अंततः उन्होंने दिल्ली छोड़ दी थी। दिल्ली छोड़ना कोई नई बात नहीं थी। लोग सवेरे आकर शाम को अपने-अपने घरों की ओर लौट जाते हैं और कुछ लोग एकाध महीना और एकाध साल रहकर चले जाते हैं। उनसे मेरा क्या रिश्ता रहा? मैं ठीक से बता नहीं पाऊंगी। उम्र के किसी पड़ाव पर उनसे मेरी मुलाक़ात यूं ही हो गई थी और उस मुलाक़ात ने मुझे अजीब तरह का दर्द दे दिया था। हम दोनों ने कभी भी एक-दूसरे के अतीत में झांकने की कोशिश नहीं की। हमारे लिए हमारा वर्तमान ही सब कुछ था। भाग-दौड़ की ज़िंदगी में पल दो पल के लिए कभी मुलाक़ात होती तो हम खुशी में नहा उठते। चांद-सितारों से लेकर नदी-पहाड़ तक बातें होती। मैं तब तक उन बातों को संजोए रखती जब तक हमारी अगली मुलाक़ात नहीं होती। उस मुलाक़ात का समय कभी तय नहीं होता। कभी-कभार तीन से छः महीने तक हो जाते थे।
एक दिन उन्होंने बातों ही बातों में कहा कि अब हम नौकरी छोड़ देंगे। काशी जाकर बाबा विश्वनाथ के दर्शन करेंगे। मैं कहीं बहुत गहरे डूब गई थी। एक अजीब तरह के दर्द का दरिया था वह शायद, मेरे भीतर की असुरक्षित भावना थी वह, जो मुझे भयाक्रांत कर रही थी। बीमारी का भय, अवकाश प्राप्ति का भय और बेटे के पत्नी भक्त हो जाने का भय। ज़िंदगी में मैंने इस तरह के दर्द को पहली बार महसूस किया था।
मेरी गंभीर मुद्रा देख कर उन्होंने कहा ‘हम कौन-सा रात की रेलगाड़ी से जा रहे हैं।’ जब उन्होंने ज़ोरदार ठहाका लगाया, तब भी मैं दर्द से उबर नहीं पाई थी। शायद उनकी आवश्यकता इतनी ज़्यादा थी कि वह समय-समय पर मेरे दर्द पर मरहम लगा देते थे। उनकी गहरी आवाज़ मुझे किसी दूसरे लोक में ले जाती थी। “अच्छा तो चलो।” बिना उनके जवाब के मैं चुपचाप धीमी गति से मोटर की ओर चली गई थी।
मैंने उनका घर कभी नहीं देखा था और आज तक नहीं देखा। फिर भी मन ही मन मैं उनके घर को अपना समझने लगी थी। मुझे लगता कि उनका घर मेरे द्वारा ही संचालित हो रहा है। उनके नौकर-चाकर भी मेरा हुक्म बजाते हैं। जब मैं ज़मीन पर लौटती तो मुझे लगता कि ऐसा कुछ कहीं नहीं है। मुझे अपनी खुरदरी ज़मीन पर रहना है।
मैं खुद भी नहीं जानती कि उनकी ओर मैं क्यों आकर्षित हुई थी? मैं अल्हड़ बालिका की तरह उनके सामने छोटी-छोटी फ़रमाइशें रखने लगी थी। कभी लिम्का, कभी किताब और कभी साड़ी। ऐसा नहीं कि ये चीज़ें ख़रीद नहीं सकती थी। उनकी दी हुई कोई भी चीज़ मेरे लिए नियामत होती कितनी-कितनी बार उन चीज़ों को छू-छू कर देखती और सोचती उन्होंने जैसे अभी-अभी इन सब का स्पर्श किया हो। उच्च-पदासीन होने के कारण इन सब फ़ालतू बातों के लिए उनके पास वक़्त नहीं था। शायद ये भी मैं नहीं जानती क्योंकि उन्होंने कभी ज़िक्र नहीं किया था। पचास वर्षों की जेठी दोपहरी में चलते-चलते मैं इतना थक चुकी थी कि मुझे उनकी आवाज़ में एक अजीब तरह का जादू दिखाई देता था।
जैसे ही मैं वो आवाज़ सुनती मुझे लगता कि मेरे इर्द-गिर्द कोई हरा समन्दर घिर आया है। ऐसा हरा समन्दर जो कभी सूखता नहीं है।
सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। मेरा नारी मन कभी रूठता कभी ग़ुस्साता, कभी आदेश देता और कभी थर-थर कांपता। उस हरे समन्दर का खारा पानी मेरी निजी सम्पत्ति रही जिसे देखने का अधिकार मैंने किसी को नहीं दिया। परकततत
फिर एक दिन नाश्ते के समय उन्होंने मुझसे कहा ‘अब हम दिल्ली छोड़ देंगे। यहां रहने के लिए बहुत पैसा चाहिए।’ जिस स्थान का नाम उन्होंने लिया वह भी कम महंगा नहीं था। पता नहीं क्यों, उन्होंने क्यों नहीं सोचा कि मेरे सुंधड़े में रखी दो रोटियों पर उनका भी उतना ही अधिकार है जितना मेरा पर उन्होंने चुपचाप दिल्ली छोड़ने का फ़ैसला कर लिया था। जब फ़ैसला कर ही लिया तो मेरा हक़ भी क्या है, उसमें दख़लंदाज़ी करने का। मुझे लगा कि मैं क्यों उनमें वो सबकुछ देखने लगी थी जो किसी गृहपति में देखा जा सकता है।
काश! कि मेरी उनसे मुलाक़ात न हुई होती। इस मुलाक़ात ने मेरी सुप्त इच्छाओं को अपनी बांहों में भर लिया था। मैं अब न आगे जा सकती हूं न पीछे लौट सकती हूं। मैं दिल्ली कभी नहीं छोड़ूंगी क्योंकि वे यहां रहा करते थे, क्योंकि मेरे इर्द-गिर्द हरा समन्दर है, क्योंकि मैं बीच समन्दर हूं।