– डॉ. अनामिका प्रकाश श्रीवास्तव

“तुम भी किस ज़माने की बात करते हो, सुखी?  अरे अब ये सब बातें छोड़ो, ये सत्य, ये अहिंसा, ये सदाचार, ये नैतिकता, ये सब बुज़दिलों की बातें हैं। वो ज़माना गुज़र गया जब लोग इनके बल पर  ही समाज में अपना ऊँचा स्थान बना लेते थे। आज इनके चक्कर में पड़ोगे तो मि. सुखवीर, खाने को दाने भी नहीं मिलेंगे, नाम बदलना पड़ जायेगा तुझे। सुखवीर से दुखवीर बन जायेगा। विकास ने सुखवीर को समझाने का प्रयास किया।

देख विकास जैसे तुझे अपने सिद्धान्तों पर पूरा विश्‍वास है न वैसे ही मुझे अपने गाँधी जी के सिद्धान्तों पर पूरा विश्‍वास है। जब तक दम में दम है मैं इन्हीं सिद्धान्तों पर चलने और चलाने का प्रयास करता रहूँगा।

दोनों के बीच अपने–अपने मत को लेकर काफ़ी समय तक बहस होती रही। रिज़ल्ट वही ढाक के तीन पात न कोई हारा न कोई जीता। मुंह से मुंह हारता है कभी।

वक्‍़त भी अजीब खेल खेलता है इन दोनों की विचार धारा में, क्रियाकलाप में ज़मीन असमान की दूरी। एक आग तो एक पानी। एक राम तो एक रावण। एक यूपी का तो एक गुजरात का। विकास कानपुर तथा सुखवीर अहमदाबाद का निवासी था। …दोनों कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के लिए इलाहाबाद आए थे। दैवयोग से दोनों एक ही कालेज के छात्र थे। दोनों की दोस्ती भी एक संयोग थी। बी.एस.सी. करने के बाद आजकल दोनों ही इंजीनियरिंग की कोचिंग कर रहे हैं।

“देख सुखवीर, तू स्वयं कुछ भी कर, किसी भी सिद्धान्त पर चल लेकिन किसी और को चलाने का प्रयास मत करना, नहीं तो लोग तुझे ख़ामखा़ह पागल समझ बैठेंगे क्योंकि वास्तव में तू पागल तो नहीं है ये मुझे विश्‍वास है।” विकास ने फिर उसे छेड़ने का प्रयास किया।  

वैसे ये दोनों एक दूसरे की हंसी उड़ाने से नहीं चूकते। दोनों बड़े खुश मिज़ाज हैं। एक दूसरे की टांग खींचते तो हैं पर कभी बुरा नहीं मानते।

“हाँ ठीक है ठीक है, मुझे तू सचमुच पागल समझ ले और थोड़ी देर के लिए मेरा पीछा छोड़, मुझे ज़रूरी काम करना है।” सुखवीर काम में जुट गया।

“अच्छा बाबा अब मैं भी चलता हूँ, तू समझता है तेरे पास ही काम है, मैं तो आवारा हूँ मुझे भी एक ज़रूरी काम है” विकास बोला।

काम और तुझे ? वह भी ज़रूरी ? क्यों हांकता है? ….सुखवीर ने प्रश्‍न किया। “अरे बहुत ही ज़रूरी काम है,  जिसमें सबसे ज़्यादा फ़ायदा तो तेरा ही है, लेकिन तेरे पास सुनने का टेम ही नहीं है, तो….मैं क्या कर सकता हूँ।” अच्छा मैं चलता हूँ, बाय। …..

सुखवीर विकास को जाते देखता रहा। “मेरे फ़ायदे का काम, और इसके पास! ये तो सम्भव ही नहीं है….ख़ामख़ाह एक तुर्रा छोड़ कर चला गया। जैसे मैं इसकी बेसिर पैर की बातों में  विश्‍वास कर लूँगा। हुं।”

सुखवीर को अपने सर्टीफिकेट किसी गज़टेड ऑफिसर से अटेस्ट कराने थे। कचहरी उसके कवार्टर के पास ही थी अत: वह तहसीलदार के ऑफिस पहुंच गया।

एक बड़े शानदार कमरे के एक हिस्से पर डायस पड़ा हुआ था जिस के ऊपर तहसीलदार साहब की सीट थी। सीट के ऊपर काफ़ी पुराने ज़माने का पंखा मंथर गति से चल रहा था। तहसील के सारे मुकद्दमे इसी अदालत में सुने जाते। तहसीलदार एक जज की हैसियत से इस आसन पर विराजते तो उनकी शान चौगुनी हो जाती। जज के आसन के ठीक पीछे की दीवार पर बड़े करीने से लगा कर रखे गांधी जी मुस्करा रहे थे। मैं मन ही मन गांधी जी को अभिवादन कर, उनके व्‍यक्‍त‍ित्‍व और कृतित्व पर नतमस्तक हो गया।

अभी जज साहब की कुर्सी ख़ाली थी। मैंने वहां के मुंशी जी से जानना चाहा। “नमस्ते भाई साहब।”

“नमस्ते, कहिए क्या काम है?”

“मुझे तहसीलदार साहब से मिलना है,” मैंने उत्तर दिया।

“लेकिन क्यों? आप काम बताइए।”…मेरे पास समय कम है ज़रा जल्दी बताएं।”

“जी,…..वो….बात ये है कि, मुझे अपनी कुछ मार्कशीट अटेस्ट करवानी हैं।”

“तो ऐसे बोलिए न, फ़ालतू में परेशान हो रहे हैं। इधर लाइए क्या–क्या है?”

सुखवीर ने उन्हें सर्टीफिकेट दिखाते हुए एक एक करके समझा दिया, “कुल कितनी हैं,” मुंशी जी ने गिनकर देखा, “कुल पांच है,” “अच्छा दीजिए,” कहते हुए मुंशी जी ने बांया हाथ आगे बढ़ा दिया।

“जी,… जी सर बस इतनी ही हैं।”

“अरे अजीब घन चक्कर हैं आप। क्या पहली बार आए हो? अरे यहां फोकट में कुछ नहीं होता। चलिए निकालिये जल्दी से, मेरे पास इतना फ़ालतू का टेम नहीं है” चलिए जल्दी कीजिए

“सर मैं समझा नहीं।”

“अच्छा, तो आप समझ नहीं पा रहें हैं, कि मैं क्या कह रहा हूं? किस कक्षा तक पढ़े हो? अच्छा बी.एस.सी….पास हो। लेकिन क्या चोकर दे के पास किया है? अरे यहां इस देश में पैसे के बिना कुछ होता है भला। चलो निकालो, पांच के हिसाब से पांच सर्टीफिकेट के हुए पच्चीस। चलो पच्चीस निकालो।

“क्यों मज़ाक कर रहे हैं अंकल ? भला अटेस्ट कराने के भी पैसे देने पड़ते हैं कहीं। और फिर ये तो घूसखोरी है, आप इस न्यायलाय में ही न्याय के ख़िलाफ़ कार्य कर रहे हैं।”

“अच्छा तो बड़े कायदे कानून मालूम है आपको, जेब में टका नहीं और चले हैं अटेस्ट करवाने। हुं, ये लीजिए अपने दो कौड़ी के सर्टीफिकेट। और यहां से चलते बनिए। जब जेब में कुछ टका हो तब इस दरवाज़े के अन्दर आने की हिम्मत करना।” मुंशी फिर अपने काम में लग गया। सुखवीर कुछ देर तक उसे घूरता रहा, सरे आम इस तरह लूट घसूट को देखकर उसका मन बहुत बेचैन होने लगा। उसे लगा यहां तक आया हूं तो थोड़ी और ट्राई करता हूं, शायद बात बन जाय।

वह मुस्कराते हुए फिर मुंशी जी के पास पहुंच गया। मुस्कराकर बड़े प्यार से बोला,“अंकल, आप कितने अच्छे हैं। चूंकि अभी मेरे पास पैसे नहीं हैं, और शायद ऐसे काम उधार भी नहीं किए जाते, उधार नहीं करोगे न आप।” “बिल्कुल नहीं।” मुंशी सख़्त होकर बोला। “कोई बात नहीं अंकल, मैं कल पैसे लेकर आऊंगा। अब अंकल आप तो जानते ही हैं, बिना आप लोगों के सहयोग के हम लोग कुछ कर ही नहीं सकते, जाति, आय, निवास आदि के प्रमाण पत्र तो आप लोग ही बनवाते हैं, अत: आप लोगों से सम्बन्ध बना के रखने में ही भलाई है।”……. “अरे चाय वाले। ज़रा इधर तो आना।” चाय वाला पास आ गया, “जी साहब”, “देखो ऐसा करो 100 ग्राम गरमा गरम भजिया, और तीन चार कप स्पेशल कड़क चाय लेकर आओ।”  “जी साहब अभी लाया।” चाय वाला चला गया।

चाय, पकौड़ी का असर मुंशी साहब को होने लगा था, वह मुस्कराते हुए बोले, “बेटे नाम क्या है तुम्हारा?… “जी, मेरा नाम सुखवीर।”…. “हां, तो बेटा सुखवीर। अब तुम इस ज़माने के हिसाब से ढलने की तरफ़ क़दम बढ़ा रहे हो, अब सफलता तुम्हारे चरणों में होगी।”

“लेकिन, अंकल एक बात मेरी समझ में नहीं आयी। इजाज़त हो तो पूछूं।”

“बिलकुल निसंकोच पूछो बेटे। पूछो क्या पूछना चाहते हो ?”

चाय वाला भजिया और चार कप चाय ले आया। दो कप पास ही काम कर रहे दो अन्य सज्जनों की मेज़ तक पहुंचा दिया। सुखवीर और मुंशी महोदय चाय चूसने लगे।

“हां तो तुम कुछ जानना चाहते थे। बोलो संकोच मत करो।” पूछो – पूछो।  “अंकल ये किसकी तस्वीर है?” सुखवीर ने गांधी जी की तरफ़ इशारा किया।

“अरे कमाल है, आप इनको नहीं जानते! भई कमाल है, पता नहीं लोग कैसे पढ़ाते हैं? सारी पढ़ाई चौपट है। मेरा भी एक नाती है,  थर्ड में पढ़ता है। एक पब्लिक स्कूल में। एक दिन मैंने उससे पूछ लिया , बेटे एक और एक कितने होते हैं? वह बोला,  “दो”। मैंने कहा, धत्त तेरे की, दुनिया जाने कब की एक और एक ग्यारह में पहुंच गयी, और तू अभी एक और एक दो में ही अटका हुआ है।”

“अरे भाई ये अपने गांधी बब्बा हैं, हां, मोहन दास करमचंद गांधी।” ये हमारे राष्ट्रपिता हैं , इन्होंने हमें आज़ादी दिलायी थी। बेटे, वाह क्या इन्सान थे वो। कितना जोश था उनमें? अरे इन्होंने अपने सत्य और अहिंसा के बल पर अंग्रेज़ों के होश उड़ा दिए। वास्तव में ऐसा जीवट वाला इन्सान कभी-कभी ही धरती पर जन्म लेता है। अरे बेटा , गांधी जी तो एक अवतारी पुरुष थे।”

“अच्छा अंकल, इतनी खूबी थी इनमें? भई कमाल है, धन्य है ये भारत भूमि जहां पर ये पैदा हुए।” सुखवीर ने पहले गांधी जी को फिर मुंशी जी को झुककर प्रणाम किया।

“अरे…रे…रे…बेटे मुझे क्यों प्रणाम करते हो?” प्रणाम योग्य तो गांधी जी हैं, एक फ़रिश्ता, एक देवता, अरे मैं तो कहता हूं ये तो साक्षात भगवान थे। तभी तो अकेले, बिना किसी गोली बारूद के अंग्रेज़ों को देश से बाहर खदेड़ दिया था! बेटे उनके पास एक लाठी , हरदम रहती थी, चाहते तो मार–मार के गोरों की टांगे तोड़ देते, लेकिन नहीं, उन्होंने कभी किसी पर लाठी नहीं उठायी। अहिंसा वादी थे न।

“आप धन्य हैं अंकल, गांधी जी के बारे में आप इतना ढेर-सा जानते हैं। आप कितने महान हैं? और एक मैं निरामूर्ख, अहमदाबाद में गांधी आश्रम के बिल्कुल बगल का रहने वाला मैं गांधी जी को नहीं जानता ?” अंकल मैं वाकई बहुत ही शर्मिंदा हूं।

“अरे इसमें शर्माने की कौन सी बात है। आप ही अकेले नहीं हैं, ऐसे करोड़ों नौजवान हैं जो गांधी जी के बारे में ए.बी.सी.डी. तक नहीं जानते। जब कि सरकार ने स्कूल की किताबों में गांधी जी के बारे में सारी जानकारी छाप रखी है। अब बेटे, जब मास्टर जी पढ़ायेंगे नहीं, बच्चे पढ़ेंगे नहीं तो क्या खाक़ पता पड़ेगा कि ‘गांधी जी’ किस चीज़ का नाम है। है कि नहीं? अब इसमें भला सरकार का क्या कसूर है ?”

“हां बेटा, जब से मैंने होश संभाला, गांधी जी के सिद्धान्तों को कभी नहीं छोड़ा। आज तक मैं उनके बताए रास्ते पर ही चल रहा हूं। रही बात भक्‍त‍ि की, तो बेटा, प्रतिदिन उनके समक्ष बैठकर रघुपति राघव राजाराम का पाठ करता हूं। सुबह शाम दो – दो अगरबत्ती नियम से जलाता हूं। यहां पर भी सुबह–सुबह आफिस की साफ़–सफ़ाई हो जाने के बाद बड़ी श्रद्धा से पांच अगरबत्ती ज़रूर जलाता हूं।” आख़िर उनका कितना ऋण है हम सब पर। उनकी अनेक किताबें भी हैं मेरे पास।”

“भई वाह, अंकल, आप जैसा गांधी भक्‍त मैंने ज़िन्दगी में आजतक कोई दूसरा नहीं देखा। आप के रोम रोम से गांधी जी की विचारधारा टपक रही है।” मुंशी जी का सीना गर्व से फूल गया।

“लेकिन अंकल एक बात मेरी समझ में नहीं आयी। …आप घर में तो दो अगरबत्तियां लगाते हैं लेकिन यहां इस फोटो में पांच लगाते हैं! भला ऐसा क्यों? इसका क्या राज़ है?”

अरे बेटा, गांधी जी कभी–कभी मौन वृत भी रखते थे, जैसे गांधी जी के तीन बन्दर हैं न वह अपने इशारों से कितनी बड़ी शिक्षा दे रहें हैं? वह तो तुम्हें पता ही होगी या वो भी नहीं जानते।”

“नहीं अंकल, आपकी तरह ठीक से नहीं जानता, ज़रा आप ही ठीक से समझा दीजिए न” “अरे बेटे ये तो बहुत ही आसान सी बात है। तीनों बन्दर बुराई के बारे में इशारा करते हैं। पहला बन्दर आंख बन्द करके संदेश देना चाहता है कि बुराई कितनी भी होती रहे उसकी तरफ़ क्यों देखते हो, ये तो होनी ही है, देखने में समय क्यों बर्बाद करते हो? बुरा काम करने वाले का साथ दो। दूसरा बन्दर, अपने कान बन्द कर हमें सिखा रहा है कि बुरा काम न करने के लिए कोई कितना भी आप को रोके टोके, उसकी सुनो ही नहीं, जो मन में आए करते जाओ। और रहा तीसरा बन्दर वह तो बहुत ही सुपर सन्देश देता है बेटे,….वह समझाना चाहता है कि कितना भी बुरा काम कोई कर रहा हो, उसे करने दो उससे कुछ नहीं कहो।”….देखा मौन भाषा का कमाल। धन्य हैं गांधी जी आप धन्य हैं कितनी सुपर सोच थी आपकी।”

“लेकिन अंकल आप वो पांच अगरबत्ती लगाने का रहस्य तो भूल ही गए। बताइए न।” “बेटे ये भी मौन इशारे वाली बात है। गांधी जी का चित्र देख रहे हो न, इसमें गांधी जी ने अपना दाहिना हाथ ऊपर उठा रखा है। यहां पर गांधी जी अपनी पांचों अंगुलियों के इशारे से ये बताना चाह रहे हैं कि पांच का अंक बड़ा शुभ है। इसलिए पांच अगरबत्तियां जलाता हूं।”

“अच्छा ये बात है, ‘लेकिन एक बात मुझे बेचैन कर रही है।’ आप गांधी जी के चित्र के सामने ही उनके सिद्धान्तों का मखौल उड़ाते हैं। घूस लेकर पब्लिक को चूसते हैं। आप तो गांधी जी के सच्चे अनुयायी हैं फिर आप ऐसा क्यों करते है ?”

“बेटे समझो तो सही, गांधी जी का मौन इशारा। गांधी जी ने बहुत सी बातें मौन वृत के कारण इशारों में कही हैं।”

“वो कैसे ? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आया।” नई बात जानने के लिए सुखवीर उत्सुक हो गया।

“देखो बेटे, गांधी जी के चित्र को ध्यान से देखो, अपने हाथ को ऊपर उठाकर अपने पंजे से इशारा कर रहे हैं कि हर एक काम के कम से कम पांच, तो लेने ही हैं। ज़्यादा कितने भी हो सकते हैं। इस हाथ का, साथ ही दूसरा मतलब भी समझाया हुआ है, कि जो पांच भी न दे, उसे चपत मार कर यहां से बाहर भगा दो।”

“और अंकल इनकी ये लाठी! ये भी कुछ कह रही है शायद। मैं बताऊं अंकल।”… “हां हां तुम ही बताओ।”…..“अंकल आज आपकी भाषा में बताऊं तो शायद ये कह रही है कि जो, पांच भी न दे, थप्पड़ से भी न जाय, उसे लाठी मार कर बाहर खदेड़ दो। है न अंकल”

“शाबास बेटे, बिल्कुल ठीक समझे।”…और इनकी कमर में जो यह घड़ी लटक रही है न, ये भी बड़ा ज़बरदस्त संदेश दे रही है कि जो बातें ऊपर बताई गयीं हैं, आज के समय की यही मांग है। अगर पूरी तरह गांधी जी के इशारों पर चलें तो, कैसा भी समय आ जाय, ससुरा समय तुम्हारी कमर में लटका रहेगा, तुम्हारे अधीन ही रहेगा।” एक आख़िरी बात और अगर गांधी जी के इन सिद्धान्तों पर नहीं चले तो तुम भी गांधी जी की तरह एक फटी सी लंगोटी लगाए घूमोगे।”

ठीक इसी समय तहसीलहार साहब का प्रवेश हुआ। सब लोग उठ खड़े हुए। “थैंक यू अंकल, आपने गांधी जी की बहुत ही सारगर्भित विचार धारा बताई। मैं धन्य हो गया।”

सुखवीर की शक्ल देखने लायक थी, गांधी जी के सिद्धान्तों, उनकी मर्यादाओं, उनके नैतिक मूल्यों का एक न्यायालय के अन्दर सरेआम ऐसा घिनौना बलात्कार, देखकर वो पागल सा हो गया। उसकी आत्मा धिक्कार उठी, देख तेरे गांधी जी के सिद्धान्तों की कैसी अर्थी निकाल रहे हैं ये न्यायालय के ठेकेदार। जिन गांधी के सिद्धान्तों पर चलने के लिए तू हर तूफ़ान से टकराने को तैयार रहता है, आज एक न्यायालय के पिद्दी से मुंशी ने तेरी सारी हवा निकाल दी।

उसे लगा कि सरेआम इस तरह सत्य की हत्या देखकर भी वह चुप रहे ये तो बड़ी ही बुज़दिली होगी। मुझे कुछ न कुछ करना होगा। सुखवीर का सिर तनाव से चकरा रहा था। “लेकिन मैं करूं तो क्या करूं?” …. “मुझे इसकी शिकायत न्यायाधीश महोदय से करनी चाहिए।”….वह हिम्मत करके तहसीलदार साहब के पास पहुंच गया।

“गुड मार्निंग सर, मैं हूं, सुखवीर, मैं आपसे एक मिनट बात करना चाहता हूं, सिर्फ़ एक मिनट।”

“कहिए क्या बात है। मि.सुखवीर?”

“सर मुझे अपनी मार्कशीटस अटेस्ट करानी हैं।….सर….,” जज महोदय बात काटते हुए बोले।

“ठीक है हो जायेंगी, मुंशी जी को दे दीजिए।” जज महोदय ने मुंशी जी की तरफ़ इशारा किया।

“लेकिन सर, बात ये है न कि मुंशी जी मुझसे कह रहे थे कि मैं उन्हें अटेस्ट करवाने के लिए।”

“आपने घंटेभर से जाने क्या मैं मैं लगा रखी है। जाइए, उनसे मिल लीजिए ये काम वही करवाएंगे, उन्हीं की ज़िम्मेदारी में है ये काम।”

“लेकिन सर, बात वो नहीं है, जो आप समझ रहे हैं। बात ये है कि।”

जज महोदय झल्ला पड़े और डांटते हुए बोले, “देखो मि. मेरे पास फ़ालतू कामों के लिए समय नहीं है, सरकार मुझे तुम्हारे अटेस्टेशन के लिए पैसा नहीं देती। …. फिर भी मैं समझा रहा हूं कि हो जायेगा, परेशान न हों, लेकिन फिर भी मुझे बार-बार डिस्टर्ब किए जा रहे हैं। ….जाइए, मुंशी जी से मिलिए, जैसा वो कहें वैसा ही कीजिए, फ़ालतू टेंशन मत कीजिए। काम हो जायेगा।

तभी एक चपरासी एक रजिस्टर लेकर आया, जिसमें अगले दिन के लिए आदेश लिखा था। जज महोदय के इशारे पर मुंशी ने आदेश पढ़ना शुरू किया।

“कल दो अक्टूबर है यानी गांधी जी का जन्म दिन है, पिछले वर्षों की भांति इस वर्ष भी हम सभी को इसे धूम-धाम से मनाना है। कल के इस पुनीत अवसर पर पूज्य गांधी जी की आदम कद अष्टधातु की प्रतिमा का अनावरण सुबह ठीक आठ बजे जिलाधिकारी महोदय करेंगे। सभी की ठीक समय पर उपस्थिति अनिवार्य है।” आज्ञा से श्रीमान तहसीलदार।

फिर चपरासी रजिस्टर में बारी–बारी से सभी के हस्ताक्षर करवाकर बाहर चला गया। सुखवीर सोचने लगा, गांधी जी के देश में गांधी जी का कितना मान सम्मान है? उनका कद कितना ऊंचा है? लोग किस तरह से उनकी मर्यादाओं का पालन कर रहे हैं? ये सब देख समझ कर सुखवीर के कदम अधिक देर तक वहां नहीं ठहर सके। एक हारे हुए घायल सिपाही की तरह वह कोर्ट से बाहर निकला था। उसे लगने लगा, वह अब सुखवीर नहीं रहा। दुख और दर्द के कारण अब वह दुखवीर हो गया हो।

वह लुटा पिटा सा चेहरा लिए कमरे में पहुंचा, विकास कब से उसका इन्तज़ार कर रहा था। वह बोला “अरे यार सुखी, …. आज तू इतना दुखी क्यों लग रहा है? तू तो वीर था आज ये पीर-सा क्यों दिख रहा है? सब ख़ैरियत तो है!….बता तो सही क्या हुआ?

सुखवीर सोच रहा था, इसे बताऊं या नहीं बताऊं! अगर बताऊं तो कैसे बताऊं? और क्यूं बताऊं? ये क्या करेगा? इसके बस में क्या है? सुनकर और ही हंसी उड़ायेगा मेरी।….“क्या सोच रहा है।” विकास ने पूछा।

“कुछ नहीं यार, कल गांधी जयन्ती है न, उसी के बारे में सोच रहा था।” ….

“अरे उनके बारे में क्या सोच रहा था, क्या वो अब जीवित हैं जो उनके बारे में सोच रहा था?”

“हां यार विकास, तभी तो सोच रहा हूं कि आज हमारे गांधी क्या प्रासंगिक रह गए हैं? उनके सिद्धान्त, उनकी अहिंसा, उनका सत्य, उनकी नैतिकता क्या किसी काम की रह भी गयी है या नहीं? अगर है, तो फिर उनके नाम पर अपने–अपने हिसाब से अर्थ निकाल कर लोग रोटियां क्यों सेक रहे हैं और अगर नहीं, तो फिर गांधी जयन्ती मनाने की क्या आवश्यकता है? …. यार विकास आज मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है। अब मैं सोने जा रहा हूं। कृपया मुझे डिस्टर्ब मत करना।

सुखवीर चार पांच घंटे से लेटा सोने का प्रयास कर रहा था। लेकिन नींद उसकी आंखों से कोसों दूर चली गयी। उसकी नींद क्यों उड़ी हुई है। उसे समझ में नहीं आ रहा। 

सारा देश तो चादर तान के सो रहा है। फिर तू ही क्यों परेशान हो रहा है? क्यों। आख़िर किस लिए, किसके लिए?”

उसका दर्द आंखों की कोर से छलकने ही वाला है, वह रोक नहीं पा रहा है।…..क्यों?

               

One comment

  1. its a nice story its reality
    well done

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