फ़रीदाबाद बस अड्डे पर रिक्शा से उतर कर सुखनजीत ने सामने की तरफ़ देखा तो उसे चण्डीगढ़ जाने वाली बस नज़र आई। वह तेज़ी से अपनी छोटी अटैची को उठाकर बस की तरफ़ लपका। कंडक्टर चण्डीगढ़…चण्डीगढ़ की आवाज़ेें लगा रहा था। सुखनजीत बस में चढ़े। बस में अधिकांश सीटें ख़ाली पड़ी थी। 15-20 सवारियां बैठी थीं। सुखनजीत दो सीटों वाली ख़ाली सीट पर खिड़की से लग कर बैठ गए। अपनी छोटी अटैची उन्होंने अपनी दोनों टांगों के बीच ख़ाली पड़ी जगह पर टिका दी। फिर वे खिड़की से बाहर बस अड्डे का जायज़ा लेने लगे। फ़रीदाबाद में वे अपने ऑफ़िशियल टूर से कल आए थे। देर रात तक काम पूरा करने के बाद वे आज सुबह 10 बजे के लगभग वापिस चण्डीगढ़ लौट रहे थे।

सफ़र करते हुए हर आदमी की यह खूबसूरत ख़्वाहिश होती है कि पास वाला बैठा सहयात्री हसीन, खूबसूरत लड़की या युवती हो तो सफ़र का मज़ा ही दोगुना हो जाता है और सफ़र भी आसानी से कट जाता है। ऐसी ही कुछ ख़्वाहिश सुखनजीत अपने मन में पाले बैठा था। मगर उनकी ये ख़्वाहिश…ख़्वाहिश ही रह गई। उनकी चाहत पूरी नहीं हो पाई, क्योंकि उनके पास साथ वाली सीट पर एक बुज़ुर्ग आ कर बैठ गए थे। पूछने पर ही पता चला था कि वे महाशय पानीपत तक जाएंगे। पानीपत तक का सफ़र अब उन्हें इस बुज़ुर्गवार के साथ ही गुज़ारना पड़ेगा, ऐसा सुखनजीत ने मन ही मन सोचा।

बस चलने के बाद सुखनजीत फ़रीदाबाद और दिल्ली की ऊंची-ऊंची इमारतों को देखने लगे थे। कहीं बस ब्रिज के ऊपर से निकलती तो कहीं ब्रिज के नीचे से। दिल्ली कितनी फैल चुकी है वे सोच रहे थे। वाहनों द्वारा आवागमन कितना व्यस्त हो गया है। जगह-जगह जाम लग जाते हैं। दिल्ली से बाहर निकलना ‘टेढ़ी खीर’ हो गया है। दिल्ली बाईपास पर घंटों जाम लग जाता है। खुद सुखनजीत की बस लगभग ‘सवा घंटे’ जाम में फंसी रही। चींटी की चाल सी बस सरक रही थी। सुखनजीत ने सोचा, अब वे कम से कम सवा घंटा लेट चण्डीगढ़ पहुंचेंगे। मन में कुछ कुढ़न-सी भर गई। दिल्ली बाईपास से निकल कर बस की स्पीड में कुछ राहत मिली।

समय पास करने के लिए सुखनजीत के पास अपनी ही प्रकाशित कहानी की पुस्तक थी ‘भंवर’। लिखने का शौक़ उन्हें स्कूल-कॉलेज के समय से ही था। सर्विस के समय उन्होंने अपना लेखन शौक़ जारी रखा। आज साहित्य जगत में उनका एक जाना माना नाम था। कहानी की किताब उनके हाथ में ही थी। कभी-कभार वे पुस्तक खोल कर एक-दो पृष्ठ पढ़ लेते, फिर बाहर देखते हुए मनन करने लगते। बस पूरी रफ़्तार से चलती हुई अपने विभिन्न स्टापों पर रुकती, सवारियां उतारती, चढ़ाती अपनी मंज़िल की ओर बढ़ रही थी। सुखनजीत बाहर के नज़ारे अपनी आंखों में क़ैद करते जा रहे थे। इन नज़ारों को कभी न कभी अपने लेखन में उतारेंगे, ऐसा वे मन बनाए हुए थे।

बस पानीपत के क़रीब पहुंच रही थी। ‘ओवर ब्रिज’ बनने के कारण यहां पर भी अपार भीड़ रहती है। बस सिर्फ़ रेंग रही थी। एक ही साइड में छह-छह कतारें बनी हुई थी। ऐसा लग रहा था कि पैदल चलने वाला भी इन वाहनों को चाल में मात दे सकता था। सुखनजीत बेचैनी से सीट पर पहलू बदल रहे थे। बस अब तक कहीं भी किसी बस अड्डे में नहीं गई थी। उन्हें अब कुछ भूख का एहसास होने लगा था। लगभग एक घंटे की मशक़्क़त के बाद बस जाम से बाहर निकली। नया पुल बनने की वजह से ऐसी स्थिति कई दिनों से बनी हुई थी। पानीपत बस अड्डे के बाहर ही सवारियों को उतार दिया गया। बुर्ज़ुगवार भी उतर गए थे। कुछ नई सवारियां भी चढ़ी। तभी सुखनजीत ने देखा, एक युवती बस में चढ़ी। उसने जल्दी से अपना एक कैरीबैग सुखनजीत के पास ख़ाली सीट पर रखा और अपना दूसरा कैरीबैग सीट के आगे वाली ख़ाली जगह पर ‘एडजस्ट’ किया। खुद सीट पर रखे बैग को उठा कर बैठ गई और घुटनों पर रख लिया।

सुखनजीत ने कनखियों से युवती की तरफ़ देखा। तीखे नैन-नक्श लिये गौरवर्ण युवती थी वह। सुखनजीत स्वयं को खुशकिस्मत समझ रहे थे जो उन्हें इस युवती का संग मिला। बस में बैठी कई जोड़ी आंखें उस युवती को किसी न किसी बहाने से चोरी-चोरी देख लेते थे। उनकी आंखों में सुखनजीत के लिए ईर्ष्या के भाव थे। वे सोच रहे थे, काश! हम बैठे होते सुखनजीत की जगह। सुखनजीत उनके मनोभाव पर रोमांचित से हो रहे थे। साहित्य से जुड़े सुखनजीत लोगों की ‘साइकॉलोजी’ से भली-भांति परिचित थे। ऐसा अमूमन होता है। उनकी इस सोच में दम भी था।

सुखनजीत मन ही मन एक बात सोच रहे थे। यह हसीं सफ़र कहां तक होगा? करनाल, अम्बाला…या फिर चण्डीगढ़? ख़ाहमख़ाह दिमाग़ पर बोझ डाले सुखनजीत… उनका बोझ शीघ्र ही ख़त्म हुआ जब कंडक्टर के पूछने पर युवती ने चण्डीगढ़ का टिकट लिया। सुखनजीत का दिल बल्लियों उछल रहा था। सोचा, चलो मेरा चण्डीगढ़ तक का सफ़र अच्छी तरह कट जाएगा।

युवती से बातचीत करने की ग़रज़ से सुखनजीत ने युवती से कहा, “आप अपना बैग यहां अटैची पर रख दें। कब तक घुटनों पर ही रखे रहेंगी?”

युवती ने एक पल सुखनजीत की तरफ़ देखा, फिर रूखा-सा उत्तर देकर कहा, “नहीं ऐसे ही ठीक है।”

सुखनजीत चुप से रह गए। क्या कहते? आगे बोलने लायक़ कुछ बचा ही न था। बातचीत करने का मज़ा लेने की चाहत पर पहले ही पूर्ण-विराम लग चुका था। वे अब अपने में ही सिमटने लगे थे। हां, कभी-कभार वे युवती को देखना नहीं भूलते थे। कभी सुखनजीत को महसूस होता कि युवती भी कनखियों से उनको देख लेती है। वे भी अनजान से बने रहते।

अभी बस करनाल के समीप पहुंच रही थी कि युवती ने घुटने पर रखे बैग को खोला। उसमें से एक बिस्कुट का पैकेट निकाला और पैकेट खोल कर उसमें से एक बिस्कुट निकाला। तभी सुखनजीत ने खिड़की की तरफ़ मुंह घुमा लिया, मुस्कुराते हुए से। सुखनजीत के कानों में युवती के मधुर स्वर गूंजे, “सर…! ये लीजिए।”

 सुखनजीत ने चेहरा घुमाया, देखा, युवती मुस्कुरा कर बिस्कुट का पैकेट आगे किये हुए उनसे बिस्कुट लेने का आग्रह कर रही थी।

“नो…थैंक्स…!” सुखनजीत मुस्कुरा कर बोले थे।

 “प्लीज़…ले लो…!” युवती ने फिर आग्रह किया।

न जाने क्यों इस बार सुखनजीत इनकार नहीं कर पाये और हाथ बढ़ा कर एक बिस्कुट ले लिया। पिछले छह घंटों से सुखनजीत बस में एक क़ैदी के समान बैठे हुए थे। बस में सफ़र करना कभी-कभी कितना कष्टदायक हो जाता है, आज उन्हें महसूस हो रहा था।

बिस्कुट दांतों से काटने के बाद सुखनजीत ने बातों का सिलसिला शुरू किया, “आप यहां पानीपत में…!?”

“जी, यहां मेरा मायका है।” युवती बिस्कुट खाते हुए बोली।

पहली बार सुखनजीत को लगा कि वह धोखे में था क्योंकि उसे कहीं से भी युवती विवाहित नहीं लग रही थी। चौंकते हुए बोला, “आप शादीशुदा हैं?”

“जी…।” कह कर युवती मुस्कुराई।

“और आप चण्डीगढ़ जा रही है?” सुखनजीत ने उसकी आंखों में झांकते हुए कहा।

“वहां मेरा ससुराल है।” कहते हुए युवती ने बिस्कुट का पैकेट फिर सुखनजीत की तरफ़ बढ़ा दिया।

एक बिस्कुट पैकेट से निकाल कर सुखनजीत ने पूछा, “आपके पति…?”

“जी…वे एक सरकारी एम्पलाई हैं।”

“और आप…? क्या कोई नौकरी में?” सुखनजीत ने बिस्कुट कुतरते हुए पूछा।

“मैं चण्डीगढ़ में ही एक प्राइवेट स्कूल में टीचर हूं।”

सुखनजीत कुछ देर चुप रहे। बिस्कुट खाते रहे। कनखियों से युवती को देखा। फिर बोले, “जानती हो, इस बस में बैठे मुझे छह घण्टे हो गए हैं। दो जगह तो जाम में फंसे रहे। बस कहीं पर भी नहीं रुकी। ड्राइवर बाहर-बाहर ही निकल रहा है। सच कहूं…आपके बिस्कुटों ने मुझे बहुत राहत पहुंचाई। सचमुच मुझे भूख लग रही थी।” कहते हुए सुखनजीत हंस पड़े थे।

“अरे! और लीजिए न!” युवती ने पैकेट फिर आगे बढ़ाया।

“बस…प्लीज़…!”

“अरे लो भी…!” युवती कुछ अपना अधिकार जमाते हुए कह रही थी। सुखनजीत को युवती का यह अंदाज़ बहुत अच्छा लगा। उन्होंने बिस्कुट ले लिए।

“पिपली बस अड्डे पर सब बसें चाय पानी के लिए रुकती हैं। वहीं कुछ चाय-कॉफी ले लेंगे!” युवती ने बताया।

“काश! ऐसा हो…तब वहां चाय या कॉफी ज़रूर पीयेंगे।” सुखनजीत ने युवती को इस ढंग से कहा कि युवती खिलखिला कर हंस पड़ी।

“आप क्या करते हैं? सर्विस में या फिर…?” युवती ने बाहर खिड़की से झांकते हुए पूछा।

“मैं एक निजी कम्पनी में सेल्ज़ मैनेजर हूं।” सुखनजीत ने बताया।

“कहां पर…!”

“चण्डीगढ़ में ही।” सुखनजीत ने कहा।

दोनों चुप से रह गए। अपने-अपने मन में कुछ सोचते हुए से। शायद बातों का अकाल, पड़ गया था। बस कब पिपली पहुंची, पता ही नहीं चला। वही हुआ जिसका डर था। बस बाहर ही से निकल गई।

“देखा…मेरी क़िस्मत…?” सुखनजीत बड़बड़ाये।

“क्यों, क्या हुआ?”

“चाय-कॉफी पीने, पिलाने का मौक़ा भी हाथ से निकल गया।” सुखनजीत ने मायूस-सा होकर कहा।

युवती हंस पड़ी, बोली, “मुझे तो इसकी ज़रूरत नहीं थी। हां, शायद आपको इसकी आपको अवश्य ज़रूरत थी।”

मन ही मन सुखनजीत सोच रहे थे कि बिस्कुटों का कर्ज़ वे चाय या कॉफी पिला कर पूरा कर सकते थे। यह एहसास काफ़ी देर तक उनके दिलो-दिमाग़ पर ज़िन्दा रहा था।

“लगता है आपको पढ़ने का बहुत शौक़ है?” युवती ने उनकी गोद में पड़ी पुस्तक की तरफ़ देखते हुए पूछा।

“सही कह रही हैं आप।” सुखनजीत ने गोद में रखी पुस्तक को हाथ में लेते हुए कहा, “लेकिन सफ़र के दौरान बहुत कम पढ़ता हूं। हां, प्राकृतिक नज़ारे देखने का मुझे शौक़ है।”

“फिर ये पुस्तक…?” युवती ने हाथ में पकड़ी पुस्तक की ओर संकेत करते हुए पूछा।

“ओह…ये पुस्तक…?” इससे पहले सुखनजीत कुछ कहते, युवती बोली, “दिखाना तो ज़रा?”

सुखनजीत ने कुछ बोले बिना पुस्तक उसकी ओर बढ़ा दी। पुस्तक पकड़ते हुए युवती ने पुस्तक के शीर्षक को पढ़ा। ‘भंवर’ कहानी संग्रह। सुखनजीत। युवती ने पुस्तक खोली। 20 कहानियां संकलित थी। अचानक युवती ने पुस्तक को पलटा। पुस्तक की बैक पर फ़ोटो देख वह चौंक पड़ी। एकदम मुंह से निकला, “ओह, माई गॉड! आप लेखक भी हैं?”

युवती हैरानी से सुखनजीत की तरफ़ ताक रही थी। उसकी ओर प्रशंसनीय नज़रों से देखते हुए बोली, “आप लिखते भी हैं।”

“बस यूं ही उल्टी-सीधी क़लम चला लिया करता हूं।” सुखनजीत रोमांचित से होकर बोले।

युवती बहुत कुछ लेखन के बारे में पूछती रही। वह सुखनजीत से काफ़ी प्रभावित हो चुकी थी।

“मैं यह पुस्तक ले लूं?” युवती ने पूछा।

“हां…हां…क्यों नहीं! मुझे खुशी होगी।” सुखनजीत उत्साहित-सा होकर बोला।

“कितने पैसे दूं?” युवती ने पर्स खोलते हुए कहा।

“आपसे पैसे नहीं लूंगा मैं। क़ीमत देनी ही है तो आप पुस्तक पर अपनी राय व प्रतिक्रिया ज़रूर दें। मेरे लिए आपकी राय व प्रतिक्रिया ही मेरी पुस्तक का मोल होगी।”

“मैं आपको इस पुस्तक पर ज़रूर अपने विचारों से अवगत करवाऊंगी।” युवती उत्साहित-सी बोली।

“मुझे आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार बना रहेगा।” सुखनजीत ने मुस्कुरा कर कहा।

इसी तरह बातें करते-करते वे चण्डीगढ़ पहुंच गए थे। सायं सात बजे के क़रीब। सुखनजीत ने पूछा, “यहां से कैसे जाओगी?”

“मुझे मेरे ‘हसबैंड’ लेने आएंगे।” युवती बस अड्डे पर नज़रें दौड़ाते हुए बोली।

“क्या मैं आपका शुभ नाम जान सकता हूं?” सुखनजीत ने धीरे से पूछा था।

“अरे…वो…सामने…! मेरे ‘हसबैंड’…बाईक पर…।” युवती ने चहकते हुए इशारा किया।

“अब हमारी मुलाक़ात कब होगी? मालूम नहीं?” सुखनजीत निराश से बोले।

“कहीं-न-कहीं…ऐसे ही…?” युवती ने कहा और फिर तेज़ी से सुखनजीत को हाथ हिला कर बॉय-बॉय स्टाईल में कहते हुए आगे बढ़ गई।

सुखनजीत वापिस घर लौट आए। मन में युवती का दिलकश व मोहक अंदाज़ लिए।

आज इस बात को हुए 15 दिन से ज़्यादा हो गए थे। अपने कमरे में खिड़की से बाहर आसमान के चांद को निहारते हुए सुखनजीत एक ही बात सोच रहे थे कि क्या पुस्तक की क़ीमत सिर्फ़ वो चार बिस्कुट मात्र थे जो उस युवती ने उन्हें प्यार से दिए थे, क्योंकि उन्हें आज भी पुस्तक पर युवती की राय व प्रतिक्रिया का इंतज़ार बना हुआ था।

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