-तेजप्रीत कौर कंग

बच्चों के कुछ बेहद सीधे सवाल कई बार माता-पिता के लिए सबसे कठिन सवाल बन जाते है, जैसे कि बच्चों को यह बताना कि हम सबको ईश्‍वर ने बनाया है और वो हम सबसे बहुत प्यार करता है, बच्चों को अकसर यह पूछने पर मजबूर कर देता है कि ईश्‍वर कहां है, वो देखने में कैसा है, उसका घर कहां है, वह नज़र क्यों नहीं आता आदि। और माता-पिता इन सवालों के तसल्लीबख़्श जवाब देने में खुद को असहाय महसूस करते हैं और ज़्यादातर माता-पिता कुछ न कुछ मनगढ़ंत बातें कर के बच्चों को चुप करवाने की चेष्‍टा करते हैं।

पर बच्चों के संतुलित विकास के लिए यह ज़रूरी है कि ईश्‍वर और पूजा के प्रति बच्चों का विश्‍वास पैदा किया जाए। इस दिशा में पहला क़दम यह हो सकता है कि बच्चे का ध्यान उसके आसपास हो रहे परिवर्तनों की ओर आकर्षित किया जाए। किसी बालक का जन्म, किसी दोस्त की मृत्यु, प्रकृति में फल-फूलों का पनपना आदि सभी एक अदृश्य शक्‍त‍ि की ओर संकेत करते हैं। बच्चों में ईश्‍वर के प्रति आस्था का बच्चों की शिक्षा से कम महत्त्व नहीं है क्यों कि जीवन इतना अस्थिर और संघर्षपूर्ण है कि बिना किसी आध्यात्मिक ज्ञान के अपने मन को शांत और स्थिर रखना असंभव है। ईश्‍वर में विश्‍वास बच्चों में एक सुरक्षा की भावना उत्पन्न करता है और एक नैतिक दिशा सूचक की तरह मार्गदर्शक का काम करता है। परन्तु माता-पिता अकसर किताबी ज्ञान में उलझ कर रह जाते हैं और आध्यात्मिक ज्ञान अधूरा रह जाता है।

इसलिए यह ज़रूरी है कि बच्चों की उम्र के अनुसार उनसे इस विषय पर बातचीत की जाए और उनके आत्मिक ज्ञान को बढ़ावा दिया जाए।

शिशुकाल (1-3 वर्ष) में बच्चों को वही चीज़ें प्रभावित करती हैं जो कि उनकी आंखों के सामने हों और जिन्हें वह छू कर महसूस कर सकें। इसलिए यह समय एक नींव रखने का काम करता है और यही सही समय है जब बच्चों के शब्दकोष में रब्ब, ईश्‍वर, भगवान्, रामायण, मंदिर, पाठ, गुरुद्वारा आदि शब्द अंकित हो जाते हैं। यदि ऐसे शब्दों से बच्चे का छोटी उम्र में परिचय हो जाए तो धीरे-धीरे इन विषयों पर लम्बी बात भी की जा सकती है। इसके साथ-साथ माता-पिता द्वारा बच्चों में यह विश्‍वास पैदा करना ज़रूरी है कि ईश्‍वर सबसे प्यार करता है और सबकी मदद करता है। यदि कोई सच्चे दिल से उसे याद करे तो वह सबकी किसी न किसी रूप में सहायता करते हैं।

बाल्यकाल (3-6 वर्ष) में पहुंचते ही बच्चे ईश्‍वर के सर्वव्यापक होने का प्रमाण मांगने लगते हैं और वे अपनी ज़िन्दगी में ईश्‍वर को महसूस करना चाहते हैं। यह माता-पिता के लिए एक चुनौती भरा सवाल होता है। परन्तु बच्चों को अहसास कराने का यह उचित समय होता है जब वह जन्म और मरण को देखते हैं, चाहे वह किसी पशु-पक्षी का अथवा व्यक्‍त‍ि का हो। उन्हें जन्म-म ईश्‍वर के बस में होना एक अटल सत्य की तरह बच्चे के सामने स्वीकारना चाहिए। इसी तरह प्राकृतिक सुन्दरता का अनुभव करना भी हमें ईश्‍वर के होने का अहसास कराता है। इन सब चीज़ों की ओर बच्चों का ध्यान भी आकर्षित करना चाहिए और उन्हें इस विषय में सवाल पूछने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। परन्तु इस अवस्था में बच्चों से बातचीत में सत्य झलकना चाहिए और यदि समझ नहीं आए तो बच्चों के सामने स्वीकार कर लेना चाहिए कि ‘मैं नहीं जानता/जानती’।

स्कूल जाने वाले बच्चों में विचार शक्‍त‍ि बढ़ जाती है और वे ईश्‍वर के अदृश्य अस्तित्त्व को ज़्यादा गंभीरता से विचारने लगते हैं। परीक्षा से पहले डरने पर, बीमार पड़ने पर, परीक्षाफल आने के समय अकसर ईश्‍वर का ध्यान करना और उससे मदद मांगना बच्चों को सिखाया जाता है और यह उनके स्वभाव और आस्था का हिस्सा बन जाता है। यह समय उपयुक्‍त है जब अपने ग्रंथों से चुनकर कुछ एक ऐतिहासिक घटनाओं का ज़िक्र बच्चों के सामने अवश्य करना चाहिए। जिससे उनको ईश्‍वरीय शक्‍त‍ि और ज्ञान के विषय में कुछ जानकारी प्राप्‍त हो सके। इसके साथ-साथ अपने या अपने मित्र व संबंधियों के जीवन के अनुभव, जिस समय आपने ईश्‍वर को अपने बहुत क़रीब पाया हो, बच्चों के साथ अवश्‍य बांटने चाहिए। ये उनके विश्‍वास को प्रबल करते हैं और कठिनाइयों में विचलित नहीं होने देते।

किशोरावस्था तक पहुंचते-पहुंचते बच्चे इस अदृश्य शक्‍त‍ि को काफ़ी हद तक समझते लगते हैं। परन्तु इस समय वे स्वयं इस बारे में पढ़कर, महसूस करके अपने उलझे हुए विचारों को सुलझाना चाहते हैं। कई बार उनकी सोच माता-पिता की सोच से भिन्न हो सकती है। यह भी संभव है कि वे किसी धार्मिक प्रचारक को अपना गुरू चुनकर ईश्‍वर के स्वरूप को उसके दृष्‍ट‍िकोण से स्वीकारें अथवा किसी धार्मिक किताब से प्रभावित हो उसे अपना पथप्रदर्शक मान लें। अकसर इस समय बनी विचारधारा, आने वाले सालों में ईश्‍वर में आस्था का रूप ले लेती है। यह आस्था जीवन काल में एक नैतिक और आध्यात्मिक दिशा सूचक का काम करती है। माता-पिता को इसमें उनकी मदद करनी चाहिए।

यह शिक्षा भी अन्य शिक्षाओं की भांति समान व महत्वपूर्ण है – जैसे शुरू में माता-पिता अंगुली पकड़ कर, बच्चों को सहारा देकर खड़े होना और धीरे-धीरे चलना सिखाते हैं, उसी प्रकार बच्चे के व्यक्‍त‍ित्व में आध्यात्मवाद का बीज बोकर माता-पिता बच्चों में इस ज्ञान के उपजने में मदद करते हैं।

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