साहित्य सागर

वो पल

वो पल जब तुम आये मेरा हाथ मांगने पर निकाल दिये गये घर से ये कहकर, “तुम्हारी जाति हमसे मेल नहीं खाती” टूट गई मैं ब्याह दी गई अपनी जाति में

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गीत

तुम अश्कों के ग़ुंचे पिरोया करोगे हमें याद कर-कर के रोया करोगे बहारों का आयेगा जब-जब भी मौसम

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हाथी दांत

मैं अपने इस आदर्श नायक को ज़िन्दगी की किसी लड़ाई में कहीं हारते हुए नहीं देखना चाहता था, 'जो भी हो, जहां भी मेरी मदद की ज़रूरत हो करूंगा।'

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काग़ज़

शायद नहीं जानता ये अबोध बालक इस काग़ज़ के टुकड़े की क़ीमत तभी मरोड़ रहा है, फाड़ रहा और हंस रहा है

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जल्वे फ़िल्मी गीतों के

जब अन्तिम दर्शनों के हेतु चेहरे से कपड़ा हटाया गया तो अकस्मात् किसी का सेल फ़ोन बज उठा, “तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को किसी की नज़र न लगे चश्मे बद्दूर।”

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अंतिम सांझ का दर्द

वह हर दिन निकलने वाले सूर्य के साथ दरवाज़े पर टकटकी लगाए एक आशा भरी निगाह लिए अपने बेटों का इंतज़ार करती। उसे हर आने वाले कल पर भरोसा था। उसे हर आने वाले कल पर भरोसा था।

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हे पद तुझे सलाम

दरवाज़े के आगे तो बहुत कुछ है उल्लू! धेले में बिकता कानून है, दुराचार में डूबी राजनीति है, हर जगह मरता सच है, खून के प्यासे रिश्ते हैं।

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भारद्वाज गुरू जी

वह कुछ सकपकाया, 'आप अकेली.... और मेरा रुकना....। कुछ अच्छा नहीं लगता। हम चले जाएंगे।' चम्पा अधीर हो उठी। अपनी पहचान को पुख़्ता करने के लिए इतना समय और बात काफ़ी थी।

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चलेंगे साथ

हर कोई उससे बात करने से क़तराने लगा था। वो जहां भी जाती पहले से बैठे हुए उसके सहपाठी उठकर चले जाते। उसके सहपाठी हंसी-ठिठोली कर रहे होते और अन्या वहां पहुंच जाती तो सब मौन धारण कर लेते।

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