-मीनू संदल

विभिन्न ट्रेनों में, बस अड्डों पर और आपके घर में भी जब किसी शिशु का जन्म होता है, तालियां बजाते कुछ लोग आपके पास आते हैं, नाचते हैं, गाते हैं और इसके एवज़ में ढेर सारी शुभकामनाएं देकर पैसों की मांग करते हैं। आपने कम पैसे दिए नहीं कि इनका ‘रिकॉर्ड’ चालू हुआ। अश्लील हरकत और गंदी गालियां देने वाले इन लोगों को हिजड़ा कहा जाता है। हिजड़ा यानी आधा नर और आधी मादा। क्या हक़ीक़त में हिजड़ों की ज़िंदगी वही है जो हम देखते हैं? नहीं, एकदम नहीं। मानवीय आधार पर देखें तो रोज़ तिलतिल कर मरने वालों का नाम है किन्नर। इनकी तालियों की अनुगूंज अगले व्यक्ति पर चाहे कुछ असर न छोड़े पर रात के अंधेरे में सारे ज़माने से मुंह छिपाकर ये उस दर्द की अनुभूति करते हैं जो क़ुदरत ने इन्हें दिया है। मीनू संदल ने इनसे तफ़सील से बातचीत की। एक रोचक रिपोर्ट…..

एक यह भी सचः-

‘हमें अगले जन्म में चाहे तो कुत्ता, गधा, घोड़ा कुछ भी बना पर पूरा बना। ‘अधकचरा जीवन’ भी कोई जीवन है।’

यह चाह है आज हरेक के मन में। जो न पूरी तरह से औरत है और न ही पूरा मर्द। यानी ये है आम लोगों के लिए हिजड़ा, खुसरा, किन्नर या फिर छक्का। येे उस ज़िंदगी को जीने के लिए अभिशप्त हैं जो न तो किसी मर्द की है और न ही किसी औरत की। और जानते हैं सभी की दास्तान ऐसी है जिसे सुनने के बाद आपके नेत्र बरबस झरने लगते हैं। एक दर्द है, रोज़ इक हूक उठती है इनके जीवन में। एक बच्चा पैदा होता है उसके लिए येे तालियां बजाते हैं, यह जानते हुए भी कि इनकी ज़िंदगी में सिवाय तालियों, उनकी अनुगूंज और गालियों के कुछ भी नहीं। ये लोगों की खुशी में शामिल होते हैं, लोगों के ताने सुनते हैं। ये क्या करें, रो भी तो नहीं सकते। उनके मज़ाक का निशाना बनने वाले इन लोगों की अपनी एक दुनियां है, अपने निज़ाम हैं और है एक ऐसी पीड़ा जनक ज़िंदगी जिससे हम सब यक़ीनन अनजान हैं। शायद यही वजह है कि हमारे समाज का एक हिस्सा होते हुए भी यह बिरादरी हमसे अलग है। फिर चाहे वह रीना हो या वीणा महंत या फिर बिमला महंत हो अथवा सुनीता उर्फ़ रावण। इन सभी की ज़िंदगी में एक दर्द है जो सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है।

बीते तीस सालों से जालन्धर में पली व जन्मी रीना इन किन्नरों के डेरे की मुखिया है। वह देखने में आम औरत की तरह लगती है। न तो हिजड़ों वाले लटके-झटके और न ही तालियां। पर चेहरे की सुर्खियों और मुस्कुराती आंखों के पीछे छिपा ग़म बहुत कुछ कह जाता है। रीना अपने अतीत के पन्ने पलटती हुई कहती है, ‘मुझे आठ बरस तक निक्कर-शर्ट पहनाकर बहुत छिपा कर रखना चाहा मेरे माता-पिता ने पर उनको पता लग ही गया। कक्षा तीन तक पढ़ा़ई भी की थी मैंने पर ‘वो’ मुझे ले ही गए। मैं वहां से भाग आई और मुझे छिपा कर दीदी के यहां अमृतसर भेज दिया गया। ‘वे’ जब दोबारा लेने आ धमके तो मैं 18 साल की हो चुकी थी। इस बार पिता जी ने कह दिया कि इसे ले जाना हो तो ले जाना पर उसके लिए रात में आना होगा। बस फिर क्या था। शुरू में अटपटा लगा पर क्या करती। रहना तो वहीं ही था न….. सो कर लिया अपने आप से समझौता।’

बंटी, मुंबई से आए रीना के मेहमान हैं। बस इतना ही कहते हैं कि यहां की बिरादरी वहां से अलग है। कुछ और बताने को राज़ी नहीं हुए। वेदना साफ़ झलक रही थी उसके माथे पर। बंटी बताता है, ‘मम्मी को देखने आया था। पता चला कि बीमार हैं। सुबह आया हूं, शाम को लौट जाऊंगा।’ ‘मम्मी?’ रीना बोल उठी, ‘हां! मुंबई गई थी फ़िल्मी सितारों से मिलने तो वहीं रिश्तेदारी हो गई। हम तो ऐसे ही सुख-दुःख बांट लेते हैं।’

बनारस से आई बिमला कोई तीस साल की होगी। वह बताती है, ‘लोग जब कभी सेक्स को लेकर हमारे साथ मज़ाक करते हैं तो ख़राब लगता है। आप ही बताएं, हम क्या कर सकते हैं। जब क़ुदरत ने ही हमें नहीं बख़्शा तो आम इन्सानों की क्या शिकायत करें। दर्द इस बात का ज़्यादा है कि हमें अपने घरवालों ने ही नहीं अपनाना चाहा। बाक़ी लोगों से हम क्या उम्मीद करें। परिवार छोड़ मैं दिल्ली आ गई, फिर एक डेरे से दूसरे डेरे…. इस तरह सफ़र जारी रहा और मैं तालियां पीटती रही।’ एक ठंडी आह भर कर कहती है बिमला, ‘अब हमारी एक अलग दुनियां है, बावजूद इसके अधूरा होने की टीस ताउम्र मुझे सालती रहेगी।’

एक हैं दाद गुरू बिमला। 80 साल की हो गई हैं। सभी को एक खुशी का इंतज़ार है…. उसकी मौत। अब क्या कहें मौत आ ही नहीं रही। न जाने कितने दिनों से अस्पताल में पड़ी है। माड़ी क़िस्मत है…. बस जान ही नहीं निकल रही। दिन में लोगों की खुशियों में शामिल होने वाले और रात को उठकर अपनी तक़दीर पर रोने वाले इन इंसानों की ज़िंदगी हमेशा से ही एक अनबूझ पहेली रही है। इनकी दिनचर्या, इनकी जीवनशैली जितनी रोचक है, उतनी ही रहस्यमयी भी। दरअसल क्या है इनकी ज़िंदगी? डेरे से शुरू होती है और डेरे पर ही ख़त्म। इनकी ज़िंदगी के तमाम रिश्ते बेमानी हैं।

अपना कानूनः- इस बिरादरी का अपना समाज है, अपनी सीमाएं हैं और हैं अपने सख़्त क़ायदे कानून। जब एक ही शहर में कई डेरे हों तो ये आपस में क्षेत्र बांट लेते हैं। वहां दूसरे डेरे वालों का प्रवेश वर्जित होता है। इसके लिए कानूनी तौर पर पर्चे तैयार होते हैं। यदि कानून का उल्लंघन हो तो पंचायत बिठाई जाती है और दूसरे डेरे के हिजड़ों की बोली लगती है, क़ीमत तय होती है। तीसरी दुनियां में रहने वाले इन लोगों के मुखिया ही इन के सर्वस्व होते हैं। अपनी मौत से पहले मुखिया अपनी गद्दी अपने चेले को दे देता है। इस तरह सिलसिला जारी रहता है।

जो रोज़ मरे, उसके लिए रोज़ कौन रोए। शायद इसीलिए अपने जीने का अंदाज़ बदल डाला है इन्होंने। टी.वी., फ्रिज, सेलुलर फ़ोन, नौकर और गहनों से लदे रह कर एक ऐसी ज़िंदगी इन लोगों ने तय कर ली है जहां कम से कम थोड़ी खुशियां और सुकून तो है। इनका न सिर्फ़ जीवन वरन मौत भी हैरत करने वाला विषय है। शायद ही कभी हममें से किसी ने हिजड़े की मय्यत देखी हो? ‘द सिटी आफ़् जॉय’ में डॉ. मिनिक लैपीयर ने इनकी मौत का वर्णन किया है कि जब भी कभी हिजड़े की मौत होती है, उसके साथी उसके मृत शरीर को जूते, चप्पलों से मारकर उसकी मौत का जश्न मनाते हैं और केवल रात को ही उसकी मय्यत निकालते है। वहीं रीना इसे झूठा करार देती है, ‘बेकार की बात है। हम भला अपने साथी के साथ ऐसा क्यों करेंगे? उसके धर्म के अनुसार हम उसका अंतिम संस्कार करते हैं और रोटी भी। हां, उसके मरने पर जश्न ज़रूर मनाते हैं और उसके चेले को दुलहन बनाते हैं।’

यद्यपि इस बिरादरी के लोग, इस ज़िंदगी को अपनी तक़दीर समझते हैं। पर आज के क़ायदे कानूनों से परेशान हैं। कुछ सोसायटी ने उनके समक्ष एक तयशुदा रक़म रख दी है। कोई भी खुशी हो, वे महज़ 500 रुपए ही देंगे। इससे यह बिरादरी खफ़ा है। अगर हम इनको ज़िंदगी जीने का मौक़ा नहीं दे सकते तो उन्हें अपनी बनाई ज़िंदगी तो जीने ही दे सकते हैं। जब अपनी दुनियां में रहकर भी ये हमारे मज़ाक का निशाना हैं तो हमारी दुनियां में आकर इनका क्या हश्र होगा, यह बताना पड़ेगा?

ज़िंदगीः- किन्नरों की ज़िंदगी क्या होती है, कोई नहीं जानता। कुछ ख़ास क़ायदे नहीं होते इनके पर जो होते हैं, बड़े ही कड़े होते हैं। एक आम किन्नर हर दिन स्नान करता है, ध्यान लगाता है और कुछ हद तक ढोलक-हारमोनियम का भी रियाज़ करता है। कई तो रोज़ाना नृत्य का भी अभ्यास करते हैं। ज़्यादातर ये अपना काम-धंधा दिन के उजाले में ही करते हैं। इनके समाज में रात में निकलना अच्छा नहीं माना जाता।

नकली हिजड़ेः- पंजाब में नकली हिजड़ों की तादाद काफ़ी है। इनके अपने-अपने जुुट हैं। बेरोज़गारी की समस्या से निजात पाने के लिए कई लोगों ने खुद को हिजड़ा बना कर लोगों से भारी रक़म ऐंठने का काम शुरू कर रखा है। अबोहर में एक ऐसे ही फ़र्ज़ी हिजड़े को असली हिजड़ों के छापामार दल ने पकड़ा जो उनके नाम पर लोगों से पैसे वसूल करता था। ऐसे कई वारदात पहले भी हो चुके हैं।

परिपाटीः- जब भी किसी हिजड़े की मौत होती है, उसके साथी जश्न मनाते हैं। जानते हैं क्यों? क्योंकि उन्हें लगता है कि उनका साथी एक अभिशप्त जीवन से मुक्त हो गया। किसी भी हिजड़े को जलाया नहीं जाता। उसको दफ़नाया जाता है और इसके लिए बाकायदा मौलवी बुलाए जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि कोई भी हिजड़ा रोता नहीं। यह अशंतः सत्य हो सकता है पर जितना दर्द इनके दिल में होता है और जिसे ये शिद्दत के साथ महसूस भी करते हैं, उसे ध्यान में रखते हुए ऐसा लगता नहीं कि ये बग़ैर रोए रह सकते हैं।

राजनीतिः- बदलते वक़्त के साथ हिजड़ों की सोच में भी भारी फ़र्क़ आया है। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और मध्यप्रदेश से कई हिजड़े परिषद में पहुंचे हैं। मध्य प्रदेश में तो एक हिजड़ा विधायक भी बना। इन लोगों ने जाति, धर्म, वर्ण आदि को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया और जो भी काम इन्हें मिला है, पूरी लगन और ईमानदारी के साथ किया है।

धनः- माना जाता है कि हिजड़ों के पास इन दिनों काफ़ी पैसा हो गया है। अब ये कम-अज़-कम फ़ाक़े तो नहीं काटते। ये अपने ख़र्चे पर लोगों की शादियां कराते हैं। शादियों में भारी ख़र्चा होता है। टी.वी., फ्रिज, सोफ़ा समेत कई चीज़ें दी जाती हैं (भले ही दिखावे के लिए) और मेहमानों का राजसी सत्कार किया जाता है। इन लोगों ने फ़ाजिल्का में राष्ट्रीय अधिवेशन किया था जो हर अख़बार की सुर्खियों में रहा। इसमें 1500 सेे ज़्यादा किन्नर आए और सम्मेलन भर देसी घी के व्यंजन वातावरण में खुशबू फैलाते रहे। क़यास है कि सम्मेलन में लाखों रुपए ख़र्च हुए।

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