-अरुण कुमार जैन

कल तक एकता के सूत्र में बंधा चौधरी परिवार आज चार टुकड़े हो गया था। समाज की प्रतिष्ठा माने जाने वाले परिवार की ही प्रतिष्ठा धूल-धूसरित हो गयी थी। सारा गांव स्तब्ध था।

“चारों को शालिनी काकी ने ही पाला-पोसा, एक सा रहन-सहन, वही लाड़-दुलार! फिर क्यों ये अलग हो गए मां?” परिवार के बिखराव पर आश्चर्य करती हुई पड़ोसन समता ने अपनी मां से पूछा।

“अरे बेटी, एक अकेली मां की जब तक चली, तब तक तो चारों एक ही थे, जब चारों की चार घरों से सीखी, चार बहुएं आ गईं, तो अकेली मां के संस्कार क्या करते? सभी ने तो अपने-अपने मर्द को अपने-अपने पल्लू में बांध रखा है।” बूढ़ी मां ने बेटी को बिखराव का रहस्य समझाया।

“फिर भी थे तो ये शालिनी काकी के बेटे …” समता पर मानों मां की बात का कोई असर नहीं पड़ा।

“पेड़ का तना भी तो एक ही होता है, सभी शाखाओं को भोजन, पानी व सहारा देता है, पर ये जो फैली हुई शाखाएं, जो अपनी-अपनी दिशा से प्रकाश व हवा लेकर बढ़ती हैं, कहीं आगे जाकर एक हो पाती हैं? … रोज़ और अधिक दूर होती जाती हैं, एक दूसरे से।” मां ने मर्म समझाया।

“अब शालिनी काकी क्या करेंगी मां, वे तो बहुत दुःखी हैं” समता ने फिर पूछा।

“वह भी पेड़ के तनों व जड़ों की तरह, बिना घबराये इनका बोझ सहेंगी, विनाशकारी तांडव देखेंगी इनका। क्योंकि यदि शाखाओं को सहारा नहीं देंगी तो विनाश तो पेड़ का ही होगा। तेरी शालिनी काकी भी विनाश से बचने के लिए चारों की कड़वाहट झेलेंगी, रोज़ हलाहल पिएंगी इनका, आख़िर मां जो है।”

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