–विपिन कुमार

मेरे पास एक मेहनती दिहाड़ीदार आदमी के रूप में कार्य करता हर काम को पूरा करने में उसकी ज़ुबान हमेशा वचनबद्ध रहती थी। उसे बूढ़ी मां की आंखों का ऑप्रेशन करवाना था, इसलिए वह हर महीने अपने वेतन में से अलग से अढ़ाई सौ रुपये निकाल कर मेरे पास जमा करवाता था। मां के प्रति उसकी श्रद्धा को देखकर मैं एक उच्च पद पर कार्य करने वाला व्यक्ति भी उसे मन ही मन में ज़िन्दगी का असली आदर्श नायक मानकर उसकी इज़्ज़त करने लगा था। उसके द्वारा जोड़ी गई राशि जो अब पूरे पांच हज़ार हो गई थी, आज वह लेने आ रहा था। मैं सौ-सौ रुपये के नोटों को गिनती के आख़िरी रूप में गिनकर एक लिफ़ाफ़े में रख कर सोच रहा था कि अगर ऑप्रेशन के इन पैसों में उसको हज़ार-दो की ज़रूरत और पड़ी तो मैं उसको अपनी जेब में से दे दूंगा। क्योंकि मैं अपने इस आदर्श नायक को ज़िन्दगी की किसी लड़ाई में कहीं हारते हुए नहीं देखना चाहता था, ‘जो भी हो, जहां भी मेरी मदद की ज़रूरत हो करूंगा।’ मेरे मन ने यह आख़िरी पक्का फ़ैसला कर लिया।

वह ठीक चार बजे मेरे पास आया और मैंने लिफ़ाफ़े में से नोटों का बंडल निकाल कर उसको थमाते हुए कहा- ‘ऑप्रेशन के लिए मां को डॉक्टर के पास कब ले जा रहे हो?’ मैंने पूछा तो वह लिफ़ाफ़े को जेब में संभाल कर रखते हुए कहने लगा ‘बाबू जी, अब ये पैसे अम्मा की आंखों के इलाज के लिए ख़र्च नहीं होंगे।’

‘तो फिर।’

‘बस, मत पूछिये बाबू जी।’ वह कुछ ठंडी सांस छोड़ते हुए बोला, ‘मैं पिछले काफ़ी महीनों से आपके पास जो पैसे जमा करवाता रहा था इसके बारे में सिवाये मेरे और आपके कोई तीसरा नहीं जानता था लेकिन ग़लती से दो दिन पहले ही मेरी पत्नी के सामने इस जमा धन की बात जब से प्रकट हुई तब से वह खाना पीना छोड़ कर, बालों को बिखेर हड़ताल पर बैठी हुई है… उसकी मांग है कि मैं इस जमा राशि से उसके गले में पहनने कि लिए सोने की कोई चीज़ ज़रूर ला कर दूं… वर्ना वह मुझ से कभी भी बात नहीं करेगी।’

‘तो फिर तुमने क्या सोचा।’

‘सोचता क्या बाबूजी’ उसने गर्दन को झुकाकर कहा, मैंने पत्नी की बात को मानने में अक्लमंदी समझी। उसने तो सारी ज़िन्दगी मेरे साथ रहना है… अम्मा का क्या है वह अपनी सारी उम्र को पार कर चुकी है और दुनियां के सभी रंगों को लगभग देख चुकी है…। आंखों के ऑप्रेशन के लिए अगली बार सोच लेंगे…।’

इतना कहकर मेरे सपनों का आदर्श नायक हारे हुए जुआरी की तरह पीठ मोड़कर वापिस चला गया…।  

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