एक महिला को मेरे पास लाया गया। युनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर है। पति की मृत्यु हो गई तो वह रोई नहीं। लोगों ने कहा बड़ी सबल है। सुशिक्षित है, सुसंस्कृत है। जैसे-जैसे लोगों ने उसकी तारीफ़ की वैसे-वैसे वह अकड़ कर पत्थर हो गई। आँसुओं को उसने रोक लिया। जो बिलकुल स्वाभाविक था, आँसू बहने चाहिएं। जब प्रेम किया है और जब प्रेम स्वाभाविक है, तो जब प्रियजन की मृत्यु हो जाए तो आँसुओं का बहना स्वाभाविक है। वह उसका ही अनिवार्य हिस्सा है। लेकिन लोगों ने तारीफ़ की और लोगों ने कहा, स्त्री हो तो ऐसी। इतना प्रेम था, प्रेम-विवाह था, मां-बाप के विपरीत विवाह किया था, और फिर भी पति की मृत्यु पर अपने को कैसा संयत रखा, संयमी रखा। संकल्पवान है, दृढ़ है, आत्मा है इस स्त्री के पास। इन सब बकवास की बातों ने उस स्त्री को और अकड़ा दिया।

तीन महीने बाद उसे हिस्टीरिया शुरू हो गया, फिट्स आने लगे। लेकिन किसी ने भी न सोचा कि इस हिस्टीरिया के ज़िम्मेवार वे लोग हैं जिन्होंने कहा, इसके पास आत्मा है, शक्‍ति‍ है, दृढ़ता है। वे ही लोग हैं क्योंकि भीतर तो रोना चाहती थी, लेकिन कमज़ोरी प्रगट न हो जाए तो खुद को रोके रखा। यह रोकना उस सीमा तक पहुंच गया जहां रोकना फिट बन जाता है, यह सीमा उस जगह आ गई जहां कि फिर अपने आप कंप पैदा होंगे। सारा शरीर कांपने लगता और वह बेहोश हो जाती। यह बेहोशी भी मन की एक व्यवस्था है, क्योंकि होश में जिसे वह प्रकट नहीं कर सकती, फिर उसे बेहोशी में प्रकट करने के अतिरिक्‍त कोई उपाय नहीं रह गया। शरीर तो प्रकट करेगा ही। हिस्टीरिया की हालत में लोटती-पोटती, चीखती-चिल्लाती। लेकिन उसका ज़िम्मा उस पर नहीं था और कोई उससे यह नहीं कह सकता कि तेरी कमज़ोरी है। यह तो बीमारी है और होश तो खो गया इसलिए ज़िम्मेवारी उसकी नहीं है। होश में तो वह सख़्त रहती।

जब मेरे पास उसे लाए तो मैंने कहा कि उसे न कोई बीमारी है, न कोई हिस्टीरिया है। तुम हो उसकी बीमारी। तुम, जो उसके चारों तरफ़ घिरे हो। तुम कृपा करके उसके अहंकार को पोषण मत दो, उसे रो लेने दो। वह जो बेहोशी में कर रही है उसे होश में कर लेने दो। उसे छाती पीटनी है, पीटने दो, उसे गिरना है, लोटना है ज़मीन पर लोटने दो। स्वाभाविक है। जब किसी के प्रेम में सुख पाया हो तो उसकी मृत्यु में दुःख पाना भी ज़रूरी है। सुख तुम पाओ, दुःख कोई और थोड़े ही पाएगा?

तो मैंने उस स्त्री को कहा कि तू सुख पाए, तो दुःख मैं पाऊं? या कौन पाए? मैंने उससे पूछा कि तूने अपने पति से सुख पाया?

उसने कहा, बहुत सुख पाया, मेरा प्रेम था गहरा। तो फिर मैंने कहा, रो! छाती पीट, लोट बेहोशी में जो-जो हो रहा है, वह संकेत है, तो हिस्टीरिया में जो-जो हो रहा है, नोट करवा ले दूसरों से और वही तू होशपूर्वक कर, हिस्टीरिया विदा हो जाएगा।

एक सप्‍ताह में हिस्टीरिया विदा हो गया। स्त्री स्वस्थ है। और अब उसके चेहरे पर सच्चा बल है-प्रेम का, पीड़ा का। अब एक सहजता है। इसके पहले उसके पास जो चेहरा था वह फ़ौलादी मालूम पड़ता था, लोहे का बना हो। लेकिन वह निर्बलता का सूचक है, क्योंकि चेहरे को फ़ौलाद का होने की ज़रूरत भी नहीं है। फ़ौलाद का चेहरा उन्हीं के पास होता है जिनको अपने असली चेहरे को प्रकट करने में भय है। तो वे एक चेहरा ओढ़ लेते हैं, उस चेहरे के पीछे से वे ताक़तवर मालूम होते हैं। आप भी लोहे का एक चेहरा पहन कर लगा लें। तो दूसरों को डराने के काम आ जाएगा। और लोग कहेंगे, हां आदमी है यह। लेकिन भीतर? भीतर आप हैं जो कंप रहे हैं, भय से घबरा रहे हैं। उसी के कारण तो चेहरा ओढ़ा हुआ है।

वह लोहे की फ़ौलाद तो गिर गई, उसके साथ हिस्टीरिया भी गिर गया आँसुओं के साथ। वह सब जो झूठा था, बह गया रुदन में। वह सब जो कृत्रिम था जल गया, समाप्‍त हो गया। अब उस स्त्री का अपना चेहरा प्रकट हुआ। लेकिन इसके पहले जो उसे शक्‍ति‍शाली कहते थे, अब कहते थे साधारण है; जैसी सभी स्त्रियाँ होती हैं, निर्बल है। वे जो उसे शक्‍ति‍शाली कहते थे, वह उसे शक्‍ति‍शाली नहीं कहते। लेकिन उनके शक्‍ति‍शाली कहने से हिस्टीरिया पैदा हुआ था, इसका उन्हें कोई भी बोध नहीं है।

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