-अशौक गौतम

मन बहुत खिन्न था। इसलिए नहीं कि श्रीमती मायके से आने की डेट बार-बार स्थगित कर रही थी, इसलिए भी नहीं कि पत्नी के घर में होते हुए पड़ोसन को समय दे पाना कठिन हो रहा था, बल्कि इसलिए कि इन दिनों साहब से अपने तार नहीं जुड़ पा रहे थे। साहब की कृपा के बिना एक सांस लेना भी कठिन जो होता है भाई साहब।

आनन फ़ानन में इस महाकष्ट निवारण के लिए जन्म पत्री ले गली के कुख्यात पण्डित जी के पास जा पहुँचा। जब से सरकार ने विश्वविद्यालयों में ज्योतिष को विषय बनाने की सोची है, जन्मपत्री में घोर विश्वास हो गया है। विवाह के बाद जन्मपत्री पर से विश्वास उठ गया था अपुन का। जहां चक्कर था वहां विवाह इसलिए नहीं हो पाया था क्योंकि जन्मपत्री ने टांग अड़ा दी थी। और जहाँ विवाह जन्मपत्री के मिलान से हुआ वहाँ आज तक चक्कर नहीं चल पाया।

पण्डित जी ने जन्म पत्री दाएं-बाएं ऊपर-नीचे घुमायी, स्लेट पर जमा-घटाव, गुणा-भाग किया तो ज्ञात हुआ कि शनि की महादशा चल रही है। मैं बेकार में ही समझ रहा था कि अन्य सहयोगियों ने अपने तार भिड़ाने के चक्कर में साहब से जुड़े मेरे तार काट डाले हैं। बन्धुओ, माफ़ करना! आप पर बेकार का शक करने के लिए मैं बेहद शर्मिंदा हूँ।

 पण्डित जी ने धमकाया कि अगर समय रहते शनि का उपचार न हुआ तो स्थिति और नाज़ुक हो सकती है। मैं श्रीमती से हुए कटु संबंधों में जी सकता हूँ, पर साहब से कटु संबंध! न रे मेरे बाप! पत्नी ज़्यादा हुआ तो मायके जाने की धमकी देगी, उससे ज़्यादा हुआ तो मायके से कभी न लौट आने की धमकी देगी। पर सरकारी नौकर की पत्नी आत्महत्या की धमकी भूले से भी नहीं देगी, चाहे वह समझदार क़तई भी न हो।

‘तो उपाय बताएं पण्डित जी।’ मेरे कहने भर से पण्डित जी ने ग्रह शान्ति के लिए सामग्री की पहले ही बनी लिस्ट दांत पैने करते हुए मेरी ओर बढ़ाई, ‘भक्त, ये सामग्री ले आना। पूजा शान्ति का आयोजन करना पड़ेगा। साहब, सहस्रनाम की पच्चीस हज़ार मालाएं करनी होंगी।’

‘सब करवाऊंगा पण्डित जी! शनि ही क्या, किसी और ग्रह की बुरी दशा भी चल रही हो तो, वह भी बता दीजिए, लगे हाथ… एक ही बारी में मैं सभी ग्रहों से मुक्ति पा लेना चाहता था ताकि बुरे दिन सदा को टल जाएं।’ सरकारी नौकरी में भी तिल-तिल मरते हुए जीना पड़े तो काहे की सरकारी नौकरी? इससे बेहतर तो पुलिस स्टेशन के आगे मूंगफली बेचना है।

पण्डित जी से ग्रह शान्ति का उपाय ले मूर्छित लक्ष्मण को संजीवनी मिली। खुशी का ठिकाना न था। पन्सारी से बिना मोल भाव किए पूजा सामग्री लिए घर पहुँचा तो पत्नी को प्रसन्न देख आश्चर्य हुआ।

‘क्या बात है? आज बहुत खुश नज़र आ रहे हो। कोई अच्छी मुर्गी फंस गई थी?’ सरकारी नौकर को बीवी से राम बचाए। ज़रा-सी मुस्कुराहट लेकर भी घर लौटो तो… या तो… या फिर…

‘नहीं प्रिय’, अगर सिर में एक भी काला बाल होता तो हीरो बन श्रीमती को बांहों में भर लेता।

‘तो क्या साहब से तार जुड़ गए?’

‘जुड़े तो नहीं पर नुसख़ा लाया हूँ। अब संकट के दिन गए समझो।’ मन फुदक-फुदक कर गा रहा था- ‘दु:ख भरे दिन बीते भैय्या, सुख भरे दिन आयो रे… रंग जीवन में नया पायो रे…. ’

नियत तिथि को पण्डित जी पधारे। पूजा की तैयारी  कर पण्डित जी ने कहा, ‘तो, यजमान शुरू करें?’

‘क्या?’ मैं तंद्रा से जागा। पूजा में बैठते ही मुझे लग रहा था साहब मेरे तार अपने से जोड़ने के लिए खुद ही खींच रहे हैं।

 ‘पूजा पाठ।’

‘पण्डित जी, चाहे पूजा शुरू करो चाहे लू….. पर जल्दी करो।’ अभी वे शुरू होने वाले ही थे फिर अचानक रुक कर बोले, ‘पर यार, गणेश भी लाने थे।’

‘गणेश?’

‘हाँ, गणेश!’

‘वह कहाँ मिलेंगे?’

‘घर में नहीं हैं क्या?’

‘घर में तो अशांति के सिवा कुछ नहीं।’

‘नहीं, पूजा आरम्भ के लिए तो गणेश ही चाहिए। पड़ोस से ले आओ।’ मैं ऐसे उठा मानो टाइफ़ाइड के पेशेंट पर सौ घड़े किसी ने हिम जल डाल दिया हो। गिरता पड़ता पड़ोसन के घर जा पहुँचा। पड़ोसन हफ़्ते बाद मुझे दिन-दिहाड़े अपने घर आया देख झूम उठी। शरमाते हुए, इठलाते हुए, बलखाते हुए शोख़ कली हो उसने पूछा, ‘क्यों जी? इतने दिनों बाद याद आई मेरी?’ उसका उलाहना गोपी से कम न था।

‘प्रिय, ज़रा जल्दी में हूँ। गणेश होंगे क्या?’

‘मेरे तो गणेश भी तुम ही हो, दिनेश भी तुम ही हो, महेश भी तुम ही हो….आ… ’

‘अभी नहीं, जल्दी में हूँ। सुअवसर मिलते ही चला आऊंगा।’ मैंने पड़ोसन को अपनी प्रीत की याद में ताज महल बनाने का वादा दिया और मन्दिर की ओर मुड़ा। गणेश जी वहाँ भी नहीं। मेरे धीरज का बांध टूटने लगा था कि सामने से गणेश आते दिखे।

‘गणेश जी। आप यहाँ। मैं आप को मारा-मारा फिरता हुआ कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढ रहा था। कम से कम मन्दिर में तो रहा करो नाथ। राम की तरह राम मन्दिर न बनने पर आप बेघर भी नहीं।’ मैं उनके चरणों पर गिर पड़ा।

‘मन्दिर में? तुम रहने दो तब न।’ उन्होंने पसीना पोंछा। पहले अपना, फिर मेरा।

‘अब तो घर चलो गणपति महाराज। तुम बिन पूजा ही शुरु नहीं हो पा रही है।’ मैंने तुलसी दास सी दास्य भक्ति प्रदर्शित की।

‘यार, मैं अभी नहीं जा सकता। अभी तो मुझे बीड़ी के प्रचार-प्रसार के लिए एक पोज़ देना है। बाद में एक क्लाथ हाउस के लिए उनकी शूटिंग के प्रचार के लिए फ़ोटो खिंचवाना है। उसके बाद आटे वालों के आटे के प्रचार के लिए बोरियों पर छपना है। फिर एक कम्पनी के जांघियों की बिक्री के लिए स्टूडियों में फ़ोटो सेशन के लिए जाना है। फिर एक धूप के विज्ञापन की शूटिंग है… फिर… महीने भर तो मेरे पास टाईम नहीं, किसी और को ले जाओ।’ कह वे आगे सरक लिए।… अब और किसे पूजा में ले जाऊं? जब गणेश ही विभिन्न उत्पादों की मार्केटिंग में इतने व्यस्त हैं तो औरों के पास तो… मेरा मन बहुत उदास है दोस्तो। हे सरकार! इतिहास में परिवर्तन के साथ-साथ पूजा आरम्भ के लिए गणेश के स्थान में भी परिवर्तन कर दो ताकि मुझे शनि के प्रकोप से मुक्ति मिले और मैं साहब पदों में रम सकूँ।

One comment

  1. WONDERFUL Post.thanks for share..extra wait .. ?

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