हें हर समय उसके विरुद्ध भड़काती हैं। पर क्या तुम्हारी उम्र दूसरों के बहकावे में आने की है?”

“दीदी, मैंने तो आज तक सोमेश से महक की किसी भी बात को लेकर कोई शिक़ायत नहीं की और जो बातें आपने बताई हैं मेरे विचार से तो इनमें बुरा लगने जैसा कुछ है ही नहीं, ये तो आम बातें हैं जिन्हें कोई भी किसी के लिए कर सकता है।”

“पर महक तो ऐसा नहीं समझती न। उसे लगता है तुम हर बात उसी को निशाना बनाकर करती हो, तभी तो सोमेश से सदैव तुम्हारे बारे में अनर्गल बातें करती रही और किसी न किसी बहाने तुम्हारी साधारण से साधारण बात का बुरा मानती रही।”

“दीदी, आज से पहले मैं नहीं जानती थी कि महक के मन में मेरे प्रति आक्रोश की ऐसी भीषण ज्वाला धधक रही है। आहत हो गया है मेरा अन्तर्मन यह सब जान कर।”

इतना कह मेरे कंधे पर सिर रख बिलख पड़ी जया क्योंकि आदर्शों के जिन फूलों से उसने अपनी गृहस्थी सजाई थी उसमें यूं कंटीले झाड़ उग आएंगे इसकी आशा न थी उसे, किन्तु जीवन का यथार्थ बहुत कुछ देखने सुनने को बाध्य कर देता है, यही सोच मैं उसे समझाते हुए बोली, “देखो जया, हर परिवार अपने बच्चों को अलग संस्कार देता है। हर परिवार का अपना अलग परिवेश होता है और महक जिस परिवार से आई है वहां का परिवेश यहां से भिन्न है। फिर भी यदि वह चाहती तो स्वयं को इस परिवेश के अनुरूप ढाल सकती थी जिसकी उसने कभी चेष्टा ही नहीं की। यह तो अच्छी बात है कि सोमेश तुम्हारे कुछ न कहने के बावजूद तुम्हें अच्छी तरह समझता है और तुम्हारी सच्चाई पर उसे विश्वास है।”

“पर दीदी, तुम्हीं कहो इस सारे प्रकरण में मेरा दोष क्या है?”

“दोष किसी का भी हो जया। किसी न किसी कारण से घर की सुख-शान्ति भंग हुई, दिलों की दूरियां बढ़ीं, और हर तरह तुम एक बुरी सास ही साबित हुई।”

“बुरी ही सही, पर इतनी भी बुरी तो नहीं कि एक बहू द्वारा ऐसा अभद्र व्यवहार हो।”

“किसी के समझने से न तो कोई अच्छा बन जाता है और न ही बुरा। वह तो जैसा है वैसा ही रहेगा। फिर तुम उसकी परवाह क्यों करती हो जया। तुमसे जितना बन पड़ा तुमने उसके लिए किया, अपना कर्त्तव्य निभाया। इस बात की तुम्हें प्रसन्नता भी है और मन में शान्ति भी। सोचना तो महक को चाहिए कि एक बहू के रूप में उसने तुम्हारे परिवार के लिए क्या किया, परिवार के सभी सदस्यों को रिश्तों के अनुसार कितना प्यार और सम्मान दिया। केवल गृहस्थी के काम निपटा लेने से ही तो बहू-बेटियों का दायित्व पूरा नहीं हो जाता।” मर्यादा, शालीनता, सेवापरायणता, आपसी प्रेम, परस्पर सहयोग और त्याग की भावना ही सब को एक सूत्र में बांध कर रख सकती है। इसके विपरीत जहां केवल निजी स्वार्थ, अहं, ईर्ष्या और द्वैत की भावना होती है वह परिवार टूट जाता है। मैंने इस परिवार के दोनों पक्षों को बहुत नज़दीक से जाना है जया, इसलिए यही कह सकती हूं कि तुम दुनियादारी बिल्कुल नहीं जानती। फलस्वरूप सीधे सहज भाव से परिणाम के विषय में सोचे बिना सब कह देती हो, जिसका महक सरीखे लोग ग़लत मतलब निकाल लेते हैं। महक का विश्लेषण करूं तो लगता है कि ऐसी मनःस्थिति की महिलाओं के अचेतन मन में हर समय यह भय बना रहता है कि उसके किसी भी काम में कोई भी कमी न रह जाए, क्योंकि अपने अहं के कारण वे सदैव सर्वोपरि ही बनी रहना चाहती हैं और यह भाव उन्हें सहज नहीं रहने देता। यही कारण है कि न तो वे किसी दूसरे की प्रशंसा सुन सकती हैं और न ही अपने प्रति परिहास में कही बात तक को सहन कर पाती हैं। उनके लिए तो स्वयं द्वारा निर्धारित धारणाएं ही सर्वथा उचित और सही होती हैं, और यह सब संस्कारगत है। यही कारण है कि जब कभी उनके अहं को चोट पहुंचती है तो उनमें रोष जागता है, ईर्ष्या जागती है और मन दूसरों को हेय दिखाने की चेष्टा करने लगता है। ऐसे मनोविकारों से ग्रस्त स्त्रियां अपने पतियों से भी ससुराल विरोधी बातें कह उन्हें पितृ-गृह से विमुख करने की चेष्टा करती हैं। धीरे-धीरे वे अपने ही रचे ताने-बाने में उलझती चली जाती हैं और ऐसी स्थितियों का निर्माण हो जाता है कि दूसरों के न चाहते हुए भी वे उनसे दूर हो जाती हैं। फलस्वरूप घर वाले तो उनके व्यवहार से दुःखी होते ही हैं पर वे स्वयं भी चैन से नहीं रह पाती। दूसरों द्वारा मिली अवहेलना उन्हें हताशा से भर देती है और वे मानसिक संताप झेलने को बाध्य हो जाती हैं। काश! वे समझ पाती कि जिस प्रकार के व्यवहार की उन्हें अपेक्षा होती है वैसा ही सद्व्यवहार उन्हें औरों के लिए भी करना आना चाहिए, किन्तु अपने अहं के कारण ऐसी स्त्रियां हार कर भी अपनी हार नहीं मानती और अपने दोषों का पिटारा सदैव दूसरों के सिर मढ़ने की हर संभव चेष्टा करती हैं। अब जया, तुम स्वयं सोचो जिस बहू को बेटी जैसा प्यार दिया, उसकी हर त्रुटि को नकारते हुए हर किसी के सम्मुख उसे प्रशंसित किया उसी ने अपनी निर्मूल शंकाओं के वशीभूत हो तुम पर दोषारोपण किया। कैसी विडम्बना है यह कि रूप, गुण सम्पन्न होते हुए भी केवल अपने आचरण के कारण वह स्वतः ही सबसे विमुख होती चली गई, फिर उसे अपने पास रोके रखने का अर्थ ही क्या है। जाने दो बच्चों को और करने दो अपनी आशाओं और उमंगों के अनुरूप नए घोंसले का निर्माण इसी में सब की भलाई है।

अपने आस-पास से अनजान, जाने कब से हम उलझी गुत्थियां सुलझाने में व्यस्त थी कि दूर से महक को आता देख घर जाने के लिए उठ खड़ी हुई। नन्हें आशु को हमें पकड़ा वह घर के कामों में लग गई। जैसे-तैसे दिन को विराम लगा और नीरसता भरी रात बीत गई। आज दोपहर को ही पतिदेव टूर से वापिस आ गए और शाम ढलने तक सोमेश भी अपने पिता संग लौट आया। रात का खाना हम सब ने बाहर खाया और अगली सुबह मैंने जया से वापिस लौट जाने की बात की तो वह उदास हो गई, पर लौटना तो था ही। वहां से लौटे कई महीने हो गए हैं किन्तु व्यस्तता के कारण जया से कोई बात नहीं हो पाई। सोचा था आज रात को फ़ोन पर उससे बात करूंगी किन्तु उससे पहले ही दोपहर की डाक से उसका पत्र मिला जो इस प्रकार था।

प्रिय दीदी,

सोमेश और महक को दिल्ली गए आज तीन महीने हो गए हैं। सोमेश तो सप्ताह में दो-तीन बार फ़ोन कर लेता है पर महक कभी बात नहीं करती। इस बीच दीवाली पर मैंने स्वयं ही फ़ोन पर उससे घर आने का अनुरोध किया था पर वह नहीं आई। केवल सोमेश ही आया था। उसी ने बताया कि अब महक की हमारे पास आने की इच्छा नहीं होती। स्तब्ध रह गई थी मैं यह जान कर। समझ नहीं पा रही हूं कि आख़िर मैंने ऐसा भी क्या कर दिया है कि महक ने आपसी सम्बंधों को समाप्त कर देने तक का कठोर निर्णय ले लिया। दीदी, ऐसा तो मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था। फिर भी यही कामना करती हूं कि वह हर प्रकार से सुखी रहे।

आप की बहन

जया

जया के मन की अगाध व्यथा और निराशा से भरे इस संक्षिप्त से पत्र ने मुझे झिंझोड़ कर रख दिया। आज प्रथम बार मानव मन की उन जटिलताओं का आभास हो रहा है जिनका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने के उपरान्त भी हम उनकी गहराइयों तक नहीं पहुंच पाते। महक की प्रतिक्रिया इसका स्पष्ट प्रमाण है। इस क्षण अपनी विवशता को देख मेरी आंखें भर आई हैं, क्योंकि चाहते हुए भी इस सन्दर्भ में मैं जया की कोई सहायता नहीं कर पा रही। काश! जया ने व्यवहारिकता के साथ-साथ सम्बन्धों की सीमाओं का भी ध्यान रखा होता तो शायद आज उसे इस दुःखद स्थिति का सामना न करना पड़ता।

 

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