शबनम शर्मा

सिलसिला

कितनी बार टूटकर बिखरते हैं हम कितनी बार बिखर कर सिमटते हैं हम कि ये सिलसिला एक दिन नहीं दो दिन नहीं ताउम्र चलता है

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वो पल

वो पल जब तुम आये मेरा हाथ मांगने पर निकाल दिये गये घर से ये कहकर, “तुम्हारी जाति हमसे मेल नहीं खाती” टूट गई मैं ब्याह दी गई अपनी जाति में

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काग़ज़

शायद नहीं जानता ये अबोध बालक इस काग़ज़ के टुकड़े की क़ीमत तभी मरोड़ रहा है, फाड़ रहा और हंस रहा है

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मैं क्या हूं

ज़िंदगी के आख़िरी पड़ाव में नज़र आई ज़िंदगी की संकरी गलियां, पथरीले रास्ते भीगी छत और गर्म लू से कई हादसे क्यूं आख़िर क्यूं सबकी उम्मीदें टिक जाती इक औरत पर

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अंधेरा

तुम क्यों बार-बार अंधेरे में, मेरे दिल के इक कोने से आवाज़ देते हो मुझे दौड़ती हूं चहुं ओर क्योंकि गूूंजती है तुम्हारी आवाज़

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मायका

घर से कोसों दूर ब्याह दी गई थी बूढ़ी हो गई थी अब पर कभी-कभार हवा के झोंके की तरह उसे याद आती थी पीहर के हर इंसान की

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ज़ख़्म

देख सकते हो तुम मेरे बदन पर उसके शब्दों के दिए ज़ख़्म जो सिर्फ़ रिसते हैं रोते हैं, चीखते हैं पर उन्हें सहलाने वाला कोई नहीं।

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दान

मैं बचपन से पढ़ाई में अच्छा था लेकिन घर की परिस्थितियां अनुकूल न थीं। मेरी 2 बहनें, दादा-दादी और एक बुआ भी हमारे साथ थी। पिताजी अकेले कमाने वाले थे। रात-दिन काम करते। मैं भी समय मिलते ही उनकी मदद करता।

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दीवाली

आंगन में क़दम पड़ते ही ठिठक गये देख मां को बैठा बरामदे में लगा आज कड़ाही, नहीं चढ़ी खीर पूड़े नहीं बने मां ने बत्तियां नहीं बाटी भगवान नहीं नहलाए नये कपड़े नहीं पहनाये

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