काव्य

काग़ज़

शायद नहीं जानता ये अबोध बालक इस काग़ज़ के टुकड़े की क़ीमत तभी मरोड़ रहा है, फाड़ रहा और हंस रहा है

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मेरा बड़प्पन

स्कूल के दिनों स्कूल से घर लौटते देखा करता था उस बुढ़िया को मैं जिसे अक्सर ताई कहकर बुलाता था सड़क के किनारे रोटियां सेंक रही होती थी

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सरहद का दर्द

कितना बदनसीब है वह ज़मीन का टुकड़ा जिसे सरहद का नाम मिला गिर रही हर रोज़ बेशुमार लाशें उन लाशों को गिनने का काम मिला

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कुछ ऐसा भी होता है

कुछ ऐसे मंदिर होते हैं जहां घंटियों के नाद नदारद और नदारद दीप प्रज्वलित भक्तों की जहां भीड़ नहीं पर ईश्वर हैं वहां स्थापित एकाकी में पूजे जाते हैं कुछ ऐसे मंदिर होते हैं

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गीत

राहें मुहब्बत भी कैसा सफ़र है दूर है मंज़िल बहकी डगर है क़ुदरत ने पहले हमको मिलाया क़िस्मत ने ऐसा खेल खिलाया अपना पता है न तेरी ख़बर है राहें मुहब्बत भी कैसा सफ़र है

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काश! आप हमारे होते..

चांद मुट्ठी में, क़दमों में सितारे होते इस ज़मीं पर जन्नत के नज़ारे होते काश! आप हमारे होते उगता सूरज ड्योढ़ी पर राही अन्धेरों से हारे न होते

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संदेश

क्यों तूने पुरुष से की गुहार खड़ी बेबस तुम थी रही पुकार क्यूं मांगा तूने पुरुष का सहारा पल में धुल गई स्वतंत्र छवि वो मैं जिसमें करता था तुम्हें निहारा।

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चाह मेरी

वो दिन कभी तो आएगा जब मैं सुनूंगी नदी के जल की छपछपाहट पक्षियों की चहचहाहट हवा के झोंकों की सनसनाहट जब मैं देखूंगी लाल सूरज को उगते हुए बादलों को गरजते हुए

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