आधी रात को मुंशी अब्दुर्रहीम की नींद खुली तो उन्होंने अपने प्रिय शिष्य चन्द्रभान को पैर दबाते पाया। ‘‘चन्द्रभान, तू सोयेगा कब ? क्या सारी रात मेरे पैर ही दबाता रहेगा पगले ! रात बहुत हो गई है जा अपने घर और सो जा।’’ मीठी झिड़की देते हुए मुंशी जी ने कहा।

चन्द्रभान को गुरूभक्‍ति का नशा था। प्रतिदिन रात्रि को पहले वह मुंशी जी का हुक्‍़क़ा ताज़ा करता। क़रीने से तम्बाकू जमा कर उनकी कलात्मक चिलम भर कर उनके कामदार हुक्‍़क़े पर सजाता। फिर रात देर गये तक मुंशी जी के पैर दबाता। मुंशी जी हुक्‍़क़ा गुड़गड़ाते रहते व साथ-साथ चन्द्रभान को पढ़ाते भी रहते। कभी-कभी उन्हें झपकी आ जाती, पर चन्द्रभान पैर दबाना जारी रखता।

एक दिन वह नित्य की भांति गुरूजी के पैर दबा रहा था कि अचानक वे उठ बैठे और उन्होंने चन्द्रभान को गले लगा लिया। उनकी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बह निकली। चन्द्रभान को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि गुरूजी को क्या हो गया है। मुंशी जी की लम्बी सफ़ेद दाढ़ी आंसुओं से तर हो गयी थी।

‘‘चन्द्रभान, लगता है तुम पर पिछले जन्म का कुछ उधार बाक़ी है जो मुझे चुकाना है। तू तो अनमोल हीरा है। पढ़ने में भी ज़हीन और गुरूभक्‍ति में भी तेरा कोई सानी नहीं। इतनी सेवा तो कभी मेरे अपने बेटे ने भी नहीं की। पढ़-लिख कर तू शिक्षक बनना चाहता है न, मेरी बात को याद रखना-एक दिन शिक्षक ही नहीं बनेगा तू, एक श्रेष्‍ठ शिक्षक के रूप में तेरी गणना होगी।’’ कहते-कहते मुंशी जी ने चन्द्रभान का माथा चूम लिया।

मिडिल स्कूल तक की शिक्षा चन्द्रभान ने मुंशी अब्दुर्रहीम की ही छत्रछाया में प्राप्‍त की। एक ग़रीब परिवार से सम्बन्ध रखने वाले अपने प्रिय शिष्य की मुंशी जी आर्थिक मदद भी कर दिया करते थे।

टीचर ट्रेनिंग में भी दाख़िला उसे मुंशी जी की ही बदौलत मिला था। उनका वरद्हस्त उस पर सदा बना रहा। अच्छे अंकों से चन्द्रभान ने परीक्षा उत्तीर्ण की।

ट्रेनिंग के कुछ ही महीनों बाद चन्द्रभान की नियुक्‍ति एक प्रतिष्‍िठत विद्यालय में हो गयी। नियुक्‍ति के प्रथम दिन से ही उसने मुंशी जी के स्वप्न को साकार करना आरम्भ कर दिया।

कुछ ही वर्षाें में उनकी ख्याति एक समर्पित व कर्मठ शिक्षक के रूप में हो गयी। मास्टर चन्द्रभान विद्यार्थियों के चहेते बन गये। वे सबसे पहले विद्यालय में आते व सबसे बाद में जाते। गणित व हिन्दी पर उनका समानाधिकार था पर गणित उनका प्रिय विषय था। गणित के कठिन से कठिन प्रश्‍नों को हल करना उनके बायें हाथ का खेल था। आस-पास के विद्यालयों के शिक्षक तक अपनी शंकाओं के समाधान के लिए उनके पास आते। रविवार को भी वे बच्चों को बुलाते। नीम के पेड़ों की शीतल व घनी छाया में गणित के प्रश्‍नों को हल करने में मास्टर जी घण्टों एक कर्मयोगी की मानिंद लगे रहते। ज्ञानपिपासु विद्यार्थी उनकी एक-एक बात ध्यान से सुनते। कोई भी उनकी कक्षा न छोड़ता। यहां तक कि दूसरे सेक्शन के विद्यार्थी रविवार को उनसे पढ़ने में अपना सौभाग्य समझते।

पढ़ाने के साथ मास्टर जी को लिखावट में महारत हासिल थी। उनकी लिखावट ऐसी थी कि लड़ी में पिरोये मोती भी एकबारगी शरमा जायें। उन्‍होंने बहुत सी मोटी पतली, विभिन्न प्रकार की बांस व सरकंडों की क़लमें बनाकर विद्यालय को समर्पित की थीं। विद्यालय के निरीक्षण के समय उन्हीं के चार्ट सभी कक्षाओं की शोभा बढ़ाते। उच्चाधिकारी भी उनकी अत्यन्त सुन्दर लिखाई के क़ायल थे। अपनी इस कला को भी विद्यार्थियों में बांटने का वे पुरज़ोर प्रयास करते।

चाहे विद्या दान की बात हो या लेख सुधारने की, सभी विद्यार्थी उनसे कुछ न कुछ प्राप्‍त करने के लिए लालायित रहते। बदले में वे विद्यार्थियों से कोई अपेक्षा न करते। गन्ने के रस की खीर, बथुए व सरसों के साग से उन्हें विशेष लगाव था। कभी-कभार अपने विद्यार्थियों से गन्ने के रस, बथुए और सरसों के साग के अतिरिक्‍त वे कुछ भी स्वीकार न करते।

खादी का कुर्ता पजामा उनकी प्रिय पोशाक थी। सर्दियों में जैकेट या बंद गले का कोट उनकी शोभा बढ़ाता। एक नन्हा सा खूबसूरत डंडा विद्यालय में हमेशा उनके हाथ में रहता। लापरवाह व अनुशासनहीन विद्यार्थियों की वे अच्छी ख़बर लेते थे।

विक्रमादित्यकालीन तक प्राचीन सूखे तालाब के किनारे स्थित अपने विद्यालय में मास्टर जी ने नियुक्‍ति के प्रारम्भिक वर्षों से ही चार दीवारी के साथ-साथ फलदार वृक्ष लगवा दिये थे। कुछ वर्षाें बाद वृक्ष फल देने लगे थे। शहतूत व जामुन के पेड़ों की अधिकता थी।

मीठी काली जामुनें व रसीले शहतूत विद्यार्थियों, शिक्षकों व राहगीरों को तृप्‍त करते। बच्चों को जामुन खाते देख मास्टर जी का हृदय कमल खिल उठता। बिन खाये ही उनका मन परितृप्‍त हो जाता। छुट्टी वाले दिन विद्यार्थी, जामुन के पेड़ों पर ‘काई डंका’ खेलते। धीरे-धीरे मास्टर जी विद्यार्थियों में जामुन वाले मास्टर जी के नाम से प्रसिद्घ हो गये।

मास्टर जी व उनके छोटे भाई का परिवार यमुना के किनारे बसे एक छोटे से गांव में रहता था। दस सदस्यों के परिवार में वे एक मात्र कमाऊ सदस्य थे। छोटा भाई सूरजभान गांव में सिलाई का काम करता पर परिवार बड़ा होने के कारण वह अभाव में ही रहता। मास्टर जी यथा सम्भव भाई की मदद करते। उसके बच्चों को पढ़ाने में दिन-रात एक करते। प्रति रविवार गले-गले पानी में यमुना पार कर वे बच्चों को पढ़ाने गांव जाते। दोनों भाइयों व उनकी पत्‍न‍ियों में इतना प्रेम पूरे गांव में चर्चा का विषय रहता। सभी मुक्‍तकंठ से उनकी सराहना करते।

सूरजभान, तेरा भाई हीरा है हीरा ! ऐसा भाई ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगा, गांव के सरपंच हल्कू चौधरी अक्सर कहा करते।

‘सरपंच साहब, ठीक कहते हो आप, पर मेरा भाई तो हीरे से भी कहीं बढ़कर है। वह तो देवता है- देवता मैं तो भगवान् से प्रार्थना करता हूं कि मुझे हर जन्म में ऐसा भाई मिले’ कहते-कहते सूरजभान की आंखों से आंसू झरने लगते।

मास्टर साहब की पत्‍नी फूलवती एकदम अनपढ़ मगर गुणी महिला थी। दोनों भाइयों की पत्‍नियां सगी बहनें थी। छोटी बहन की मृत्यु के पश्‍चात् उसके सभी बच्चों को मां का प्यार देने में वह कभी पीछे नहीं रही। बच्चे भी उन्हें मां कह कर ही पुकारते।

दस वर्ष की कच्ची उम्र में जब फूलवती ब्याह कर आई तो उसे विवाह का अर्थ ही न पता था। न ही उसे घर का कोई काम ही आता था। धीरे-धीरे मास्टर जी का उस पर ऐसा रंग चढ़ा कि फूलवती सुबह-शाम प्रभु के भजन गुनगुनाने लगी और अपने हस्ताक्षर तक करना सीख गयी। मास्टर साहब जब बच्चों को पढ़ाते तो वह ध्यान पूर्वक सुनती। गांव भर में पाले की मां और गुल्लु की दादी के नाम से जानी जाती मास्टरनी फूलवती को कई कवितायें भी कंठस्थ हो गई थी। जब वह कभी बच्चों को कविता सुना रही होती तो मास्टर जी की हंसी रोके न रुकती। पर मन ही मन उन्हें बहुत अच्छा भी लगता। अनपढ़ फूलवती को जब गांव की महिलायें मास्टरनी कहकर बुलाती तो वह ओढ़नी का पल्लू मुंह पर रख कर शर्माती पर अन्दर ही अन्दर मुस्कुराती भी।

आज मास्टर चन्द्रभान के चालीस वर्ष के दीर्घ एवम् सफल अध्यापन काल का अंतिम दिन था। आज वे अन्य दिनों की अपेक्षा जल्दी उठ गये थे। दैनिक कार्याें से निवृत हो उन्होंने प्रभु अर्चना की। नया कुर्ता-पजामा और नए जूते पहने, गले में मफ़लर और सिर पर गांधी टोपी लगाई और बरसों से संभाल कर रखी मुंशी अब्दुर्रहीम द्वारा स्नेहपूर्वक भेंट की गयी जाकेट पहनकर विद्यालय जाने के लिये तैयार हो गये।

मास्टर साहब की पत्‍नी फूलवती देसी घी का हलवा लेकर काफ़ी देर से मास्टर जी के इन्तज़ार में खड़ी थी। ‘मुझे आज भूख नहीं है फूलवती आज मेरा मन वैसे ही भरा हुआ है’ मास्टर जी ने आंसुओं को किसी तरह जज्‍़ब करते हुए कहा। ‘आज मैं आपको यूं ही नहीं जाने दूंगी। कितनी खुशी का दिन है आज। फिर तुम तो जीवन भर सभी को खुशियां बांटते रहे हो। थोड़ी सी खुशी और आज मुझे दे दो। और तुम्हें तो हलवा बेहद पसन्द भी है न, थोड़ा सा खा लो’ कहते-कहते फूलवती भावुक हो उठी। ‘‘फूलवती तू मानेगी थोड़े ही तेरी पुरानी आदत है न अपनी बात को मनवाने की…’’ मास्टर जी सोच रहे थे अनपढ़ फूलवती समय के साथ कितनी समझदारी की बातें करने लगी है।

मास्टर जी ने जल्दी-जल्दी हलवे के कुछ निवाले गटके और तेज़ क़दमों से विद्यालय की ओर चल पड़े। उनकी चाल में भले ही पहले की सी तेज़ी न रही हो लेकिन चेहरे पर अपूर्व तेज़ व्याप्‍त था। उनके मन का एक कोना अव्यक्‍त पीड़ा से आप्लावित था।

मास्टर जी ने अपनी कक्षायें अपने चिरपरिचित अंदाज़ में पूर्ण समर्पण भाव एवम् मुस्तैदी से पढ़ायी। दिन की अंतिम कक्षा में भी ब्लैकबोर्ड पर उनका चाॅक सरपट दौड़ रहा था। कक्षा समाप्‍त कर उन्होंने विद्यार्थियों को आशीर्वाद दिया व जाने के लिए कहा। पहली बार विद्यार्थियों ने उनका आदेश नहीं माना था। वे वहीं खड़े रहे। अपने सबसे प्रिय शिक्षक से जुदाई की उन्हें भी कम पीड़ा न थी। वे उनसे बिछुड़ना नहीं चाहते थे। मास्टर जी ने पुन: आशीर्वाद देते हुए एक-एक विद्यार्थी को गले लगाया और उनसे विदा ली।

विद्यार्थियों के जाने के बाद मास्टर जी शान्त भाव से कक्षा में रखी कुर्सी पर बैठ गये। अपने चालीस वर्ष के अध्यापन के जीवन में कक्षा में वे पहली बार कुर्सी पर बैठे थे। वे एकाएक ध्यान मग्न हो गये। आज उन्हें मुंशी अब्दुर्रहीम की बहुत याद आ रही थी। उन्हें लगा कि मुंशी जी साक्षात् सामने खड़े हैं, मानों कह रहे हों, ‘‘मैं न कहता था चन्द्रभान तू एक दिन महान् शिक्षक बनेगा। तेरे विद्यार्थियों को तुझ पर गर्व होगा। आज सही अर्थाें में तूने मेरे शिष्यत्व को सार्थक किया है।’’ मास्टर जी की आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे।

विद्यालय परिवार के सभी सदस्य, विद्यालय के प्रांगण में लगाये गये पंडाल में बैठ मास्टर जी की प्रतीक्षा कर रहे थे। कुछ ही देर बाद उनका विदाई समारोह आरम्भ होने वाला था। विभिन्न क्षेत्रों में उच्चपदों पर कार्यरत उनके अनेक शिष्य भी विशेष रूप से आये थे। जब काफ़ी देर के बाद भी मास्टर जी नहीं आये तो प्रधानाचार्य महोदय ने रामखिलावन माली को उन्हें बुलाने भेजा।

काफ़ी देर बाद रामखिलावन के ख़ाली लौटने पर प्रधानाचार्य ने कारण पूछा ‘‘बड़े साहब, मास्साब को कुछ हुई गवा लगता है। कुछ ओपरे-ओपरे का चक्कर लागत है। आंखें बंद किये मास्साब कभी ब्लैकबोर्ड को छू-छू देखत हैं। कबहूं जामुन के पेड़वा को बार-बार लिपटत हैं और चूमत जात हैं। कबहूं बागवा की मिट्टी को सिर लगावत है’’ रामखिलावन ने आशंका जताई।

पंडाल में सन्नाटा पसर गया था सभी की आंखें सजल हो उठी थी। किसी को कुछ कहते नहीं सूझ रहा था। तभी सन्नाटे को भंग करते हुए भावविह्वल होकर मुख्याध्यापक बोले, ‘‘तुम नहीं समझोगे रामखिलावन। मास्टर चन्द्रभान ने इस विद्यालय को अपने स्वेद बिंदुओं से सींचा है। यहां के पेड़ पौधों, चॉक, ब्लैकबोर्ड, डेस्क, कुर्सियों और यहां के विद्यार्थियों में उनकी आत्मा बसती है। वे तो इस विद्यालय के कोहनूर हैं- जिन पर हमें नाज़ है। वे विदा होकर भी यहीं रहेंगे- जामुनों व शहतूतों की मिठास में, यहां के फूलों की सूरभि में और यहां के विद्यार्थियों में। उनकी कमी हम कभी पूरी न कर पायेंगे… कभी नहीं’’ कहते-कहते उनका गला रुंध गया था।

पंडाल में उपस्थित सभी जन अश्रुपूरित नेत्रों से मास्साब के आने की चुपचाप प्रतीक्षा करने लगे। 

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