-डॉ. सन्त कुमार टण्डन रसिक

काश! मुझे मिल पाती उसके जैसी ज़िंदगी … शबनम जब उस पार्टी में पहुंची तो वहां एक लहर-सी दौड़ गई। सारी नज़रें एक साथ उसी की ओर घूम गईं। पुरुष ही नहीं, स्त्रियां भी उद्वेलित हो गईं। उनके मन में एक स्पर्द्धा, ईर्ष्या, होड़-सी पैदा हो गई। नीलम मन ही मन सोच उठी, “काश! मुझे मिल पाती शबनम जैसी ज़िंदगी…” उस पूरी गैदरिंग में एक वही छायी हुई थी। वह हर एक तक पहुंच रही थी या हर एक उस तक पहुंच रहा था, कुछ ऐसी ही धारा प्रवाह-सी थी। शबनम जब पास आ कर नीलम पर उड़ती-सी नज़रें डालते हुए, उसके पति से हंस-हंस कर बातें करने लगी तो कलेजे में एक तेज़-सी चुभन महसूस की नीलम ने। उसका मन डाह से जलने लगा था। शबनम की सुन्दरता और उसका व्यक्तित्व ग़ज़ब का था जैसे सारी दुनिया की सुन्दरता उसके क़दमों से लिपटी हो।

नेहा और बेला सहेलियां थीं। दोनों प्रायः साथ घूमने निकलतीं। नेहा देखती, बेला जब समुद्र तट पर होती, एक मस्ती-सी वहां बिखेर देती और नेहा बालू पर उदास रेखाएं खींचती रहती। क्लब में नेहा एक ओर मेज़ पर शांत बैठी होती तो बेला डांस फ्लोर पर थिरकती रहती। नेहा के मन में ईर्ष्या पनपने लगती। इच्छा जागती कि वह बेला जैसी क्यों नहीं? ईर्ष्या गुब्बारे की तरह फूलती गई और वह गुब्बारा बस फूटने की स्थिति तक जा पहुंचा। मन में हीनता, कुंठा जागने लगी। इसी स्थिति में एक बार नेहा सिरदर्द का बहाना कर बेला को छोड़कर चली गई थी क्लब से।

जब मन में ऐसी ईर्ष्या या डाह पैदा होती है तो कभी क्रोध आता है, कभी मन रोने को हो उठता है, कभी अपने या प्रतिद्वंद्वी के प्रति अशुभ विचार भी उत्पन्न होने लगते हैं, कमज़ोरी-सी महसूस होती है, अस्वस्थता का भय उदय होता है, मैत्री सम्बन्ध के समक्ष एक प्रश्न चिन्ह भी खड़ा हो जाता है। एक अस्वस्थ, भद्दी, अमंगलकारी भावना है यह पर हर स्त्री के मन में होती है और शायद पुरुषों की तुलना में यह ईर्ष्या की भावना स्त्रियों में अधिक पाई जाती है। कुछ विचारक इसे अपराध या पाप जैसा मानते हैं।

नारी मन इससे मुक्ति नहीं प्राप्त कर पाता लेकिन जीवन के लिए इससे बचाव आवश्यक है। ईर्ष्या मानसिक स्वास्थ्य का विनाश कर सकती है।

स्पर्द्धा या डाह की भावना मन को जब धर दबोचती है तो बड़ी छटपटाहट महसूस होती है। कभी मन के आगे अंधेरा छाने लगता है, कभी प्रतिहिंसा की ज्वाला धधकने लगती है। इस तरह यह एक विनाशकारी भावना है, जिसका दमन करना चाहिए और इसके लिए अभ्यास या कोशिश की जानी चाहिए। नीरजा ने बताया, “ओफ़, यह बड़ी भयंकर होती है, मन को झुलसा कर रख देती है कभी-कभी। एक बार मुझे इसका अनुभव हुआ। मैं सालों से अच्छी जॉब के लिए भटक रही थी कि तभी एक दिन सुरेखा ने मुझे बताया कि एक बड़ी कम्पनी में उसे कम्पनी सचिव की सर्विस मिल गई है, वेतन दस हज़ार होगा। सुरेखा खुशी से पागल हो रही थी। मैं भीतर से कुढ़ गई थी पर ऊपर से बनावटी हंसी के साथ उसे बधाई दी। मैंने विषय परिवर्तन कर दिया। मैं वास्तव में भीतर से खुश नहीं हो पा रही थी। मैं अपने को टूटी हुई, हताश, निराश, असफल महसूस करने लगी।”

दूसरी स्त्रियों के रूप-सौन्दर्य, सम्पन्नता, वैभव, पद, प्रतिष्ठा, ख्याति, सौभाग्य आदि से ईर्ष्या करने वाली स्त्रियों की समाज में कमी नहीं। परिवार के भीतर भी देवरानी, जेठानी, भावज, ननद, बहू-सास के बीच ऐसी अस्वस्थ भावना देखी जाती है। सम्बन्धों की मधुरता के लिए आवश्यक है कि इसको दमित करके रखा जाए। यह नियंत्रण कुछ कठिन ज़रूर है, पर असंभव नहीं। यदि आप ऐसा नहीं करती तो अपने लिए ही विनाश के बीज बोती हैं। इससे असंतोष, व्यथा, सन्ताप उत्पन्न होता है।

चश्मा और सलमा अच्छी मित्र थीं। उनके अपने-अपने बॉयफ्रेन्ड थे। अच्छी निभती-बनती थी। किसी कारण चश्मा का अपने बॉयफ्रेन्ड से विच्छेद हो गया पर वह अपने को अकेले व्यवस्थित कर ले गई, खुश रहा करने लगी। कुछ समय बाद सलमा के साथ भी वही हादसा हुआ पर वह अकेलेपन में अपने को संभाल नहीं पाई। वह चश्मा के जीवन को कुरेदने लगी कि वह कैसे खुशहाल है और स्वयं व्यथित तथा ईर्ष्यालु रहने लगी। वह स्वयं जैसे चश्मा से उसकी ज़िंदगी चुरा लेना चाहती थी। वह अपने को असुरक्षित भी महसूस करने लगी। ईर्ष्या की भावना ने चश्मा से उसकी मैत्री को भी चोट पहुंचाई। वे दूर-सी हो गईं। जब मिलतीं कभी कहीं तो चेहरे पर बनावटी मुसकान होती। “कहो कैसी हो” एक औपचारिक सवाल होता था। यदि उनमें भीतर से इच्छा होती तो इस निम्न भावना पर वे अंकुश रखकर अच्छी मित्र बनी रह सकती थीं।

स्पर्द्धा, ईर्ष्या, होड़ की प्रवृत्ति सीधे हृदय को धर दबोचती है। यह मानसिक शक्तियों को चूस लेती है। हमारी अन्य चेतनाओं, संवेगों, विचारों को आच्छादित कर लेती है। यह दूसरों के जीवन, पद, स्थितियों के प्रति लोलुप और आग्रही बना सकती है। यह अहं का अतिरेक जागृत कर सकती है। अतः अपनी ईर्ष्या को स्वस्थ दिशा में मोड़ने का प्रयास करना चाहिए। अन्यथा यह आक्रामक और आपातिक हो सकती है। मन के भीतर समाया एक भय ईंधन बनकर इसे प्रज्वलित करता है। यह विनाशकारी हो सकती है। इसे असुरक्षा के रूप में देखा जा सकता है।

शानू बहुत समझदार है। बताती है, “मेरी सहेली है बीना। जब हम इकट्ठे होते हैं, शहर में या बाहर कहीं भी, उसका दोस्त प्रभाकर हमेशा साथ रहता है। बीना-प्रभाकर अपने ढंग से एन्ज्वॉय करते हैं, मैं भी शरीक होती हूं पर हर गतिविधि में तो नहीं हो सकती। इसका यह मतलब नहीं कि मैं बीना से ईर्ष्या करने लगूं।” शानू एक अध्यापिका है। बीना एक बड़े वकील की पत्नी। शानू ने सामन्जस्य बना कर जीवन पर ईर्ष्या की छाया भी नहीं पड़ने दी है वह केवल इतना संकेत प्राप्त करती है कि उसके अपने जीवन में क्या कमी है और वह उसे कैसे दूर कर सकती है। वह अपने अवचेतन मन का अध्ययन बड़ी गूढ़ता से करती है। इसीलिए इनकी मित्रता का निर्वाह हो रहा है।

दूसरों को जो कुछ प्राप्त है, हम उसकी प्रशंसा करें और स्वयं उसे कैसे हासिल करें, यह सोचें और इस दिशा में प्रयास करें, न कि ईर्ष्या। मन में स्वस्थ स्पर्द्धा का होना अच्छी बात है। लेकिन केवल दिवा-स्वप्नों में खोए रहना अच्छा नहीं जो अनुकरणीय हों, उनका अनुकरण करें।

आप सब कुछ नहीं पा सकतीं। कुछ तो आपकी पहुंच से दूर हो सकता है। इसके लिए किसी से ईर्ष्या क्यों करें? दूसरों के पास जो कुछ है, वह सब आपके लिए भी ज़रूरी हो, ऐसा नहीं हो सकता। फिर ईर्ष्या क्यों? हां, जो कुछ आपको चाहिए, आपके लिए संभव भी है, इसके लिए महज़ ईर्ष्या नहीं, प्रयास करें, पाएं।

ईर्ष्या से न अपने जीवन में ज़हर घोलिए, न दूसरों के। किसी से आपसी संबंधों को इस क्षुद्र भावना के कारण बिगड़ने न दीजिए। आत्म-विश्वास उत्पन्न कीजिए। दूसरों की प्रशंसा करने का स्वभाव बनाइये जब आप किसी से कहेंगी, “आप बहुत खूबसूरत लगती हैं, आपका व्यापार खूब चमक रहा है, आपके बच्चों ने अच्छी तरक्क़ी की आदि तो ईर्ष्या अंकुरित न हो सकेगी आपके मन में।

किसी प्रकार से ईर्ष्या उपज आई हो और सम्बन्धों में बिखराव या कटुता उत्पन्न हो गई हो तो समझदारी से आप पुनः संबंधों को सुधार सकती हैं। अकसर टूट रही शादियां, हो रहे तलाक़ पुनः संवर-बन जाते हैं। कभी-कभी कहीं अवसर मिलने पर हुई मुलाक़ात, बातचीत गुल खिला देती है, दो दिल फिर एक हो जाते हैं, एक-दूसरे के प्रशंसक। मोहनीश और वसुन्धरा की सगाई टूट गई थी। एक बार वे सहसा संयोगवश स्वीमिंगपूल पर इकट्ठे मिले और बात बन गई। शादी की अंगूठी फिर वसुन्धरा की उंगली में आ गई।

जीवन में ऐसी राह तलाशें जिसमें भावनाओं को ठेस न पहुंचे, कोई बाधा न पहुंचे। दूसरों के संवेगों के प्रति हमारा मन, हमारा मस्तिष्क, हमारा हृदय खुला हुआ होना चाहिए। हम उनसे दिशा-निर्देशित हों। तब दुखदाई विचार और संवेग अधिक परिपक्व जीवन का पथ प्रशस्त करेंगे। आप पाएंगी कि आपके मन से ईर्ष्या तिरोहित हे गई है और आपके जीवन में प्रसन्नता का आवेग फूट रहा है। आप अपने को समझदार पाएंगी, आप अपने को पहचान सकेंगी। तब आपको प्रख्यात अमेरिकी महिला ‘रूज़वेल्ट’ का यह कथन सच लगेगा… “जब तक आप स्वयं अपने को तुच्छ न समझें कोई दूसरा आपको तुच्छ समझने को मजबूर नहीं कर सकता।”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*