महिला विमर्श

अधिकारों से वंचित आधी दुनियां

–श्री गोपाल नारसन जहां भी नारी का नाम सामने आता है, वहीं एक कोमल, कमज़ोर, लाचार अबला की तस्वीर सामने आ जाती है। कहने को हम 21 वीं सदी में पहुंच गए हैं, लेकिन आज भी नारी को दुनिया में आने से रोकने के लिए उसकी गर्भ में ही हत्या करने का घिनौना अपराध प्राय:शहर, कस्बे व गांव में हो ...

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लड़कियों के प्रति मानसिकता बदलनी होगी

–गोपाल शर्मा फिरोज़पुरी युग बदला इतिहास बदला मगर आधुनिक संसार में सभ्य समाज आज भी पुरानी परिपाटी का परित्याग नहीं कर पाया। जन्म-जन्मांतरों से हमारी मानसिकता अभी भी उसी पड़ाव पर खड़ी है जहां सदियों पहले खड़ी थी। परिवार, जिससे मिलकर समाज का निर्माण होता है तथा जिस समाज से विकसित राष्ट्र का निर्माण होता है। वर्तमान वैज्ञानिक युग में ...

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महिला की असली स्वतंत्रता ‘महिलापन’ में है

-विभा प्रकाश श्रीवास्तव प्रात: स्मरणीय अहिल्याबाई का मूल वाक्य था, ‘मैं अपने प्रत्येक कार्य के लिए ज़िम्मेदार हूं।’ इसी प्रकार महिला की तथाकथित ग़ुलामी, बेबसी, परतंत्रता, दोयम दर्जा इन सबके लिए कहीं न कहीं महिला स्‍वयं भी ज़िम्मेदार है, क्योंकि पारंपरिक रूप से उसे कोमलांगी, सुकुमारी, घर की रानी आदि कहा गया और उसने बड़े प्रसन्न होकर इन क़ैद करने वाले ...

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हमें भी तो चाहिए एक मुट्ठी आसमान

जिन परिस्थितियों से निकलने के लिए वह विवाह न करने का संकल्प लेती है, यह समाज उसके समक्ष उन परिस्थितियों से भी कहीं बदतर स्थितियां उत्पन्न कर देता है।

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नम शब्दों की आबशार-दलीप कौर टिवाणा

मुझे अंदेशा-सा हुआ, जिसे मैं मिलकर आया था, शायद यह कोई दूसरी दलीप कौर थी। वहां दीवारों पर लटकती हुई पेंटिंगज़ नहीं थी। वहां पर न तो कोई काग़ज़ था और न ही कोई पैॅन।

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एक खुशबू थी अमृता प्रीतम

अमृता ने अपनी जीवन की अन्तिम कविता जो उसने 2002 में अपने हर पल के साथी इमरोज़ के लिए लिखी थी, में उससे अपने पुनर्मिलन की हार्दिक इच्छा यूं अभिव्यक्‍त की है:- “मैं तुझे फिर मिलूंगी कहां? कैसे? मालूम नहीं

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बेटा-बेटी में असमानता कहां तक उचित

-मुकेश अग्रवाल रमेश के यहां लड़की होने का समाचार पाकर मैं उसके घर बधाई देने चला गया। उसके घर जाकर देखा तो वहां एक अजीब-सी खामोशी छाई हुई थी। रमेश की मां एक कोने में बैठी आंसू बहा रही थी तो स्वयं रमेश भी किसी गहरी चिंता में डूबा हुआ था। औपचारिकता की रस्म निभाने के बाद मैंने उदासी भरे ...

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औरत-कल, आज और कल

बड़े बड़े कवियों ने भी उसे त्याग की देवी का नाम दिया व उस से सिर्फ त्याग की ही अपेक्षा की। वे भूल गए कि यदि त्याग की देवी सीता वह है, तो चंडी भी वही है व झांसी की रानी भी वही है।

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अपनों ने जिन को लूटा

  -मंजुला दिनेश दुनिया कहां की कहां पहुंच गई। हम अपने आप को अति आधुनिक समझने लगे हैं। जहां एक तरफ़ हम स्वतंत्र सुरक्षित समाज का निर्माण कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ़ अभी भी आमतौर पर महिलाएं अपनी आबरू के कभी भी लुट जाने के भय से सदैव असुरक्षित महसूस करती दिखाई देती हैं। भले ही आज महिलाओं ने ...

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