सच तो यह है कि तुमको देखने के बाद कहानी नहीं कविता ही लिखने का ख़्याल था। यूं तो चारों तरफ़ बिखरी हुई हैं कहानियां; आदमी जहां से चाहे उठाए और लिखता चला जाए। उठते-बैठते, राह चलते कहानियां ही कहानियां हैं। कुछ आंखों के सामने घटित होती हैं, कुछ लोग बाग सुनाते रहते हैं। बस में चढ़ो तो हर मुंह में एक कहानी है जिसे अग़ल बग़ल वाले के कान में ठेलने का मौक़ा ढूंढ़ता रहता है। कोई देश हो, कोई प्रदेश हो, बस हो या रेलगाड़ी का सफ़र, जहां आधे घंटे से ऊपर हुआ एक न एक कहानी ज़रूर पल्ले पड़ेगी ही।

पर तुम्हारे साथ ऐसा नहीं था। तुम एक कविता की तरह चढ़ी और कविता की तरह ही मेरे विचारों में उतरी और छाने लगी। मैं उठा था कनॉट-प्लेस से और तुम शायद एक-दो स्टॉपेज के बाद अपनी मां के साथ। मेरी अगली सीट पर तुम दोनों आ बैठीं। तुम्हारी आंखें सहज आकर्षक थीं झील सरीखीं, कसी हुई नाक…. खुला हुआ बदन…. किसी खाते पीते परिवार की परवरिश साफ़ झलकती थी। सीट से घूम-घूम कर जिस तरह पीछे मुड़ कर तुम मुझे देख लेती थी उससे मेरी दिलचस्पी का कारण बनता था। तुम्हारी लंबी केश-राशि, सलीक़े से सधी हुई चोटी बता रही थी कि तुम किसी सिक्ख परिवार से हो जो वीमेंस लिब की हवा का मुक़ाबला अभी तक कुछ सिद्धांतों के बल पर कर पा रहा है वर्ना राजधानी की मॉडल लड़कियों की तरह बॉब कट करवा तुम भी ग़ुलामी से छुटकारा पा लेतीं। तुम पर तो अभी आई-ब्रो की शेप भी ख़ालिस थी। तुम मुझ में पता नहीं क्या ढूंढ़ रही थी जो उचक-उचक कर पीछे देख लेती थी। कोई पिता, कोई भाई 1984 के क़त्लेआम में खो दिया था? उसकी सूरत मुझ जैसी रही हो, ……. क्या पता? भय मिश्रित अचंभा झील सी आंखों को उद्वेलित कर रहा था। मेरे मन में यह लहरें कंपित होने लगी थीं।

इन झील-सी नीली आंखों में

काश उतर जाये मन प्यासा

किरणें दिल की अगन बुझायें

ऐसा देखा चांद अनोखा….

वग़ैरह-वग़ैरह। इस जैसी कई पंक्तियां अनायास दिल में तुकें जगाने लगी थीं। काश तुम मेरे क़रीब आ पाती तो झोला खोलकर एक से एक बढ़िया प्रेम कवितायें सुनाता जिनका एक संकलन छपवाने मैं यहां आया था।

तुम्हारा बस चलता तो एकटक तुम मुझे देखती…. कुछ शर्माती…. कुछ पूछती। पर लोक-लाज वश संस्कारों-बंधी बस किसी बहाने घूमकर तुम पक्का कर लेती कि मैं खोया हुआ सरदार तो नहीं जिसकी राह तुम्हारा परिवार शायद अभी भी देख रहा है। उसे किसी ट्रेन पर आना था? हो सकता है वह चढ़ा ही न हो उस दिन, जिस काले दिन सिक्ख यात्री अपने गंतव्य तक कभी पहुंच न पाए। प्रतीक्षा-रत हज़ारों निगाहें उस दिन के बाद टिकी सूनापन अंजोरती रहीं। यह मानने को दिल तैयार नहीं होता कि इस क़यामत वाले दिन कोई सगा अकाल चलाणा कर गया। उम्मीद एक बड़ी राहत होती है जो कड़वे सच को एकाएक खुलने से रोक रखती है। वक़्त के हाथों बहला-फुसलाकर सच को चीखने से मना करती है। इस तरह इंसान नये हालातों में खुद को दोबारा ढाल लेता है। नियति मानकर या हौसले की समझदारी बरतकर स्थितियों से तालमेल पैदा करता है। इस तरह ज़िंदगी नई पटरी पर चलने लगती है। आत्महत्या का यह एक धीमा तरीक़ा है जिसमें यह संभावना बनी रहती है कि हारते-हारते हो सकते है, खेल ड्रा पर आ जाए। एक संघर्षपूर्ण मैच की रोमांचकता का लुत्फ़ ही अलग है।

पर तुम्हारा बार-बार इस तरह मेरे चेहरे को अपने ख़्यालों वाले चेहरे से मिलाना, मुझमें तुम्हारी अलग दिलचस्पी साबित करता रहा था। और यही वजह थी कि तुमसे पिछली सीट पर बैठा मैं, कविता की दुनियां से बाहर निकल कहानी-जगत् में प्रवेश कर रहा था। अगर यह मान भी लिया जाए कि तुम्हारा मंगेतर या दोस्त, जिसके बारे में सोचकर तुम अभी तक बेचैन हो, बच गया हो जान बचाने के लिए उसने अपने केश दाढ़ी साफ़ करवा लिए हों, अपना नया संस्करण तैयार कर लिया हो तो इतने सालों तक घर क्यों नहीं लौटा? क्यों उसे यह डर था कि सिक्ख धर्म से पतित हो जाने पर परिवार वाले उसे स्वीकार नहीं करेंगे? उसे क्या पता यह शक हो कि उसके इस संकलन को तुम घृणा करोगी!

ऐसी घटनाओं के बारे में, मैं सुन चुका हूं। मेरे परिचितों में एक पूरे गुरसिक्ख सिद्धातों वाले चावला जी थे। उनका मंझला बेटा ट्रेन में फंस गया। इंडस्ट्रियल टूर से लौट रहे इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों ने उसके बाल साफ़ कर प्राणों की रक्षा की। स्थिति की गंभीरता को समझते हुए चावला जी ने कुछ नहीं कहा। बेटे ने भी दोबारा केश बढ़ाना तो दूर ट्रिम की हुई दाढ़ी भी नहीं रखी। आज वह बड़े ऐश से अमेरिका का नागरिक है। और वहीं उनका सब से छोटा बेटा जो खिलाड़ी ज़्यादा था, डी. ए. वी. कॉलेज में दाख़िला मिलते ही सब साफ़ करवा, छुट्टियों में घर लौटा उसे तो कोई स्थिति मजबूर नहीं कर रही थी। पता नहीं जवान बेटे की प्रताड़ना पिता करता या नहीं। पर महत्वपूर्ण बात तो यह है कि तुम्हारा जो भी रहा हो अगर वापिस नहीं आया तो क्या तुम यह मानने पर अमादा हो कि मैं वह हूं…. या हो सकता हूं! अगर कोई हिंदू-सिक्ख का नया संकलन बन जाए या सिक्ख-हिंदू का और दोबारा कुछ सालों बाद वे पूर्व-स्थिति में आ जाएं तो तुम…. इस तरह के चार संकलनों में बढ़िया-घटिया की छंटाई कैसे होगी?

कहानियों या दलीलों पर तुम भरोसा करो या नहीं, कहानियां सच और झूठ का कॉकटेल हो सकती हैं पर मैं तुम्हें बताना चाह रहा था कि मैं तुम्हें जानना चाहता हूं…. तुम्हारे परिवार के बारे में, उस खोये हुए चेहरे के बारे में जानना चाहता हूं। इसलिए आगे की ओर झुककर जो मां जी ने कहना शुरू किया, सुनने की कोशिश करने लगा। मातायें गंभीर और समझदार होती हैं। तुम्हारे बार-बार अस्थिर हो घूमने को वह उचित नहीं मान रहीं थी और इसलिए उन्होंने बातों में उलझाना चाहा था। “असीं झील उतर के पैदल चलीआं जांवांगीआं। पिंकी दी मम्मी वापिस आ गई होणी ए।”

तब तक टिकट काटने वाला भी आ गया। मुझे पक्का हो गया कि तुम दोनों झील उतर जाओगी।

“मुझे जाना है ओल्ड सीलमपुर ईस्ट,” मैंने कंडक्टर से कहा।

“यह बस तो नहीं जायेगी। आप शाहदरा से दूसरी ले लेना!” टिकट काटते हुए उसने कहा।

“कितने नंबर मिलेगी?” मैंने जानना चाहा।

“यह तो पता नहीं,” दिल्ली के आम जवाब-सा उत्तर मिला जिसे सुबह से सुनते-सुनते रात हो चली थी। मेरे लिए मौक़ा था। मैंने मां जी से पूछ लिया, “शाहदरा तों किन्नी दूर ए ओल्ड सीलमपुर?”

मां ने घूम कर पहली बार बड़े ध्यान से देखा मानों आवाज़ मिला रही हो। आश्वस्त हो कर बोली, “दूर इ ए। बस नंबर दा ते पता नई।”

मैंने घड़ी देखी। रात के आठ बज रहे थे। कल्पना पब्लिशिंग हाऊस का पता भी लगाना पड़ेगा। शाहदरा उतर कर बस का पता तो करो…. उफ़…. पता करना कौन सा आसान काम है। जब से दिल्ली उतरा हूं पूछ-पूछ कर दम निकल गया है। कोई सीधे मुंह बात कहां करता है। ‘पता नहीं’ कह कर आगे बढ़ जाता है। कोई रुकता भी है तो पहले अपनी जगह के बारे में पूछता है। लगता है ज़्यादातर लोग यहां भटक रहे हैं “हम नये हैं जी, जगह ढूंढ़ रहे हैं।” मुझसे भी कई लोगों ने पूछा था और जवाब में यही कहना पड़ा, “हम नए हैं जी।” दिल्ली ऐसा शहर है जहां आदमी महीनों चलता रहे और कहीं न पहुंचे। जान-पहचान के नाम पर बस शर्मा जी थे। सोचा स्टेशन पर उतर कर सीधा जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम जा कर उन्हें पकड़ लूंगा और सारा काम हो जायेगा। पर यह हमारा रांची शहर नहीं, दिल्ली है। दिशा और दूरियों की अवधारणा यहां भिन्न है। जिसे लोग थोड़ी दूर पर कहते हैं वह कम से कम दो किलोमीटर तो ज़रूर होता है। दो घंटे में कहां हम दूसरे शहर जा पहुंचते हैं और यहां दिल्ली में इंसान घर से दफ़्तर पहुंचता है।

“दूर इ ए” सुनकर मेरा जी घबराने लगा। रात का वक़्त है। बरसात का मौसम है। ऐसे आलम में किसी का घर ढूंढ़ना, वह भी एक सिक्ख युवक के लिए, सामान लादे-लादे…. तौबा।

मेरी चिंताओं को तुमने भाप लिया था। “झील तों वी बस मिल जावेगी।” मां ने बात आगे बढ़ाई “पैहली वारी जा रहे हो?” मैंने हां में सिर हिलाया। सुबह से पहली दफ़ा लगा मुझे कोई अपना बात कर रहा है। अपनी दहशत, तल्ख़ी और निराशा का निदान तुममें मिलता लगा। वर्ना स्टेशन पर उतरने से शुरू कर अब तक जिस क़दर हर क़दम शक का सामना करता रहा हूं, लग रहा है यहां ढेर हो जाऊंगा। लोग मेरे ऐयर बैग को इस तरह घूरते थे मानों इसमें गोला-बारूद भरा हो। अख़बारों की सुर्ख़ियां पढ़कर मेरे रोंगटे खड़े हो आए थे “पंजाब के कुछ आतंकवादी दिल्ली में घुस आए हैं।” हर नागरिक परेशान था। किसी भी वक़्त कहीं बम फटेगा…. बड़ी वारदात होगी। स्टेशन के बाहर निकलते ही चौकी पर पूरी तलाशी हुई थी पर उन्होंने कोई बिल्ला या प्रमाण पत्र मुझ पर नहीं चिपकाया ताकि मुझे शक भरी निगाहों से निजात मिल जाती। सामान क्लॉक रूम में रखना चाहा था तो वहां भी किसी ने स्वीकार नहीं किया। स्टेशन पर किसी रेहड़ी, किसी स्टॉल वाले ने क़बूल नहीं किया। सामान एक जगह रख पानी पीने बढ़ा तो तुरंत पुलिस ने टोक दिया “सामान साथ ही रखिये।” मालूम पड़ता था हज़ारों आंखें मेरी निगरानी कर रही हैं। शहर में घुसा तो दिशायें उलट गई। जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम का रास्ता पूछा तो अव्वल किसी को पता नहीं था। सामान लादे-लादे कंडक्टर के पास विनती की तो जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी की बस में चढ़ा दिया। पैदल चलते-चलते मेरा बुरा हाल हो गया था। बीच-बीच में बरसात होने लगती। भीगते ही सही, चाहता था किसी तरह जल्दी से जल्दी शर्मा के पास पहुंच जाऊं। बड़ी मुश्किल से दोपहर बाद भटकते-कल्पते स्टेडियम तक पहुंचा तो पता चला वहां पच्चीसों द्वार हैं। किस द्वार पर शर्मा जी मिलेंगे यह बताना मुश्किल था। हर द्वार खटखटाने की हिम्मत नहीं बची थी। बदन निढाल हो तपने लगा था। राजधानी में आतंकवाद की जो हवा बह रही थी कौन कह सकता है बेचारे शर्मा जी के ताल्लुक़ात दहशत गर्दों से जोड़ दिये जाते। टूट कर मैं वहीं बैठ गया और सोचने लगा “यह क्या हो गया है?” हर आदमी इतना रूखा और शक्की क्यों है? लगता है सबको मीटिंग में बुला कर समझाया गया है। राजधानी में आये सिक्ख को (आतंकवादी ही होगा) कैसे भटकाना, तंग करना है ताकि वह मंसूबे में क़ामयाब न हो। हो सकता है टी.वी. पर ख़ास हिदायतें देकर राजधानी के नागरिकों को चौकन्ना किया हो। खून का बदला खून से चुकाने के बाद भी हर सिक्ख को बेअंत ढोना था।

तभी गुरू जी के शब्द कौंधे।

“संघर्ष तो नई पीढ़ी करना ही नहीं चाहती। दुनियां के सबसे बड़े कवि कहलवाना चाहेंगे पर जनता से जुड़ने में घबरायेंगे।” मैंने फिर से साहस जुटाया अकेले ही कल्पना पब्लिशिंग हाऊस के मालिक गुप्ता जी को ढूंढ़ निकालने का। डॉ. तिवारी का सिफ़ारिशी पत्र मेरे साथ था। दिल्ली से अपनी चुनिंदा प्रेम-कविताओं का संकलन छपवाने पर सारे हिंदुस्तान में मेरी चर्चा हो जायेगी…. हो सकता है कोई न कोई इनाम भी मिल जाएगा, सरदार हिन्दी सेवी घृणा के इस माहौल में प्रेम-कवितायें लिखने वाला। खुद ही अपनी तारीफ़ कर हौसला अफ़ज़ाई की और स्टेशन लौटने की बजाय सीलमपुर पहुंचने का इरादा कर लिया। किसी तरह पांडुलिपि गुप्ता जी को सौंप दूं और रात या सुबह की गाड़ी पकड़ अपने शहर लौट जाऊं जहां दस लोग जानने वाले हैं, जहां सिक्खों से घृणा का आलम मद्धम पड़ चुका है।

मुझे विचारों में झूलता छोड़ अचानक मां-बेटी उठ खड़ी हुईं। शायद झील का स्टॉप आ गया था। मैं भी पीछे-पीछे उतर लिया। सड़कों पर पानी जमा था। हल्की बारिश लग गई थी। तुम रिक्शे के पास खड़ी थी। रिक्शा तैयार नहीं था। मैंने आगे बढ़कर मां जी से कहा, “मुझे बुख़ार हो गया है। पेट भी ख़राब है। इतनी रात प्रकाशक को कहां ढूंढ़ूंगा? मुझे अपना संकलन छपवाना है। अगर मेरी मदद करो तो…. ” तुम आगे-आगे चलने लगीं थी। जवाब न ना में था, न हां में। अपने पीछे-पीछे आता पा कर तुम ने कुछ टोका भी नहीं। मैं पैंट बचा कर गड्ढे पार करता तुम्हारे पीछे चल रहा था। मुझे अच्छी तरह याद है तुमने रास्ते में अपनी सहेली से रुककर बातें करने से पहले मुझे पलटकर देखा था। मैं थोड़ी दूरी पर आश्वस्त था कि मुझे पनाह मिल जायेगी। जल्दी ही हम लाल बंगला पहुंच गये थे।

तुमने घंटी दबाई तो एक कुत्ता भौंका था। मैं चौंक कर पीछे हट गया था। किसी महिला ने जो उम्र में साठ-पार वज़न से मालकिन दिख रही थी, दरवाज़ा खोला तो मैं अंदर आ गया था। अंदर छोटे-छोटे कई कमरे थे। तुम दोनों दाहिनी ओर के कमरों की क़तार के आख़िरी छोर पर कमरे के पास जहां सीढ़ियां ऊपर चढ़ती हैं, रुकी थी। एक अधेड़ मोटी औरत ने रौबीली आवाज़ में पूछा था, “एनूं तूं लै के आई एं?” मेरा खून सर्द होने लगा था। मैंने संकलन की पांडुलिपि पर हाथ दबाया मानों यही मेरी गीता हो। तुम दोनों बिना देखे-पूछे ऊपर चली गईं, मुझे उस औरत के सामने कटघरे में खड़ा कर “जी मेरा पेट ख़राब है…. टॉयलेट जाना है,” मैंने सामान नीचे रखते हुए कहा।

सीढ़ियों के नीचे बने संडास की ओर उसने इशारा किया। अंदर बत्ती जला कर मैंने खुद को संभाला “मारे गए! आये थे हरिभजन को…. संकलन क्या छपेगा यहां तो रंगे हाथ एक आतंकवादी कवि के भेष में पकड़ा गया।” गला सूख रहा था। इससे पहले कि वह मर्द जिसकी गरजने की आवाज़ें सुनने लगीं थीं, मुझे खींच कर बाहर करता, मैंने शराफ़त से बत्ती बंद कर, हाथ जोड़े औरत के पास जाने लगा धन्यवाद करने कि भाई साहब ने ओ ये मां के…. बहन के उधर नहीं इधर चल…. तेरी…. यानी पूरे महाभारत की तैयारी थी। जैसे गदा-प्रहार के पहले वाक्-युद्ध से ललकारा जा रहा था। मैंने हाथ जोड़ दिये “साहब मेरा पेट ख़राब था…. ।”

पेट ख़राब था। ओ ए…. यहां आने की हिम्मत कैसे हुई? और गालियों की झड़ी बरसने लगी। मुझे काटो तो खून नहीं। मैं गिड़गिड़ाया- “देखिये साहब शरीफ़ आदमी की तरह बात कीजिए…. गालियां क्यों दे रहे हैं?”

फिर एक गुच्छा गालियां…. “हम तेरी हड्डियां तोड़ दें, आतंकवादी। घर में घुसा…. तेरी….” (और गालियां)

मुझे मुहल्ले की शराफ़त का अंदाज़ा लग गया था। जल्दी-जल्दी दहलीज़ की तरफ़ क़दम बढ़ाता पर मेरा कविता संकलन और झोला वहीं औरत के पास पड़ा था।

“मेरी तबीयत ख़राब थी भाई साहब। पेट गुड़गुड़ा रहा था…. ”

“ओ ए तो यहीं मादर…. किनारे बैठ लिए होते,” उसने बहती हुई नाली की तरफ़ इशारा किया।

“ऐसे भाई साहब अच्छा लगता है। आप ही मुझे बैठने देते?” मैं घबराया हुआ हकलाने लगा था। कातर होकर गिड़गिड़ाया माफ़ कर दीजिए। प्रेम कविताओं का संकलन छपवाने आया था दिल्ली। मेरा झोला दे दीजिए प्लीज़। मर्द ग़ुस्से से पैर पटकता अंदर धमका। संकलन वाला झोला और एयर-बैग एक ही हाथ में उठा बाहर नाली पर दे मारा- “लै जा, भाग” और गालियों का एक भारी गुच्छा पीछे आ टकराया।

मैं भूखे भिखारी की तरह संकलन को बचाने के लिए टूट पड़ा। नाली में हाथ डालकर उसे बाहर निकाला और छाती से लगा उसे सुखाने की कोशिश करने लगा।

पता नहीं तुम ऊपर से यह सब देख कर रो रही थी या हंस रही थी! पता नहीं, देखने की भी इजाज़त थी या नहीं!

“दफ़ा हो जा, इससे पहले कि तुम्हें थाने में दें!”

मैं प्रेम कविताओं के संकलन की पांडुलिपि छाती से लगाये भारी-भरकम एयर-बैग कंधे लटकाये पूरे ज़ोर से भागा!

सब याद आता है तो आज भी सोचता हूं, हीरामन तीन क़समों के बाद चौथी क़सम खा पाता….?

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