-रिपुदमनजीत

आज करवा-चौथ है। सुहागनें तथा नई-नवेली दुल्हनें हाथों में मेहंदी रचाए, भारी-भरकम साड़ियों तथा ज़ेवरों से लदी, हाथों में रंग-बिरंगी चूड़ियां खनखनाती अपने पतियों के लिए व्रत रखे हैं। वे चहकती, इठलाती, हंसती-मुस्कुराती, नाचती-गाती, हाथों में पूजा की थालियां सजाए चांद के निकलने की प्रतीक्षा कर रही हैं। सुहागनों के लिए यह वर्ष का सबसे महत्वपूर्ण दिन होता है जब वे अपने पतियों की लम्बी आयु के लिए भगवान् से प्रार्थना करती हैं और सुहागिन ही मरने की कामना करती हैं।

परन्तु सिमरन के लिए यह एक ऐसा दिन है जब उस पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा था। उसकी खुशियों पर बिजली गिर पड़ी थी। उसकी हंसती-खेलती ज़िन्दगी को मानो किसी की बुरी नज़र लग गई थी। वह उदास, बिना किसी हार-सिंगार के सफ़ेद साड़ी में लिपटी, उस दिन का अख़बार हाथों में लिए अश्रुपूर्ण नेत्रों से अपने स्वर्गवासी पति की तस्वीर देख रही है। उसके पति अभिनव की आज बरसी है। आंसुओं की अविरल धारा बह-बह कर अख़बार में छपी उसकी तस्वीर को भिगो रही है और वह दूर कहीं दूर अतीत की यादों में खो गई।

हां यह वही दिन तो था जब उसका संसार सदा के लिए अंधकारमय हो गया था। वह लुट गई थी। उस दिन भी करवा-चौथ था। वह लाल साड़ी में लिपटी, सजी-संवरी, पूजा की थाली सजाए सखियों संग इठलाती, बलखाती पति की प्रतीक्षा कर रही थी। दृष्टि बार-बार आकाश की ओर उठती तो कभी गेट की ओर। किसी भी गाड़ी के हाॅर्न से कान खड़े हो जाते। वह सोचती कि शायद उसका अभि आ गया है। सहेलियां उसकी बेक़रारी देख छेड़-छाड़ कर रहीं थी। वे सब उनका प्रगाढ़ प्रेम देख सोचती कि काश! उनके पति भी उन्हें इतना ही प्यार करते जितना सिमरन का अभि उसे करता है। वे दोनों मित्र मंडली में लैला-मजनूं के नाम से जाने जाते।

अभिनव के साथ गुज़रा समय चल-चित्र की मानिंद उसकी आंखों के सामने चल रहा था। पांच वर्ष मानो पंख लगा कर उड़ गए। हर लम्हा लगता मानो वे हवा के परों पर सवार दूर कहीं दूर जा रहे हैं। एक दूजे के बिना एक-एक पल जैसे दूभर हो जाता। आज सोचती है तो विश्वास ही नहीं होता कि समय की रफ़्तार इतनी तेज़ भी हो सकती है। आज सब पीछे छूट गया है। लगता है जैसे जीवन एक सुखद स्वप्न था जिसे वह हमेशा खुली आंखों से देखती रहती थी। एक मृगतृष्णा जिसे कोई भी पकड़ नहीं पाया। उस दिन कॉलेज गई तो सहेलियों ने घेर लिया।

“सिम्मी तेरी साड़ी बहुत सुन्दर है यार। कहां से ली?”

“अभि लाए थे मुम्बई से।” वह इतरा कर बोली।

“यार, एक बात है, तेरे अभि की च्वॉइस बहुत बढ़िया है।”

“तुझे आज पता चला मेरे अभि की च्वॉइस का? अरे। च्वॉइस बढ़िया थी, तभी तो मुझे पसंद किया। कॉलेज में वर्षों पीछा नहीं छोड़ा जनाब ने।” वह इठलाकर बोली।

सखियां मन ही मन उसके भाग्य से ईर्ष्या करती। अभि जब टूर पर जाते तो दिन में चार-चार बार फ़ोन पर उसका हाल पूछते। रोज़ एक प्यारी-सी चिट्ठी लिखते। जिस दिन चिट्ठी नहीं आती वह मारे ग़ुस्से के अभि की तस्वीर का रुख दीवार की ओर कर देती। यदि गर्मी होती तो बाहर धूप में रख आती। अपनी ओर से मानों वह उसे सज़ा देती थी। एक दिन मूसलाधार वर्षा हो रही थी। इत्तफ़ाक़न दीदी भी आई हुई थी। दीदी ने उसे छेड़ा “बाहर वर्षा हो रही है। जाओ-जाओ तस्वीर को बाहर रख आओ। बच्चू को ठंड लगेगी तो चिट्ठी लिखनी याद आ जाएगी।” वह झेंप गई।

दीदी एक दिन पूछ बैठी “सुन, तुम लोग रोज़ रात को इतनी लम्बी-लम्बी बातें करते हो फ़ोन पर, रोज़ ही एक चिट्ठी आती है, जिसे तू कम से कम दस बीस बार पढ़ती ही हो। क्या मिलता है बार-बार पढ़ने से?”

“जो काम आपने किया नहीं, उसका मज़ा आपको क्या मालूम दीदी जी।” वह कहती। क्योंकि दीदी अभी अविवाहित थी।

एक दिन जब ग़ुस्से में उसने अभि की फ़ोटो का रुख दीवार की ओर किया हुआ था तो वे अचानक आ धमके और बोले, “अच्छा जी तो हमारी गैर हाज़िरी में तस्वीर का यह हाल होता है।” वह शर्माकर मुस्कुराती हुई अभि के सीने से जा लगी।

अभि का फ़ोन आया लंदन से। “क्या लाऊं यहां से तुम्हारे लिए डार्लिंग?”

“कुछ नहीं, बस तुम स्वयं ही आ जाओ। तुमसे बड़ा गिफ़्ट क्या हो सकता है मेरे लिए?” भावुक हो बोली।

तीसरे दिन अभि पहुंच गए। वे सभी के लिए कुछ न कुछ गिफ़्ट लाए थे। “और मेरे लिए?” सिमरन बोली। “तुम्हीं ने तो कहा था कि तुम खुद ही आ जाओ। लो मैं आ गया” वह शरारत से बोले।

“वह तो मैंने वैसे ही कह दिया था। पर तुम्हें तो लाना चाहिए था न।” सिम्मी मुंह बिसूर कर बोली। “अरे-अरे, मेरी सरकार नाराज़ क्यों होती हो, ज़रा आंखें तो बंद करो।”

सिमरन ने आंखें बंद की तो अभि ने मोतियों का एक निहायत ही सुन्दर हार उसके गले में डाल दिया।

“क्यों अब तो खुश हो न? इससे सुन्दर तोहफ़ा मुझे तुम्हारी सुन्दर और नाज़ुक गर्दन के लिए और नहीं मिला।” सिमरन ने भावुकतावश अभि को अपनी कोमल बांहों में समेट लिया और अभि ने प्रेमावेश में उस पर चुम्बनों की बौछार कर दी। न जाने कितनी खट्टी-मीठी यादें कभी उसे गुदगुदा जाती तो कभी रुला जाती।

“मम्मा-मम्मा, पापा आ गए।” गाड़ी के हॉर्न की आवाज़ सुनकर उसकी चार वर्षीय बेटी निशु बोली। वह अभि को परेशान करने के लिए जानबूझकर नीचे नहीं उतरी। रूठने का अभिनय करती वह वहीं रुकी रही। वह सोचती रही कि अभि स्वयं आकर अपनी बलिष्ठ बाहों में ले उसे चौंकाएंगे और देरी से पहुंचने के दस बीस बहाने तो अवश्य बनाएंगे। कितना रोमांचक होगा वह लम्हा। वह सांस रोके उस क्षण की बेचैनी से प्रतीक्षा कर रही थी पर दिल तो संभाले नहीं संभल रहा था। ऐसा लगता था जैसे सीने से निकल बाहर आ जाएगा। लाख यत्न करने पर भी वह अपने-आप पर क़ाबू नहीं कर पा रही थी। शायद यही होती है इश्क़ की इन्तहा।

गेट पर एक एम्बुलेंस आकर रुकी जिसमें से स्ट्रेचर निकाला गया। पुलिस का इन्सपेक्टर बता रहा था कि बहुत ही भयानक एक्सीडेंट था। गाड़ी सामने से आती बस से टकरा गई और मौक़े पर ही मृत्यु हो गई। यह तो गनीमत है कि इनके कोट की जेब में से हमें इनका पता मिल गया वरना बहुत मुश्किल हो जाती। घर में कोहराम मच गया। आनन-फ़ानन में सभी रिश्तेदार तथा पड़ोसी जमा हो गए। सिमरन इस सब से बेख़बर अभी भी अपने अभि का बेसब्री से इन्तज़ार कर रही थी।

तभी नन्हीं निशू ने उसकी साड़ी का आंचल खींचते हुए कहा, “मम्मा-मम्मा, देखो पापा आंखें बंद किए सोए पड़े हैं। किसी के उठाने से भी नहीं उठ रहे। आप चल कर उठाओ न।” सुनकर वह बदहवासी की दशा में नीचे भागी। देखा उसका अभि, उसकी ज़िन्दगी, सफ़ेद चादर में लिपटा लेटा है।

वह बेक़रार हो उसके पास जा बैठी और बोली, “उठो न अभि, पहले ही इतनी देर हो चुकी है। देखो चांद कब का निकल आया है और प्यास भी ज़ोरों की लगी है” जब फिर भी उसके शरीर में कोई हरकत नहीं हुई तो वह उसे झकझोर कर बोली, “उठिए न अभि, मज़ाक की भी कोई हद होती है।”

तभी उसकी मां ने उसे बाहों में लेकर कहा, “होश में आओ सिमरन, तुम्हारा अभि हम सबको छोड़ कर चला गया है। वह अब इस दुनियां में नहीं रहा।” सिमरन, मां पर बरस पड़ी, “कैसी बातें करती हो मां, आपको नहीं मालूम, यह एक्टिंग कर रहे हैं, जानबूझ कर मुझे परेशान कर रहे हैं।”

वह मुस्कुराती हुई उसके पास आरती की थाली लेकर गई और बोली, “मुझे मालूम है तुम बहुत ज़िद्दी हो, लो मैं ऐसे ही व्रत तोड़ लेती हूं।” उसने वैसे ही अभि की आरती उतारी, छलनी में उसका चेहरा देखा और ज़बरदस्ती उसका हाथ उठा पानी का गिलास पकड़ाने लगी और अचेत हो वहीं गिर पड़ी। देखने वाले उसकी इस दशा पर खून के आंसू बहा रहे थे।

डॉक्टर आया। उसे होश में लाने के लाख यत्न किए गए पर उसकी चेतना नहीं लौटी। शायद भगवान् की भी यही मर्ज़ी थी कि वह आख़िरी समय अभि को जाते हुए न देखे। वह घड़ी भी आन पहुंची जब अभिनव को अलविदा कहने का समय आ गया। रुदन और चीखों की आवाज़ें आकाश तक को हिला रहीं थी। सभी की ज़ुबान पर एक ही बात थी, “इतना सुन्दर जवान लड़का, भगवान् को भी दया नहीं आई। कम से कम उसकी पत्नी और नादान बच्ची का तो ख़्याल किया होता।”

सिमरन को होश आया तो सब समाप्त हो चुका था। घर में सन्नाटा छाया था। उसने उठकर बाल संवारे, मांग भरी और नीचे हाल में आ गई। सभी लोगों को वह विस्फारित नेत्रों से देख रही थी जो सफ़ेद कपड़ों में थे। तभी उसकी दृष्टि अभि की फ़ोटो पर पड़ी जिस पर फूलों का हार चढ़ा था। वह क्रोधित हो आगे बढ़ी और हार उतार कर फेंक दिया। और बोली, “ये क्या हो रहा है? मेरा अभि कहां है?” और वह अभि-अभि पुकारती तमाम घर में ढूंढती फिरती रही। यह सिलसिला लगातार चलता रहा। सूनी-सूनी आंखों से उसकी फ़ोटो से बातें करती रहती। “अब तो आ जाओ अभि। प्लीज़ अब तो हमें माफ़ कर दो। हम वादा करते हैं आइन्दा कभी तुम्हारी फ़ोटो को सज़ा नहीं देंगे। सच कहते हैं अब कभी नाराज़ नहीं होंगे। बस अब हमारे सब्र का और इम्तिहान मत लो।” वह बावरी की तरह बड़बड़ाती रहती। डॉक्टर कहते कि उसे रुलाओ वरना पागल हो जाएगी।

उस दिन अभि का चौथा था। मां ने अभि का अस्थि कलश उसकी गोद में रखते हुए कहा, “देख यह रहा तेरा अभि, मर चुका है वह, मर चुका है तेरा अभि” वह मानो गहरी निद्रा से जागी। “नहीं” कहते एक हृदय विदारक चीख उसके मुंह से निकली जो एक बार ही पूरी कायनात को दहला गई। वह फूट-फूट कर रोने लगी। आंसुओं का सैलाब न जाने कहां से उमड़ पड़ा था। कब उसकी गोरी-गोरी कलाइयों की चूड़ियां तोड़ी गई, कब मांग का सिन्दूर पोछा गया और कब सफ़ेद साड़ी में लिपटा उसे संगमरमर की मूर्ति बना दिया गया, उसे कुछ पता नहीं चला। समय अपनी रफ़्तार से चलता रहा। एक दिन पापा-मम्मी(सास-ससुर) को अपने पास खड़े देख वह चौंक पड़ी। पापा बोले, “सिमरन बेटा तुमसे एक बात करनी है।”

“कहिए पापा।”

“बेटा ज़िंदगी ठहरने का नहीं चलने का नाम है। तुम्हारे सामने पहाड़-सा जीवन पड़ा है। आज हम हैं कल नहीं होंगे तो जीवन का यह अकेलापन तुम्हें खा जाएगा। जीवन जीने के लिए एक साथी की आवश्यकता होती है।”

“आप कहना क्या चाहते हैं पापा?” वह आश्चर्यचकित हो बोली।

“बेटा हम चाहते हैं तुम दोबारा शादी कर अपना घर बसा लो। हम तुम्हारे माता-पिता हैं और तुम हमारी बेटी हो। और फिर निशू को भी तो पापा के प्यार और दुलार की ज़रूरत है।”

“नहीं पापा मैं ऐसा नहीं कर सकती। इस छोटे से अरसे में ही मैंने अभि के साथ पूरी ज़िंदगी जी ली है। मैं किसी और को पति के रूप में स्वीकार नहीं कर सकती। भले ही अभि मुझे छोड़ गया है, लेकिन मैं बाकी का जीवन उसकी याद में बिता दूंगी। उसकी यादें ही मेरे जीवन का सहारा होंगी।” उसकी आंखें भर आई।

“बेटा कोई किसी को छोड़कर नहीं जाता, वक़्त पीछे छूट जाता है। यादें परछाइयों की मानिंद कभी पीछा नहीं छोड़ती। लेकिन हम सत्य को तो नहीं झुठला सकते। अकेलेपन का सूनापन भगवान् किसी शत्रु को न दे।” पापा ने उसे कन्विन्स करवाया।

एक बार फिर वह अतीत में खो गई।

“एक बात बताओगे अभि?”

“हां-हां क्यों नहीं, पूछो।”

“अगर हम मर गए तो क्या तुम दूसरी शादी करा लोगे?”

“करनी ही पड़ेगी।” वह कुछ संजीदा हो कर बोला।

“क्या कहा ज़रा फिर से तो कहो?” वह आंखें निकाल कर बोली।

“देखो जब तुम नहीं रहोगी तो मेरा ख़्याल रखने वाला कोई तो चाहिए न। तुम तो जानती हो मैं कितना लापरवाह हूं। फिर तुम्हें भी तो अच्छा नहीं लगेगा न मेरा अकेलापन।” वह आंखों में शरारत भर बोला।

“मार डालूंगी अगर फिर ऐसा कहा तो। तुमने ऐसा सोच भी कैसे लिया? वह साथ जीने मरने की क़समें भूल गए क्या?” वह रुआंसी आवाज़ में बोली।

“अच्छा। अगर मैं मर गया तो क्या तुम………।”

उसकी बात अधूरी ही रह गई। सिमरन ने आगे बढ़ उसके होंठों पर अपनी नर्म हथेली रख दी और बोली, “ख़बरदार अगर फिर कभी ऐसे शब्द ज़ुबान पर लाए। तुम्हें हमारे प्यार की क़सम।” और अभि का मुस्कुराता चेहरा उसकी आंखों के सामने आ गया। वह सोच रही थी, “प्यार तो सभी करते हैं पर अभि ने तो जैसे प्यार की परिभाषा ही बदल दी थी। उसका प्यार एक झरने की मानिंद था जिसकी फुहार उसे सराबोर कर जाती, उसका अपना वजूद कहीं खो जाता और वह अभि के अस्तित्व में लीन हो जाती। उसका प्यार, उसका दर्द, उसकी चिन्ता, उसकी हर प्रॉबल्म को अभि ने अपने ऊपर ओढ़ लिया था। अभि उसका साया था वह उसकी परछाई।”

“क्या फ़ैसला किया बेटी?” पापा की आवाज़ उसे फिर सुनाई दी। वह वर्तमान में लौट आई।

अभि के प्रति उसका लगाव, उसकी दलीलें, जन्म जन्मांतर तक उनकी साथ रहने की क़समें, कुछ काम न आई। पापा ने समझाया कि यह सब तक़दीर का खेल है। तक़दीर पर किसी का बस नहीं चलता और सिमरन को उनकी इच्छा के आगे झुकना ही पड़ा लेकिन वह अपने पति अक्षत और बेटे मनु को कभी अपना नहीं पाई। वह हमेशा अभि की यादों में ही सकून ढूंढती। पता नहीं कब तक वह अपनी दुनियां में खोई रहती कि तभी उसकी बेटी निशू ने रोते-रोते उसके गले में बांहें डाल कर कहा, “मम्मा-मम्मा, क्या ये मेरे पापा नहीं हैं?”

“तुम्हें किसने कहा बेटा?”

“मनु कह रहा था कि वो सिर्फ़ उसके पापा हैं। मेरे पापा तो यह हैं”, उसने अख़बार में छपी अभि की तस्वीर पर उंगली रखते हुए कहा। उसके दिल पर जैसे किसी ने हथौड़ा दे मारा हो। वह व्याकुल हो बोली, “नहीं बेटा मनु तो तुम्हें चिढ़ा रहा है। ये तुम दोनों के ही पापा हैं।”

अक्षत और मनु जो निकट ही खड़े सुन रहे थे, आगे बढ़े और अक्षत सिमरन से बोले, “सिमरन मां तो महान होती है। तुम्हारा दिल तो प्यार का गहरा सागर है। इसमें से प्रेम रूपी अमृत की कुछ बूंदे हम बाप बेटे को भी मिल जाएं तो हम धन्य हो जाएंगे।” उसकी ममता तड़प उठी और आगे बढ़कर उसने मनु को अपने सीने से लगा लिया। तभी अक्षत ने सिमरन को अपनी बांहों में भर लिया। पहली बार सिमरन को एहसास हुआ जैसे उसका अभि लौट आया है।

 

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