-सुमन कुमारी

सिर्फ़ क़ाग़जों तक ही सीमित है बाल मज़दूरी ख़त्म करने का प्रयास। बाल म़जदूरी ख़त्म करने का सरकार निरंतर प्रयास कर रही है। सरकारी विज्ञापनों द्वारा बाल म़जदूरी को रोकने व बच्चों को उच्च शिक्षा देने की बात बार-बार दोहराई जाती है। जबकि सच्चाई यह है कि इस तरह के प्रयास सिर्फ़ क़ाग़जों तक ही सीमित हैं। यहाँ ज़िले में ही कई रेस्टोरेंट, होटल और दुकानें ऐसी मिल जाएंगी, जहाँ दस वर्ष से भी कम उम्र के बच्चे काम करते हैं।

दस वर्षीय सुखराम रैनक बाज़ार, जालंधर में बर्तन धोने का काम करता है। वह किशनगंज बिहार का रहने वाला है। उसकी चार बहनें व तीन भाई हैं। खेतों में मज़दूरी करने वाले उसके पिता इतने बड़े परिवार का बोझ अकेले नहीं उठा पा रहे थे, इसलिए सुखराम को भी छोटी-सी उम्र में ही नौकरी करने घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर आना पड़ा। 2500 रुपये महीने में काम करने वाला सुखराम यहाँ अपने मामा के पास रहता है। सुबह सात बजे से रात के आठ बजे तक काम करने वाले इस बच्चे के पास किसी से बात करने तक की फुर्सत नहीं होती। पढ़ाई के संबंध में पूछने पर उसने बड़े भोलेपन से जवाब दिया ‘काम करते-करते मन मर गया है।’

लगभग आठ साल का शंकर एक दुकान में सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक बर्तन धोने का काम करता है, जिसके बदले में उसे महीने के सिर्फ़ चार सौ रुपये मिलते हैं। तीन बहनों का भाई शंकर ज़िला दरभंगा बिहार का रहने वाला है। तीसरी कक्षा तक पढ़ने के बाद यहाँ अपने पिता के साथ काम करने चला आया। उसके पिता यहाँ मज़दूरी करते हैं। इस संवाददाता से बात करते वक़्त दुकान के मालिक की आवाज़ जैसे ही शंकर ने सुनी दौड़ा गया और बर्तन धोने लगा।

लखनऊ का रहने वाला दस वर्षीय धर्मेंद्र छ: माह पहले पिता की मृत्यु के पश्चात् काम पर लगा। यहाँ एक ऑफ़िस में सफ़ाई व पानी पिलाने का काम करता है। उसे महीने के दो हज़ार रुपये मिलते हैं। सुबह साढ़े नौ बजे से लेकर रात नौ बजे तक काम करता है।

नेपाल का रहने वाला जीवन कुमार नकोदर बस स्टैंड के पास रेस्टोरेंट में बर्तन धोने का काम करता है। दिन भर कड़ी मेहनत करने के बाद महीने में उसे पंद्रह सौ रुपये मिलते हैं। पिता काम नहीं करते माँ बीमार है। चार साल पहले वह पंजाब मौसा-मौसी के साथ आया था। एक साल बाद भुट्टे भूनने का काम करने लगा। दो बहन व दो भाई में सबसे बड़े जीवन को घर की बहुत याद आती है और वह पढ़ना चाहता है परंतु पिता की बेकारी व माँ की बीमारी ने इसे अपनी मिट्टी व घर से दूर कर दिया है। चार साल पहले घर से निकले इस बच्चे को केवल अपने पिता का ही नाम याद है। माँ, बहन और भाइयों का नाम वह भूल गया है। वह जल्द से जल्द घर जाकर माँ का इलाज करवाना चाहता है, इसके लिए वह पैसे इकट्ठा कर रहा है।

हर रोज़ हमारे आस-पास न जाने कितनी ज़िंदगियाँ ऐसे ही दम तोड़ रहीं हैं। सरकार की तरफ से उठाए जा रहे क़दम अभी इन मासूम बच्चों से बहुत दूर हैं जो अपने माँ-बाप का नाम तक नहीं जानते। उनका भविष्य क्या होगा? इस गंभीर विषय पर सबको एक बार फिर सोचना होगा। ‘छोटू’ नाम देने से अच्छा है कि उन्हें समाज में रहने लायक़ एक ऐसा नाम दिया जाए कि पूरी ज़िंदगी इसका हिस्सा बन कर बिताए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*