–शबनम शर्मा
आज नया साल चढ़ा है। अभिमन्यु को गये पूरे तीन साल हो गये। वीरां हर रोज़ घर का सारा काम निपटाकर बाहर आंगन में बैठ जाती। जैसे ही उसे कोई साइकिल की घंटी बजती सुनाई देती, उचक कर देखती। डाकिये के आने का समय है। सरकार ने अभिमन्यु को वीर चक्र देने की घोषणा की थी। पूरा सप्ताह बीत गया। वीरां की उत्सुकता बढ़ने लगी। आज इतवार है, कल मेरा संदेश ज़रूर आयेगा। सोच-सोचकर उसका दिन काटे नहीं कट रहा था। बैठे-बैठे उसकी आंखें छलछला उठीं। वह अतीत के घेरे में घिरी पांव से ज़मीन खोदने लगी। यही आंगन, यही घर, वो सामने वाला बड़ा पीपल का पेड़, जहां से घर तक वो लाल जोड़े में सिमटी सी धीमे-धीमे क़दमों से घर की दहलीज़ पार करके आई थी। घूंघट की ओट से उसने अभिमन्यु को सफ़ेद कुरते पजामे में गुलाबी पगड़ी बांधे देखा था। लम्बा चौड़ा, सुन्दर राजकुमार सा युवक। बस देखते ही रह गई थी। 2-4 दिन रसमें निभाकर वो दोनों मसूरी घूमने निकल गये थे। शान्त स्वभाव, मुस्कुराते चेहरे के साथ सप्ताह भर बिता कर घर वापिस आ गई थी। अभिमन्यु मात्र 20 दिन की छुट्टी लेकर आया था। कब बीत गई पता ही न चला। फिर वह अपने गंतव्य की ओर रवाना हो गया था। अपनी बटालियन का मुखिया था वह। उसने घर से ज़्यादा समाज व देश को महत्त्व दिया। वीरां पूरे 6 माह घर पर रही। घर का सारा काम सीख, सबको पहचानने की पूरी कोशिश की। फिर अभिमन्यु आया व उसे अपने साथ ले गया। इस बीच उनका नन्हा वंश आया। दुनियां ही बदल गई। दिन-रात अपनी रफ़्तार से बीतने लगे। वीरां वंश को सुलाने दूसरे कमरे में गई। घंटे भर बाद जब वापिस आई तो अभिमन्यु अपना सामान बांध रहे थे। वीरां ने मज़ाक किया, “कहां जा रहे हो इतनी रात में?” उसने वीरां की आंखों में आंखें डालकर कहा, “मां का संदेश आया है, बस निकल रहा हूं।” “अकेले ही?” वीरां ने कहा। “हां, वहां तुम्हारा क्या काम? मैं कारगिल जा रहा हूं।” बात पूरी भी न हुई थी कि घंटी बजी। बाहर गाड़ी थी। हाथ हिलाता हुआ, मुस्कुराता हुआ अभिमन्यु गाड़ी में बैठ चला गया। वीरां बुत सी बनी दरवाज़े पर खड़ी जाती गाड़ी को देखती रही।
बस वो उनका आख़िरी मिलन था। ठीक 22 दिन बाद अभिमन्यु तिरंगे में लिपटा घर आ गया। उसने आतंकवादियों के ठिकानों को ढूंढ़ा व उड़ा दिया था। उसके दाहिने हाथ में गोली लगी थी। उसके बावजूद भी उसने 3-4 और लोगों को मौत के घाट उतार दिया। सरकार ने उसकी इस शहीदी पर उसे “वीर चक्र” देने का ऐलान किया था।
उसकी तन्द्रा भंग हुई। छोटा देवर अंकुर पास खड़ा था। बोला, “भाभी क्या सेच रही हो? माफ़ करना, कल रात मुझे घर आने में देर हो गई। जब मैं कल दोपहर में खाना खाकर जा रहा था तो मुझे हरिया ने यह पत्र दिया था। उस वक़्त रात को आप सो चुकी थी।” वीरां ने पत्र खोला, पढ़ा। अभिमन्यु का वीरचक्र लेने के लिये उसे दिल्ली बुलाया गया है। उसकी आंखें बुरी तरह छलछला उठीं, वह कमरे में जाकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी कि एक आवाज़ ने उसके सारे आंसू सुखा दिये। “उठो, वीरां तुम एक आम औरत नहीं, भारत मां के वीर शहीद बेटे की पत्नी हो।” वह उठी उसने आंखें पोंछी, मुंह धोया व तैयारी करने लगी दिल्ली जाने की, जहां उसकी सफ़ेद साड़ी पर रंग-बिरंगे गुलाल बिखरेंगे।
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