जंगल में लगी आग की तरह यह ख़बर गली-मोहल्ले में फैलती चली गई कि ‘देवता चल बसे।’ कैसे ….? कब ….? क्या हुआ था? …. आदि प्रश्न लोगों के चेहरों पर तांडव-नृत्य कर रहे थे। हर कोई अपना काम अधूरा छोड़कर ‘देवता’ के घर की तरफ़ भाग रहा था। चेहरे पर बदहवासी व घबराहट …. उस परिवार के बारे में चिंता लिए जिससे ‘देवता’ जुड़ा था। लोगों की भीड़ उस घर के आगे बढ़ती जा रही थी। देवता के वृद्ध मां-बाप और पत्‍नी बिलख-बिलख कर रो रहे थे, वहीं तीनों बच्चों में दो की आँखों में आँसू बहे जा रहे थे। सबसे बड़ी बेटी निशा मानों पत्थर-सी बन गई थी। उसकी आँखों में कोई आँसू न था, न ही चेहरे पर विषाद की रेखाएं।

“लगता है बाप की मौत का सदमा हो गया है।” भीड़ में से कोई बोला।

“बाप की मौत एक सपना-सा लग रही है। उसे विश्‍वास नहीं हो रहा है शायद इसीलिए वो रो नहीं रही।” कोई दूसरा बड़बड़ाया था।

“कोई इसे मार कर रुलाये? ऐसे मौक़े पर तो ग़ैर के आँसू भी आ जायें, यह तो सगी बेटी है।” जितने मुँह उतनी बातें थीं।

“अरे हुआ क्या?” किसी ने पूछा। भीड़ में खुसर-पुसर हो रही थी। ‘देवता’ के नज़दीकी पड़ोसी राम अवतार ने बताया, “अजी होना क्या था? रात को खा-पीकर आराम से सोये थे। बस …. सोये के सोये रह गये। डॉक्टर ने ही बताया है कि रात को ‘हार्ट-अटैक’ आया। अटैक ज़बर्दस्त था …. सो अपने देवता ….?” राम अवतार कहते हुए सुबक पड़ा।

“हाँ …. भई …. ज़िंदगी का आजकल कोई भरोसा ही नहीं रह गया एक ज़िंदादिल इंसान था। लोगों के दुःख दर्द में हमेशा शामिल रहने वाला। भगवान् भी अच्छे आदमियों को अपने पास शीघ्र बुला लेता है।” भीड़ में खड़े दूसरे पड़ोसी ने दर्शन झाड़ा था।

“अरे तू रोती क्यों नहीं? देख तेरा पापा मर गया है।” अन्दर किसी ने निशा को चेताया था। उसकी आँखें तो मानों पथरा-सी गई थीं। अपने पापा की मौत की ज़िम्मेदार शायद वो ही थी। निशा मन ही मन सोच रही थी अगर उसने ‘वह क़दम’ न उठाया होता तो शायद पापा आज जीवित होते। काश! उसे नैन्सी न मिली होती। नैन्सी से उसकी मुलाक़ात कॉलेज में ही हुई थी और निशा के सामने अतीत चलचित्र की मानिंद आँखों के समक्ष उभरने लगा था।

निशा शहर के नेशनल कॉलेज में स्नातक द्वितीय वर्ष की छात्रा थी। उस दिन वह क्लास में बैठी हुई थी। तभी एक छात्रा ने कक्षा में प्रवेश किया था। पूरी तरह आधुनिक वेश-भूषा में थी। उसने अभी हाल ही में दाख़िला लिया था। नाम नैन्सी था। कन्धों तक कटे हुए घुंघराले काले बाल उसके सौंदर्य को और बढ़ा रहे थे। वह निशा के पास ही आ कर बैठ गई थी। दोनों ने एक दूसरे को देखा और मुँह से ‘हैलो’ शब्द निकल कर रह गया। तभी कक्षा में अंग्रेज़ी की लेक्चरार मिसिज़ वालिया ने प्रवेश किया। कक्षा में सन्नाटा छा गया था। मिसिज़ वालिया ‘अटेंडेंस’ ले रही थी। नैन्सी का नाम लेने के बाद एकदम चौंकी, फिर बोली, “नैन्सी! क्या बात है? तुम छुट्टियाँ बहुत करती हो?”

“मैम! मेरी मां बीमार रहती है, सो उनकी देखभाल के लिए मुझे ….?” नैन्सी ने रोनी-सी सूरत बना कर उदास स्वर में कहा। “ओह!” मिसिज़ वालिया ने सांत्वना का भाव दर्शाते हुए कहा, “फिर भी तुम्हें अपनी ‘अटेंडेंस’ का ध्यान रखना है।”

“जी मैम!” पीरियड ख़त्म होने के बाद निशा ने पूछा था, “क्या हुआ है तुम्हारी मम्मी को ….?”

“कुछ नहीं …. वो तो एकदम तंदरुस्त है।” खिलखिला कर हँसते हुए नैन्सी बोली। “फिर वो मैडम से ….?”

“झूठ बोला था। सफ़ेद झूठ।” कटे बालों में अंगुलियां फिराते हुए नैन्सी ने निशा की बात काटते हुए कहा। “लेकिन ….?” मासूम-सी निशा ने असमंजस की स्थिति में पूछना चाहा। “फिर कभी बताऊंगी!” कह कर नैन्सी बात को टाल गई। नैन्सी की अबूझ पहेली-सी निशा के दिमाग़ पर हावी होती चली गई थी और फिर एक दिन ….? यह संयोग ही था कि नैन्सी और निशा साथ-साथ बैठी थी, पास-पास बैठे होने के कारण दोनों में औपचारिकता मात्र थी। मैडम अभी क्लास में आई नहीं थी। अचानक नैन्सी की डायरी छूट कर नीचे गिरी थी। निशा ने देखा डायरी गिरने से कुछ ‘फ़ोटोग्राफ़्स’ बाहर गिर पड़े थे। निशा ने झुककर उठाए डायरी और फ़ोटोग्राफ़्स, जो कुछ युवकों आदि के थे, निशा ने नैन्सी को पकड़ाए। “ये फ़ोटोग्राफ़्स ….?” निशा ने मुस्कुरा कर नैन्सी से पूछा। “बस यूँ ही ….?”

“क्या कोई शादी का प्रोग्राम ….?”

“शादी ….? माई फुट।” मुँह बिचकाते हुए नैन्सी बोली, “ज़िंदगी इन्जॉय करने के लिए है, खूब मज़े करो। शादी तो व्यर्थ का झंझट है। मात्र ग़ुलामी ….? वो भी ससुराल वालों की?”

“फिर ये फ़ोटोग्राफ़्स ….?”

“पीरियड ख़त्म हो जाये, फिर बताऊंगी ….?” नैन्सी ने उसकी उत्सुकता बढ़ा दी थी। निशा बेसब्री से पीरियड समाप्‍त होने का इंतज़ार करने लगी। पीरियड के बाद नैन्सी निशा को कॉलेज की कैंटीन में ले गई थी। दो ‘कोल्डड्रिंक’ का ऑर्डर दे कर वह वहां बैठ गई थी। नैन्सी ने डायरी खोली और उसमें रखे फ़ोटोग्राफ़्स निशा को पकड़ाये। निशा सरसरी निगाहें फ़ोटोग्राफ़्स पर डाल रही थी। ‘कैंटीन ब्यॉय’ दो ‘कोल्ड ड्रिंक्स’ उनके सामने रख गया था। नैन्सी उन फ़ोटोग्राफ़्स के बारे में बता रही थी, “निशा! मैं इनमें से किसी का नाम नहीं जानती और न ही ये मेरी शादी के लिए आये चित्र हैं। ये तो मौज-मस्ती करने वालों के हैं जो अपनी संतुष्ट‍ि के लिए ढेरों रुपये ख़र्च करके मज़ा लूटते हैं।”

“क्या …?” निशा चौंक पड़ी थी। ऐसे युवकों की तसवीरें तुम्हारे पास ….? “लड़के मौज-मस्ती कर सकते हैं तो क्या हम नहीं कर सकती। नैन्सी के चेहरे पर बेहयाई उतर आई थी। बोली, अरे बदले मे हमें ढेरों पैसे मिलते हैं।”

“तुम इनसे मिलती कहाँ और कैसे हो” निशा ने काँपते स्वर में पूछा था।

“अरे अपने इस शहर के पास ही तो हमारी कैपीटल है। कॉलेज से ‘फरलो’ मार कर एक घंटे का सफ़र करके कैपीटल पहुँचो, मौज-मस्ती करो और कॉलेज टाइम में ही वापिस आकर घर चले जाओ।” हँसते हुए नैन्सी बोली थी।

उन चित्रों को देखते हुए निशा एक चित्र को देख कर चौंक गई थी। जो देखा, उस पर विश्‍वास नहीं कर पा रही थी। माथे पर पसीना छलकने लगा था। काँपते स्वर में उसने नैन्सी से पूछा, “ये …. ये …. चित्र ….?”

“लड़कों से भी ज़्यादा जवान दिखता है, बहुत ही ज़िन्दादिल इंसान है, शानदार पर्सनैलिटी का मालिक है। ढेरों रुपये लुटाता है। मज़ा आ जाता है इस की कम्पनी में। बस …. इससे ज़्यादा मैं कुछ नहीं जानती इसके बारे में।” नैन्सी ने कोल्ड ड्रिंक के घूंट भरते हुए कहा। “अरे तुम …. कोल्ड ड्रिंक क्यों नहीं ले रही?” नैन्सी ने पूछा। “नहीं, लेती हूँ ….” अपने मनोभाव को छुपाते हुए निशा ने कहा। मन-मस्तिष्क में आंधी चल रही थी। कितना बड़ा विश्‍वासघात था एक परिवार के लिए? एक औरत के लिए जो उसे देवता की तरह पूजती है? उन बच्चों के लिए जो अपने पिता को आदर्श की मीनार समझते हैं। निशा ने जो चित्र देखा था वो हू-बहू उसके पापा का था। माँ जानेगी तो जीते जी मर जायेगी, बेचारी और ‘ग्रैन्डपा और ग्रैन्डमां’ के दिल पर क्या गुज़रेगी?

लेकिन जो मैं सोच रही हूँ वह ग़लत भी तो हो सकता है। ये तसवीर किसी और शख़्स की भी तो हो सकती है जिसकी शकल सूरत पापा से मिलती हो? क्या करे वह? “क्या सोचने लगी तुम” नैन्सी ने पूछा।

“क्या तुम मुझे इस आदमी से मिला सकती हो?” डरे और सहमे स्वर में नैन्सी से पूछा था निशा ने। “कमाल है तुम्हें भी यह ज़िंदादिल इंसान पसंद आया है। लगता है तुम भी ज़िंदगी का मज़ा लूटना चाहती हो?” नैन्सी आँख मारकर मुस्कुराई थी। नैन्सी की बेहयाई का निशा क्या जवाब देती? मस्तिष्क और दिल में तो हाहाकार मचा था, नैन्सी को कैसे बताती कि असलियत क्या है? वह तो इस कड़वी सच्चाई को स्वयं अपनी आँखों से देखना चाहती थी और फिर नैन्सी ने ही सारा प्रोग्राम ‘फिट’ कर दिया था। उसके जाने का घर में किसी को भी पता नहीं चलना था। कॉलेज समय में ही वापिस लौट आना था और उस दिन निशा नैन्सी के साथ कॉलेज से ‘फरलो’ मार कर चली गई थी। बस द्वारा वे राजधानी पहुँच गये थे। वहां से रिक्शा करके वे होटल लिबर्टी पहुँची थी। ‘अपॉइंटमेंट’ रूम नंबर एक सौ एक में “फ़िक्स” थी जबकि नैन्सी की मुलाक़ात एक सौ दस नम्बर कमरे में थी किसी ओर से।

“ऑल द बैस्ट” कहकर नैन्सी आगे बढ़ गई थी। निशा का चेहरा धुआं-धुआं-सा हो रहा था। टाँगें काँप रही थीं। दिल की धड़कनें धाड़-धाड़ बज रही थीं। क्या उसने सही क़दम उठाया है? क्या वह ग़लती तो नहीं कर रही? उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। हिम्मत करके उसने कॉलबेल बजा दी थी।

एक भारी-भरकम आवाज़ गूंजी, “कम इन ….?”

निशा दरवाज़ा खोलकर अन्दर घुसी। कमरे में बहुत ही मद्धिम प्रकाश था। वह कमरे का जायज़ा ले रही थी। कमरे में बैठा आदमी सिगरेट पी रहा था। धुएं के छल्ले चारों ओर फैल रहे थे। एक छोटी मेज़ पर शराब की बोतल, गिलास और सोडा आदि रखा था। वह आदमी कुर्सी से उठा। लड़खड़ाते क़दमों के साथ “आओ मेरी जान!” कहते हुए वह पलटा। निशा पर निगाह पड़ते ही गिलास हाथ से छूट कर फ़र्श से टकराया और चूर-चूर हो गया। आँखों में छाया सुरूर और नशा छूमंतर हो चुका था। जो देखा, विश्‍वास नहीं हुआ। सामने निशा खड़ी थी। उसकी बेटी …. सगी बेटी। “तुम …. तुम ….!” स्वर हलक में ही फंस गये थे। निशा की आँखों में आँसू भरते चले गये। पापा का नया रूप सामने था। कितना गन्दा ….? कितना घिनौना ….? एक आदर्श की मीनार खंडित हो चुकी थी। रोते और कांपते से स्वर निशा के मुख से निकले, “पापा …. हम सोच भी नहीं सकते थे कि आपका यह सच भी हमें देखना नसीब होगा। यह आपके चरित्र की हत्या नहीं बल्कि एक पूरे परिवार की हत्या कर दी है आपने। मुझे आपसे नफ़रत है …. नफ़रत! आपकी सच्चाई जानने के लिए ही मुझे यह गन्दा, शर्मनाक क़दम उठाना पड़ा। आप में ज़रा-सी ग़ैरत है तो अपनी शकल कभी मत दिखाना” गुस्से में पैर पटकते हुए निशा वहां से चली आई थी। पापा का सिर शर्म और अपमान से ग्रस्त झुके जा रहा था। बेटी के समक्ष उनका चरित्र नग्न हो चुका था। बेटी से नज़रें मिलाने तक का उनमें साहस नहीं था।

वापिस अपने शहर लौटते हुए निशा का दिल और दिमाग़ जैसे सुन्न पड़ गया था। वह जो देख कर आई थी, उस पर यक़ीन नहीं हो पा रहा था।

गली-मोहल्ले में एक देवता की तरह जीवन जीने वाला शख़्स …. उसके पापा ….? दूसरों के सुख-दुःख में सदैव तत्पर से काम आने वाले पापा ….? मां-बाप की सेवा में सदैव तैयार रहने वाले पापा ….? माँ के लिए परमेश्‍वर का दर्जा रखने वाले उसके पापा ….? बच्चों के लिए एक रोल मॉडल से बने उसके पापा ….? कितनी बखूबी से पापा ने अपने चेहरे पर एक और चेहरा चढ़ा रखा था …. आज वही चेहरा निशा के सामने दूसरे रूप में था।

आख़िर क्यों ….? क्या कमी थी पापा को? सोचते विचारते निशा का ध्यान माँ की तरफ़ चला गया। मां कितनी एक्टिव होती थी। सुबह से शाम ‘फिरकी’ की तरह नाचती-दौड़ती। जब टिंकू हुआ तो मां बीमार सी रहने लगी। ‘डिलिवरी’ के बाद मां कमज़ोर हो गई थी। और फिर दो माह के बाद मां का निचला हिस्सा निष्क्रिय हो गया था। अधरंग आ गया था। शुरू-शुरू में तो पापा मां की बहुत देखभाल करते थे। धीरे-धीरे वे उनकी उपेक्षा करने लगे थे। शायद मां उनकी ‘ज़रूरत’ को पूरा नहीं कर पाती थी। शायद यही कमी पापा को भटकाव के रास्ते पर ले गई थी, अपनी ज़रूरत को पूरी करने के लिए। एक सहानुभूति की लहर निशा के मन में पापा के लिए उठी थी। “लेकिन अब क्या होगा?” यह प्रश्न निशा के सामने सर्प के फन उठाये समान खड़ा था। मां, दादा-दादी को जब मालूम होगा कि ….? वे तो जीते जी मर जायेंगे। क्या करे? चुप रहे ….? जो देखा है उसे भूल जाये? लेकिन ….? क्या मैं भूल पाऊंगी? पापा के सामने क्या जा पाऊंगी? अपने कमरे में ‘बेड’ पर लेटी देर रात तक करवटें बदलती रही। रात को पापा कब लौटे? मालूम नहीं कब उसकी आँख लगी? पता नहीं। सुबह आँख खुली तो मां की चीखों से। वह दौड़कर मम्मी-पापा के कमरे में पहुंची। मां पापा को झिंझोड़ रही थी? “उठो क्या हो गया है तुम्हें? उठते क्यों नहीं? कुछ बोलते क्यों नहीं? माँ बोले जा रही थी और निशा ….?” वह पापा के निर्जीव शरीर को देखकर समझ चुकी थी कि पापा ने आत्म ग्लानि से ग्रस्त होकर आत्महत्या कर ली है। शर्म और अपमान से पीड़ित एक कमज़ोर आदमी कर ही क्या सकता था? ‘ग्रैन्डपा’ ने फ़ैमिली डॉक्टर मित्तल को फ़ोन कर दिया था। डॉक्टर मित्तल के आने पर निशा ने ही उनसे ‘कुछ’ बातचीत की थी। उनसे ‘कुछ’ कहा था … धीरे से। डॉक्टर मित्तल ने बॉडी को चैक किया और कहा, “ही इज़ नो मोर।” इनकी मौत हो गई है …. ‘हार्ट अटैक’ से कहते हुए डॉक्टर मित्तल ने निशा की ओर देखा था। दरअसल मौत नींद की ज़्यादा गोलियाँ खाने से हुई थी। डॉक्टर मित्तल को झूठ बोलने के लिए निशा ने ही कहा था क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि पापा की आत्महत्या की ख़बर सौ अफ़वाहों को जन्म दे। लोगों का भ्रम बना ही रहे तो अच्छा है। उनकी नज़र में पापा देवता थे और देवता ही बने रहें, चरित्रहीन नहीं यही निशा की कामना थी।

लोग अब भी निशा को झकझोर रहे थे। निशा वर्तमान में लौट आई थी। दो आँसू उसकी पलकों से छलक आये थे। अपने पापा की मौत पर ….। एक देवता की मौत पर …. लोगों की नज़र में ….।  

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