-दिनेश शर्मा

उस दिन सारे गांव में एक ही बात सुनी-सुनाई जा रही थी। जिसका पता तो सब को था, लेकिन फिर भी हर सुनाने वाला सुनने वाले के कान तक पहुंचाने का प्रयास कर रहा था। पहले दिन की ही तो बात थी। जब दोपहर को सरोज अपने बापू गोपी को रोटी देने के लिए खेत में जा रही थी। उस बेचारी को स्वयं भी नहीं पता था कि आज उसके साथ वह सब होगा जिसकी कल्पना मात्र भी किसी नारी के लिए भूकम्प से कम नहीं।

वह बेफ़िक्री से चली जा रही थी। वैसे तो शायद उसे बेफ़िक्र होना भी चाहिए था। क्योंकि गांव में हर कोई दूसरे की इज़्ज़त अपनी इज़्ज़त से कम नहीं समझता। लेकिन वह भूल गई थी कि अब सूचना प्रसारण युग है। हर घर में टेलीविज़न है, हर घर में ‘सरकाई लो खटिया…’ ‘कांटा लगा…’ जैसे गीत सुने-देखे जाते हैं और गांव भी प्रगति कर रहे हैं।

सरोज कुछ गुनगुनाती हुई-सी गांव से पूरी तरह से बाहर निकली भी न थी कि किसी ने पीछे से पकड़ कर पास वाले खेत में खींच लिया। वह समझ ही रही थी कि क्या हो रहा है, पर शीघ्र ही कुछ समझने को बाक़ी न था। वह भाग निकला। जैसे-तैसे खड़ी हुई हिम्मत करके बापू के पास खेत में पहुंची। उसे उस हालत में देख उसके बापू ने उससे पूछा कि क्या हुआ। पर बोली कुछ नहीं, कुछ भी नहीं। बिना कहे सब स्पष्ट तो था…। ‘तन पर कपड़े पूरे नहीं पड़ रहे थे। जिन हाथों में रोटी थमी थी, उन्हीं हाथों से अब तन ढांपने का काम लिया जा रहा था। सिर से चुनरी उड़ चुकी थी। मन की स्थिति चेहरे से अभिव्यक्त हो रही थी और … आंखें राह ताकने के लिए भी पूरी तरह से भी ऊपर नहीं उठ पा रही थी।’ यह सब देखकर गोपी को कुछ पूछने की आवश्यकता थी ही कहां। आवश्यकता थी तो मात्र यह जानने की कि किसने…? मौक़े की नज़ाकत देख गोपी ने स्वयं को संभाल लिया था। आख़िर एक किसान कृषि करते-करते स्वयं की परिस्थितियों के अनुरूप बदलना सीख ही लेता है। कभी बाढ़, कभी साहूकार … सबसे गुज़रता है।

उसके पास पहुंचने से कुछ पहले ही सरोज बेहोश होकर गिर पड़ी। गोपी सोचता रह गया और उसका प्रश्न उसके हृदय में ही अटक गया तथा सरोज के होश में आने तक भीतर ही भीतर जलता रहा। ख़ैर … होश तो आना ही था, सो आया और सब स्पष्ट हो गया। संशय के बादल छंट गये, सच्चाई सूर्य के प्रकाश की भांति चमक उठी जिसका आभास गोपी की दहकती आंखों से हो रहा था। पौ फटते ही गोपी शेर सिंह की कोठी के गेट पर शेर-सा दहाड़ा। तभी से उसकी आवाज़ गुंजायमान-सी हो रही थी।

सभी को अब इस बात की कानों-कान ख़बर हो चली थी कि गोपी की बेटी सरोज के साथ शेर सिंह के बेटे बलबीर ने…। “अब जो होना था सो हो गया। बच्चे से ग़लती हो गई। अरे! गोपी, तुम बात का बतंगड़ न बनाओ और कुछ ले देकर मामला रफ़ा-दफ़ा करो।” शेर सिंह ने गोपी और उसके सम्बंधियों से कहा। भीतर ही भीतर आग की तरह सुलग रहे गोपी के लिए ये बातें वैसी ही थीं जैसे आग में घी। लेकिन वह सभी पंचायती लोगों की सलाह के बाद ही पुलिस या कोई अन्य क़दम उठाना चाहता था। इसलिए बस यही कहा था उसने- “अगर पंचायत ने इस हराम … (कई गालियां दी थी उसने) को सज़ा नहीं दी तो मैं उसे फांसी लगवाकर ही दम लूंगा। आख़िर उसने मेरी इज़्ज़त पर हाथ डाला है।”

इसके कुछ दिन बाद सब सामान्य हो गया और शुरू हो गया पंचायतों का सिलसिला, जो गांवों में बरसों चलता है। अब कुछ असामान्य था तो वह था सरोज के लिए। क्योंकि वह जब भी गली में निकलती तो इधर-उधर से यही आवाज़ें आती- “यही है वह … यही है वह … जिसके साथ बलबीर ने…” फिर एक दिन गोपी और पंचायत के कर्त्तव्यों की इतिश्री हो गई तथा पंचायत के निर्णयानुसार सरोज की शादी बलबीर से कर दी गई। अब सरोज के जीवन का साथी उसे ही बना दिया गया जिसने उसके साथ…। पर वह क्या कर सकती थी। वह उस दिन की तरह आज भी मौन रही और उसके पिता तथा रिश्तेदार उसके जीवन को बलबीर के हाथों में सौंप निश्चिंत हो गए। आख़िर सरोज क्या करती? यह वह स्वयं भी नहीं सोच पाई।

ससुराल में गृह प्रवेश के समय उसकी सास ने कहा “तू गंदी नाली का कीड़ा है। यह मत समझ कि पंचायत ने मेरे बेटे से तुझे ब्याह दिया तो यहां तुझे बहू समझ कर रखा जाएगा। जब तक जीवित है काम कर और जूठन से पेट भर।” वह कुछ भी प्रत्युत्तर में नहीं कह पाई। सुहागरात में भी उसका पति वही व्यवहार उससे करता है जो उसने कुछ समय पूर्व किया था। पर सरोज ने इसे नियति समझ लिया था। लेकिन उसके बाद तो हर रोज़ बलबीर अपने कुछ मित्रों के साथ आता और हर रोज़…। अब उसने पांचाली द्रोपदी को भी पीछे छोड़ दिया था। जिसके पांच पति थे, किन्तु सरोज को तो यह भी न पता था कि उसके कितने पति हैं? हर रोज़ नये चेहरे उसके हम बिस्तर बनते। पर उस दिन तो उसके सब्र का बांध टूट गया। जब मौक़ा देख शेर सिंह ने भी बहती गंगा में हाथ ज़बरदस्ती धो ही लिए।

इसके बाद सरोज के मन में कुछ उधेड़ बुन चलने लगी। वह मन ही मन सोचती कि दिन में नौकरानी रात में वेश्या मेरा अस्तित्त्व ही क्या है? और क़सूर? इसी सब के चलते उसने एक कठोर निर्णय ले लिया था। लेकिन अब भी चुप थी। इस बात की किसी को कानों-कान ख़बर न थी कि वह क्या करने वाली है? पर आज सब साफ़ हो गया था, सरोज ने बलबीर के पूरे परिवार को दूध में ज़हर देकर मार दिया था और स्वयं भाग गई थी। घटनास्थल पर एक काग़ज़ पर लिखा मिला था, “अलविदा मैं सबसे बड़ी आदालत में जा रही हूं, तलाश मत करना।”

 

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