-एस. मोहन

खैदरपुर पुल के दूसरे छोर से सड़क तक आने के लिये मुन्नी को खासा इंतज़ार करना पड़ा था। धर्मतल्ला के बाद कलकत्ता की सबसे व्यस्त भीड़भाड़ वाला इलाका खैदरपुर ही था। एक तरफ़ विदेशी वस्तुओं की विशाल मार्किट तो दूसरी तरफ़ हुस्न और जवानी की हसीन मण्डी। रेसकोर्स मैदान से सटा विक्टोरिया पार्क, बिड़ला प्लाटोरियम और पास से निकलती ट्रार्मों का शोर सड़कों में चलते उमड़ते ट्रैफ़िक के शोर में दबता-सा लगता था। यहीं था उस कम्पनी का दफ़्तर जहां मुन्नी काम करती थी। बीस वर्षों से मुन्नी खैदरपुर की उस कम्पनी में कार्यरत थी। अकेली थी, मां और बाबा वर्षों पहले पूरे हो चुके थे। एक भाई था जो दिल्ली में एक फ़िल्मी कम्पनी में काम करता था।

सड़क ख़ाली होते ही वह पार करने के लिए आगे बढ़ी थी। एक कार अब भी तेज़ी से उस ओर मुड़ी थी। मुन्नी घबरा कर चीखी थी और कार के टायर तेज़ ब्रेक के प्रभाव से शू-शू-शू की आवाज़ करते मुन्नी के पास आकर रुके थे। शानदार सूट लिपटा एक चालीस-पैंतालीस वर्ष का युवक नीचे उतरा था। दोनों हाथों का सहारा देते हुए उस युवक ने सड़क पर गिरी पड़ी मुन्नी को उठाया था।

‘कहीं चोट तो नहीं लगी।’ स्वर जाना पहचाना लगा था। गिरने से आंखों पर लगा चश्मा हिल गया था। चश्मे को ठीक से आंखों पर चढ़ाते हुए उसने उस युवक को देखा तो ऊपर से नीचे तक कांप गई। बड़ी मुश्किल से खुद को संभाला था। वो राहुल था जो मुन्नी को देखते ही जड़ हो गया था। मुन्नी इतने वर्षों के बाद उससे इस हालात में मिलेगी राहुल ने सपने में भी नहीं सोचा था। मुन्नी अभी भी राहुल की तरफ़ देखे जा रही थी। उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया था। बीस वर्ष पुरानी कहानी मुन्नी के चक्षु-पटल पर तसवीर सी बनकर उभर आई थी। बहुत से प्रश्न थे जो एक साथ मुन्नी की ज़ुबान पर आने को तत्पर थे परन्तु वाणी जैसे कंठ में उलझ गई थी। वह भरसक प्रयास कर रही थी राहुल से पूछने का कि उसने किस अपराध की इतनी भयंकर सज़ा उसे और उसकी मां को दी है। अपना सब कुछ गंवा कर उसे अपना बनाने में एक प्यार ही तो था जिसके वशीभूत उसने वो सब किया था जिसे कोई धर्म नहीं मानता। एक विश्वास ही था जो उसने हम देनों को दिया था। भरपूर विश्वास था मां को तभी तो दुनियां को नज़र-अंदाज़ कर उस अकेले को अपनी बिरादरी के समक्ष दामाद बनाया था। राहुल अब भी मौन खड़ा था। तभी राहुल की पत्नी अपनी बेटियों के साथ बाहर निकली थी- ‘अरे अब चलो भी। बेटे का प्लेन लैंड होने वाला है।’ राहुल की पत्नी ने साधारण-सी साड़ी में लिपटी मुन्नी को देखते हुए कहा था ‘अपने आप ही तो गिरी है। गाड़ी से तो छूई भी नहीं।’ कहते हुए उसने राहुल का हाथ पकड़ते हुए गाड़ी में बिठा दिया था। धुआं उड़ाती राहुल की कार आगे बढ़ गई थी।

खुद को संभालती आहिस्ता-आहिस्ता मुन्नी ने सड़क पार की थी। किसी तरह ट्राम से अपने कमरे तक पहुंची थी। रात की हल्की परछाई ने रौशनी को अपने आगोश में समेटना शुरू कर दिया था। वह कमरे में घुसते हुए दीवार से सटे पलंग पर निढाल-सी गिर गई थी। वर्षों पुराने अतीत के पल चित्रहार की तरह उसके सामने घूमने लगे थे।

मुन्नी कलकत्ता के एक प्रसिद्ध अख़बार में पत्रकार के पद से जुड़ी हुई थी। खासा दबदबा था उसका अपनी फ़ील्ड में। जवानी की दहलीज़ पर पैर रखते ही उसके मां और बाबा को उसके विवाह की चिंता सताने लगी थी। बाबा की तबीयत ठीक नहीं रहती थी सो वह अपने जीते जी मुन्नी का विवाह कर देना चाहते थे। सिलीगुढ़ी से कलकत्ता, आसनसील, वर्धमान, कूचबिहार, रायगंज जैसे कई शहरों के बाद मुन्नी के लिए और कई जगह भी रिश्तों की खोज की गई परन्तु सफलता की डोर दोनों के हाथ नहीं लगी थी। मुन्नी भी इस बात को अच्छे से जानती थी कि उसकी मां और बाबा उसके विवाह को लेकर बहुत परेशान हैं।

उस रात वह अपनी सहेली के भाई के विवाह समारोह में दुर्गापुर गई थी। वहीं उसकी मुलाक़ात एक लड़के से हो गई। विवाह के बीच मौक़ा मिलते ही उस लड़के ने एक लिफ़ाफ़ा मुन्नी को थमाया था- ‘प्लीज़ इसे पढ़ने का कष्ट करना।’ लड़के ने यह छः शब्द ही उसे कहे थे।

मुन्नी ने अगली सुबह उस पत्र को पढ़ा था। लड़का आस्ट्रेलिया में सी. ए. की डिग्री के पहले वर्ष में प्रवेश कर चुका था। उसकी मम्मी कॉलेज में प्रिंसीपल के पद पर कार्यरत थी जबकि उसके पिता कपड़े के व्यापारी थे। लड़के का नाम राहुल था जो अपने मां-बाप का इकलौता वारिस था। मुन्नी उसे पसंद थी। पत्र साधारण और सीधी सी भाषा में लिखा था। मुन्नी को राहुल पसंद था।

दोनों के प्यार का सफ़र अगली सुबह से शुरू हो गया था। पंद्रह रोज़ की छुट्टी पर आए राहुल ने किसी न किसी बहाने का सहारा लेकर समय मुन्नी के साथ गुज़ारा था। पंद्रह रोज़ बाद वह आस्ट्रेलिया लौट गया था। आस्ट्रेलिया चले जाने के बाद भी राहुल फ़ोन पर मुन्नी से बात करना नहीं भूलता था।

एक वर्ष बीत गया था और फिर अगला वर्ष कब निकल गया उसे मालूम ही नहीं पड़ा। मुन्नी ने अपनी मां को इशारा कर दिया था कि उन्हें उसके विवाह की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। मुन्नी की मां छवि ने उसे छुट्टी लेकर सिलीगुढ़ी आने को कहा तो दुर्गा पूजा में मुन्नी सप्ताह भर की छुट्टी लेकर छवि के पास आ गई।

अपने प्यार की पूरी कहानी उसने अपनी मां छवि को बता दी थी। सुनकर छवि को अच्छा तो बहुत लगा था कि बेटी के ससुराल में ज़्यादा लोग नहीं है। लड़के की मां सरकारी ओहदे पर आसित है। पिता अच्छा बड़ा व्यापारी है और लड़का भी आॅॅस्ट्रेलिया में सी. ए. की पढ़ाई कर रहा है। अपनी कोठी, कार, पैसा है। बेटी सुखी रहेगी। कहीं लड़का दिखावा न कर रहा हो बस इस बात का भय छवि को ज़रूर था। उसे इस बात का भय भी था कहीं उसका आमंत्रण महज़ मुन्नी के प्रति बना क्षणिक रुझान तो नहीं? बहुत से असफल प्रेमी जोड़ों की कहानियों में मुन्नी का नाम न जुड़ जाए इस ख़याल भर से छवि की रूह कांप जाती थी। प्रेम के गुमराह रास्तों में उसकी बेटी मुन्नी का जीवन खो गया तो उसका क्या होगा? अमीर परिवार में मुन्नी अपने को किस तरह ढाल पाएगी? सोच-सोच कर छवि की आंखों की नींद ही ग़ायब हो गई थी। मुन्नी सपनों की ऊंची उड़ान भर रही थी। अपनी मां को विश्वास दिला रही थी। छवि भी पति से बात करने के लिए अपने को तैयार कर रही थी। अपनी बात को मुन्नी के बाबा तक पहुंचाने के लिए उसे ढेर-सी शक्ति जुटानी थी। जब छवि को अपनी बेटी और राहुल के अटूट प्यार पर गहन विश्वास हो गया तब उसने अपनी बेटी के प्यार की पूरी कहानी अपने पति को बता दी। पूरी बात सुनने के बाद सीधे-साधे विचारों वाले मुन्नी के बाबा बुरी तरह से घबरा गए। घर-बार, लड़का उन्हें सब पसंद था परन्तु मुन्नी के साथ ज़रा भी ऊंच-नीच हो गई तो कैसे रिश्तेदारों को अपना मुंह दिखा पाएंगें? कैसे अपना जीवन जी पायेगें? अपने से ऊंचे, धनाढ्य खानदान से अपनी बेटी का रिश्ता जोड़ पाने की हिम्मत वह नहीं कर पा रहे थे। उनके पूरे खानदान में किसी लड़की ने प्रेम विवाह नहीं किया था। सभी शादियां घर के बड़े बुज़ुर्गों ने ही तय की थी जो अब तक बहुत प्यार से चल रहीं थीं। मुन्नी के बाबा ने इस रिश्ते को बेमेल कहते हुए नकार दिया था। अपनी असहमति की मोहर लगा दी थी। उनका कहना था बराबरी से हटकर किया गया कार्य कभी सफलता का जामा नहीं पहन सकता। मुन्नी को अपना रास्ता बदलने की ताकीद कर दी थी उन्होंने। मुन्नी के लिए बाबा का यह फ़ैसला जानलेवा था। मुन्नी तो राहुल को अपना सब कुछ मान चुकी थी। राहुल को छोड़ किसी दूसरे के बारे में सोचना भी जैसे उसके लिए महापाप था। किसी भी तरह बाबा को राज़ी करना उसके लिए ज़रूरी था। छवि ने उससे आग्रह किया कि वह जल्दबाज़ी न करे। बाबा की तबीयत ठीक हो जाए तो वह राहुल के माता-पिता से बात करने के लिए उन्हें राज़ी कर लेगी। अपनी छुट्टियां बिताने के बाद मुन्नी वापिस कलकत्ता चली गई। वहां पहुंच कर उसे मालूम पड़ा कि राहुल आॅस्ट्रेलिया से कुछ दिनों के लिए अपने घर आ रहा है। इस बार मुन्नी ने फ़ैसला लिया था कि वह राहुल को सिलीगुढ़ी ले जाकर मां-बाप से मिलवायेगी। दो माह बीतने के बाद राहुल तो विदेश से वापिस लौट आया था परंतु आते ही उसे मुन्नी का फ़ोन मिला था कि अचानक बाबा की हालत ख़राब होने की वजह से उसे सिलीगुढ़ी जाना पड़ रहा है। वहां पहुंच कर वह उससे संपर्क करेगी।

सिलीगुढ़ी पहुंच कर उसे पता चला कि बाबा की हालत देखते हुए उन्हें आई. सी. यू. में रखा गया है। डॉक्टरों ने उनसे बात करने की मनाही कर दी थी। तीन दिनों तक ज़िंदगी और मौत के बीच जूझते मुन्नी के बाबा की सांस की डोरी टूट गई थी। छवि के छोटे से परिवार पर जैसे दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा था। दुःख की इन घड़ियों को उन्होंने बड़े साहस के साथ पार किया था। दाह संस्कार से लेकर क्रिया की सभी रस्में छवि ने बहादुरी से पूरी की थी। ज़रा-सी कमज़ोरी उसके बच्चों का अहित कर सकती थी इससे बेख़बर नहीं थी। दुःख की इन घड़ियों में राहुल भी उनके साथ था। जाते-जाते राहुल ने उन्हें विश्वास दिलाया था कि वह विवाह मुन्नी से ही करेगा।

घर में मुन्नी और उसकी मां छवि ही रह गये थे। सभी रिश्तेदारों के साथ-साथ उनका बेटा भी दिल्ली लौट गया था। मुन्नी के लिए अब कलकत्ता जाकर नौकरी करना भी कठिन हो गया था। मां को इन परिस्थितियों में अकेला सिलीगुढ़ी छोड़ वहां जाने की बजाय मुन्नी ने अपनी नौकरी से त्याग पत्र भेज दिया था। अब वह मां के साथ सिलीगुढ़ी में ही रहने लगी थी। मुन्नी की नौकरी छोड़ने वाली बात को राहुल ने सही ठहराया था। छवि के पति की कुछ ज़मीन थी जिससे तीस पैंतीस लाख की नगदी छवि को मिल गई थी। पैसे का अच्छा जुगाड़ होने के बाद छवि ने राहुल की मां से बात की। दोनों में बात ज़्यादा नहीं चली। राहुल की मां ने सख़्त लहज़े में अपना फ़ैसला सुनाते हुए फ़ोन रख दिया था। छवि ने अपना मन कड़ा कर मुन्नी से अपना फ़ैसला बदलने के लिए कहा ज़रूर परन्तु वह जानती थी कि उसकी बेटी मानेगी नहीं।

मुन्नी ने कहा था- ‘मां राहुल से हटकर मैं कुछ सोच भी नहीं सकती । राहुल की मां ने इंकार किया है परन्तु राहुल तो शादी करवाने के लिए तैयार है। शादी के बाद हम दोनों उन्हें मना लेंगे। उनका एक ही बेटा तो है भला कब तक उससे और उसकी पत्नी से दूर रह पाएंगे वो।’ मुन्नी की यह बात छवि को जम गई थी।

‘तुम राहुल से बात करो और पूछो क्या वो बारात लेकर सिलीगुढ़ी आ सकता है?’ छवि के मुख से यह बात सुनकर मुन्नी को जैसे मनचाही मुराद मिल गई।

वो दौड़कर अपने कमरे में गई। राहुल विवाह के लिए तैयार हो गया परंतु अपने मां-बाप को साथ लाने में उसने असमर्थता दिखाते हुए यही कहा था वक़्त आने पर वे स्वयं उन दोनों को बुला लेंगे। बुलाने पर ही वे उनके पास जायेगा।

जनवरी माह तय करते हुए राहुल ने छवि को कार्ड छपवाने की अनुमति दे दी थी। कार्ड छपवाये गए जिन्हें छवि ने अपने रिश्तेदारों और मिलने वालों में बटवा दिया था। एक शानदार छोटे से फ़ार्म में छवि ने विवाह का पूरा प्रबंध करवाया था। शहर से एक किलोमीटर हरे-भरे फूलों वाले बाग़ में यह फ़ार्म नुमा हाल था।

शादी वाले दिन सुबह दस बजे फ़ोन की घंटी बजी थी। फ़ोन मुन्नी ने उठाया था- ‘सैवन हिल होटल से राहुल। साथ में कोई नहीं आया। समझ लो कि मैं अकेला।’ सुनकर चौंकना स्वाभाविक ही था मुन्नी का। साथ में खड़ी छवि भी सकते में आ गई थी। यह कैसी बारात थी जिसमें वर पक्ष की तरफ़ से केवल वर ही मौजूद था। छवि फ़ौरन् सैवन हिल होटल में पहुंची थी।

‘अपने कुछ दोस्त यारों को तो साथ लाना था तुम्हें।’ छवि ने राहुल से कहा तो वह बोला- ‘मेरे ज़्यादा दोस्त तो हैं नहीं जो दो-तीन थे उन्हें मम्मी डैडी ने साथ चलने को मना कर दिया।’

‘ठीक है हम ही तुम्हें लेने आयेंगें। तुम्हें तैयार करेंगे। तुम्हारे मां-बाप का फ़र्ज़ भी हम ही निभायेंगे।’ पूरी बात समझा कर छवि वापिस मुड़ी थी। अपने भाई-भाभी और उनके बच्चों को राहुल के साथ बाराती बनकर आने के लिए तैयार किया था। छवि की भाभी ने अपने मिलने वालों की भीड़ जुटाने में कसर नहीं छोड़ी थी। पूरी साज-सज्जा, घोड़ी पर सवार बैंड बाजे के साथ बारात छवि के दरवाज़े पर पहुंची थी तो हर शख़्स के लिए यह अंदाज़ा लगाना कठिन था कि वर अकेला आया है और बाराती वधू पक्ष की देन हैं। पूरी रात शहनाइयां गूंजी थीं। रात भर महिलाओं ने मंगल गीत गाये थे। छवि ने विवाह में होने वाले सभी रीति रिवाज़ पूरी श्रद्धा के साथ किये थे। वर-वधू दोनों की ज़िम्मेवारी छवि पर थी।

इतने सारे लोगों की भीड़ में इस विचित्र विवाह की भनक किसी को न लगे ऐसा सम्भव नहीं था। वर अकेला आया है। वर की तरफ़ से उसका कोई दोस्त तक नहीं है। ख़र्चे का सारा बोझ छवि ने उठाया है अजीब और न मानने वाली बात थी जिसे सब देख रहे थे। दरवाज़े पर दूल्हा आने के बाद होने वाली रस्मों को मुन्नी के मामा-मामी ने ही पूरा किया। लड़की को मिलने वाली साड़ी, मेहंदी, सिंदूर, नगदी सभी का इन्तज़ाम छवि ने बड़ी सफ़ाई से किया था।

पूरी रात फेरों में लग गई थी। बारात ने विदा भी होना था। लड़की की डोली भी जानी थी। डोली के स्वागत के लिए मुन्नी के मामा-मामी सैवन हिल होटल में तैयार खड़े थे। सब कुछ हो जाने के बाद अंतिम रस्म ही तो बची थी, डोली की विदाई। आस की एक किरण छवि को अब भी दिखाई दे रही थी। शायद अब भी राहुल के माता-पिता इस विवाह को स्वीकार कर लें और बहू-बेटे की अंतिम विदाई को स्वीकार करते हुए अपने आंगन में आने की स्वीकृति दे दें। अपने इष्ट देवता का पूजन करते हुए छवि ने दुर्गापुर फ़ोन किया था।

इस बार फ़ोन उसके समधि ने उठाया था- ‘मैं राहुल की सास छवि बोल रही हूं।’ सुनते ही उधर से क्रोधित स्वर उभरा था- ‘कौन छवि हम किसी छवि को नहीं जानते। हमारा बेटा विदेश में पढ़ रहा है। अभी उसकी शादी भी नहीं हुई और सास…।’

‘मेरी बात सुनिए मैं हाथ जोड़ कर प्रार्थना कर रही हूं। आपका बेटा राहुल सिलीगुढ़ी में है। पूरे रस्मों रिवाज़ के साथ मैंने राहुल और मुन्नी का विवाह करवा दिया है। डोली जाने में कुछ ही मिनट शेष रह गये हैं आप दोनों का आशीर्वाद अब भी मिल जाये तो मैं इन दोनों की डोली दुर्गापुर में भेज सकती हूं।’

सुनकर चीख पड़े थे राहुल के पिता- ‘मैंने कहा न मेरा बेटा विदेश में है उसका विवाह हम अपनी पसंद से करेंगे। तुम्हारी बातें एक फ़िल्मी खेल की तरह लग रही हैं जिसका अच्छा बुरा तुम्हें ही भोगना है।’ राहुल के पिता ने फ़ोन काट दिया था। बेटी के प्रेम के चलते छवि अपनी बेइज़्ज़ती सहन कर रही थी वरना इतना सब सुनने की ताक़त उसमें नहीं थी। बेटी के हठ के सामने वह झुक गई थी। जीवन का अंतिम सबसे बड़ा जुआ उसने इस तरह का विवाह करके खेला था। वह जानती थी पासा उलटा पड़ गया तो सिवा मौत के उन दोनों की झोली में कुछ भी न बचेगा। बहुत दहशत भरा दांव खेला था उसने।

डोली को सैवन हिल होटल की तरफ़ ले जाया जा रहा था। शाम को चायपान के समारोह के बाद छवि ने उन दोनों को हनीमून के लिए शिलांग के लिए दो टिकटें दे दी थी।

पूरा एक सप्ताह शिलांग में बिताने के बाद ये दोनों वापिस सिलीगुढ़ी लौट आए थे। आगे का प्रोग्राम राहुल ने ही बनाया था। दो दिन बाद ही उसे वापिस आॅॅस्ट्रेलिया जाना था। छः माह बाद उसकी डिग्री पूरी होनी थी। उसके बाद उसे वापिस आना था।

छः माह बाद वापिस आने की बात कह कर राहुल ने आॅॅस्ट्रेलिया की उड़ान भर ली थी। छवि और मुन्नी के पास इंतज़ार के सिवा कोई चारा भी तो नहीं बचा था। राहुल चला गया था मुन्नी को सिलीगुढ़ी छोड़ कर। वह यदा-कदा मुन्नी से सिलीगुढ़ी बात करता रहता था। उसने मुन्नी को यह भी बताया था कि वह बीच में तीन दिन के लिए दुर्गापुर भी गया था जहां से उसके मम्मी-डैडी ने कैनेडा जाकर बसना था। वे दोनों कैनेडा चले गए थे।

राहुल को भी अपनी डिग्री पूरी करने में तीन माह और लगने थे। मुन्नी के लिए तो तीन माह तीन वर्षों से प्रतीत हो रहे थे। कब राहुल आए और वो भविष्य की योजनाएं बनाये- इसी उधेड़बुन में उसका दिन गुज़र जाता था। छवि भी हर पल मां से अपने दामाद के आने की मन्नत मांग रही थी। पता नहीं क्यों उसके मां-बाप का दुर्गापुर छोड़कर जाना उसे अच्छा नहीं लगा था। विचार तो न जाने कैसे-कैसे थे जो पल भर में छवि का जीवन लील सकते थे परन्तु छवि उन्हें अपने दिमाग़ तक नहीं आने देती थी। अपनी बेटी की हालत से भी वो अनजान नहीं थी। प्रेम में वियोग का दर्द वह भलीभांति समझती थी फिर मुन्नी का तो सब कुछ मंझदार में था। पति विदेश में पढ़ रहा है इसके सिवा उसकी बेटी क्या जानती थी। राहुल कहां रहता है। आॅॅस्ट्रेलिया जैसे विशाल देश में उसे खोजना भी तो आसान नहीं है। वह फ़ोन करता है बात करता है सभी कुछ विश्वास पर ही तो टिका हुआ है।

छः माह बीतने के बाद का पल-पल जानलेवा लग रहा था उन दोनों को। सप्ताह भर बाद राहुल का फ़ोन आया था जब मुन्नी ने चोगा उठाया था- ‘राहुल…’, शब्द ही निकला था और मुन्नी की रूलाई फूट पड़ी थी। रुकी तो वह भरे स्वर में बोली थी- ‘कहां थे तुम? इतने दिनों बाद फ़ोन कर रहे हो? जानते नहीं तुम्हारी आवाज़ सुनने के लिए हम पल-पल तड़प रहे हैं। तुम्हारी पढ़ाई पूरी हो गई है। डिग्री भी मिल गई होगी … तुम कब आ रहे हो?’

‘जल्दी ही … ज़्यादा इंतज़ार नहीं कराऊंगा। डिग्री के बाद जॉब की तैयारी भी करनी है। उसके लिए छः महीने का एक ओर रिफ़्रेशॅर कोर्स है। मैं उसमें एडमिशन ले रहा हूं सो थोड़ा समय और लगेगा।’ सुनकर मुन्नी का हलक सूख गया। उसके चोगे वाला हाथ कांपने लगा था। पल बर में आंखों में आंसू डबडबाने लगे थे। कांपते हाथ वाला चोगा उसने पास खड़ी छवि को पकड़ाया था- ‘हां बेटा मैं बोल रही हूं।’ ‘मां मुन्नी को समझाओ। उसे रोना नहीं चाहिए। छः महीने की तो सारी बात है। डिग्री के बाद ये समय पूरा करना भी ज़रूरी है। इस बीच मैं मम्मी-डैडी को भी राज़ी करने की कोशिश करूंगा।’ राहुल ने छवि से कहा। इतनी दूर बैठे राहुल पर कोई दबाव डालना भी समझदारी वाली बात नहीं थी। वह समझ सकती थी अब डोर उसके हाथों में नहीं है। सब कुछ इतना आसान नहीं था जो शादी के वक़्त छवि ने सोचा था। अपनी बेटी के सुख की चाह के आगे छवि ने सारी सोच जैसे दफ़न कर दी थी। किसी से सलाह लेने की स्थिति भी नहीं थी। सभी मुन्नी के बाबा वाला फ़ैसला ही सुनाते।

‘तुम ठीक कह रहे हो।’ अपने भविष्य को सुखद बनाने को क्या करना चाहिए ये तुम हम दोनों मां-बेटी से बेहतर जानते हो। एक तरफ़ मुन्नी के बाबा की आक्समिक मौत का दुःख तो दूसरी तरफ़ तुम्हारी याद में निकलते मुन्नी के आंसू मुझसे देखे नहीं जाते।’ छवि का गला भी भर आया था।

‘मेरी मजबूरी है मां। तुम तो समझ सकती हो। मुन्नी को हौसला दो मां। मैं उसी के लिये तो ये सब कर रहा हूं।’ राहुल ने कहा तो राहत ही मिली थी छवि को। मुन्नी के लिए ही तो सोच रहा है। जहां इतने वर्ष गुज़र गए बाक़ी का समय भी गुज़र जाएगा। अन्त में उसने इतना ही कहा था- ‘बेटे इस दौरान एक चक्कर लगा जाते तो मुन्नी का दिल ठीक हो जाता। मैं आने-जाने का ख़र्चा तुम्हारे बैंक वाले खाते में डाल रही हूं तुम निकलवा लेना।’

‘ठीक है मां। मैं शाम को मुन्नी से बात करूंगा।’ कहते हुए राहुल ने फ़ोन बन्द कर दिया था।

वक़्त अपनी रफ़्तार से दौड़ रहा था। घड़ी की सुइयों की रफ़्तार वही थी परन्तु मुन्नी को तो अपने रुके हुए भाग्य की तरह घड़ी की सुइयां भी स्थिर खड़ी लग रही थीं। उसे लगता था उस का जीवन ही जैसे थम गया है। उसकी सांसे रुक गई हैं। उसके लिए न दिन था और न रात थी। जीती जागती मृत देह से अधिक कुछ भी तो नहीं था मुन्नी के पास। उसकी दुनियां तो सिर्फ़ राहुल ही थी जो उससे सैंकड़ों मील दूर था। वहां तक पहुंचने का कोई साधन भी तो नहीं था उसके पास। इंतज़ार … इंतज़ार … इंतज़ार … इंतज़ार … बस यही तो रह गया था उन दोनों के पास। सुबह, दोपहर और फिर शाम का रात में बदलना यही देखते-देखते मुन्नी समय गुज़ार रही थी। घर से बाहर निकलना मुन्नी को अच्छा नहीं लगता था। हर पल हंस कर गुज़ारने वाली मुन्नी के मुख में जैसे ताला लग गया था। वह सोचती थी कैसा है ये प्यार, जो चाहे तो जीवन को खुशियों से भर दे, रंगों से लबालब भर दे या फिर धकिया दे तो जीवन अंधेरे कुओं में धक्के खाता सूरज की किरण देखने तक को तड़पता रहे।

छवि बीमार रहने लगी थी। अपनी बेटी की व्यथित ज़िंदगी उससे नहीं देखी जा रही थी। उसके सामने मुन्नी अपने को हंसती मुस्कुराती दिखाने का असफल प्रयास ही करती थी। उसके चेहरे से टपकती वेदना छवि से छिपी न रहती थी परन्तु उसे उजागर कर मुन्नी को समझाने की हिम्मत भी उसमें बची नहीं थी।

क़रीब एक माह से राहुल का फ़ोन भी नहीं आया था। मुन्नी की परेशानी बढ़ गई थी। छवि की हालत भी अन्दर से अच्छी नहीं थी। दोनों ही घर में क़ैद थी। दो दिनों से लगातार बरसात हो रही थी। लगता था पहाड़ों के पीछे बैठी किसी दुःखी औरत की आंखों से निकलने वाले आंसू पूरी सृष्टि को ही डुबो देना चाहते हैं। मुन्नी अपने कमरे की खिड़की के पास बैठी उदासी भरी आंखों से गली के छोर को देख रही थी। जहां छतरी पकड़े बैठे वह बूढ़ी अब भी किसी दानी का इंतज़ार कर रही थी जो दस्सी पंजी उसकी हथेली में थमा देते। मुन्नी बचपन से उस बूढ़ी को इसी हालत में हथेली फैलाये गली के छोर पर देखती थी। बीस वर्ष के अंतराल में शायद ही कोई ऐसा दिन रहा हो जब गली का वो छोर शून्य रहा हो। लोगों का कहना था उस बूढ़ी का भी कभी कोई घर होता था। एक रात उसके शराबी पति ने उसे मारपीट कर घर से निकाल दिया। तभी से उसका स्थान वहीं हो गया था जहां उसकी जवानी पर बुढ़ापे का रंग चढ़ गया था। उसने उस जगह को नहीं छोड़ा था। तीन फुट की ज़मीन पर अपनी ज़िंदगी के खूबसूरत दिन गुज़ारने वाली उस औरत की ज़िंदगी में कोई छोटा हादसा तो नहीं हुआ होगा जो संसार की चकाचौंध से ही उसका दिल भर गया। उदासी बढ़ने लगी थी मुन्नी खिड़की की ओट में हो गई थी। बरसात की बौछार अब रिमझिम में बदल गई थी। लोगों का आवागमन शुरू हो गया था।

मुन्नी को मां की आवाज़ सुनाई दी थी- ‘कोई दरवाज़े पर खड़ा तुम्हें बुला रहा है। मुन्नी ने बाहर का दरवाज़ा खोला तो सामने ख़ाकी लिफ़ाफ़ा लिये कोरियर वाला खड़ा था।’

‘ऑस्ट्रेलिया से पत्र आया है।’ सुनते ही हस्ताक्षर करते हुए मुन्नी ने कोरियर को हाथों से ले लिया था। लिफ़ाफ़ा देख कर मुन्नी हैरान रह गई थी। राहुल ने आज तक कोई चिट्ठी नहीं लिखी थी। जब भी बात की थी मोबाइल से ही की थी। लिफ़ाफ़ा हाथ में थामे वह मुड़ते हुए तेज़ी से कमरे में वापिस आ गई थी।

‘अरी कौन था मुन्नी?’ पूछते ही तपाक से बोली थी वो- ‘पत्र है मां। देखती हूं कहां से आया है।’

रात से फड़क रही आंख को बायें हाथ की दो बड़ी उंगलियों से दबाते हुए वो भी दबे पांव दरवाज़े की ओट में आ गई थी। अनहोनी के भय से छवि ग्रस्त हो गई थी। मुन्नी ने हांफते हुए उस लिफ़ाफ़े को खोला था जो कुछ पल पहले कोरियर देकर गया था। सफ़ेद रंग के काग़ज़ पर कुछ पंक्तियां लिखी थी। पत्र पढ़ते ही मुन्नी की हिचकियां बंध गई और वह लड़खड़ाते हुए बिस्तर पर गिर पड़ी थी। छवि लपक कर मुन्नी के क़रीब पहुंची थी। उसके माथे को सहलाया था। सिर पर गीला हाथ फेरा था और मुख पर ठण्डे पानी के छींटे मारे थे। मुन्नी की मूर्छा टूटी तो उसने उस काग़ज़ को मां की तरफ़ बढ़ा दिया था। पत्र पढ़कर छवि के पैरों तले से ज़मीन खिसक गई थी। राहुल ने लिखा था उसके मां-बाप का कहना है उसकी पढ़ाई लिखाई पर अब तक तीस लाख ब्याज सहित लग चुका है। कहीं से भी लाकर दे सको तो अपनी मरज़ी कर सकते हो वरना विवाह तुम्हें हमारे कहे अनुसार करना पड़ेगा। फ़ैसला तुम पर और मां जी पर है। मैं दो दिन तक आॅस्ट्रेलिया में पैसों का इंतज़ार करूंगा। उसके बाद मुझे कैनेडा जाना है। मम्मी-पापा को मनाने। उनके साथ रहने के लिए इस शर्त को पूरा करना बेहद ज़रूरी है।

इस पत्र को पढ़ने के बाद बाक़ी कुछ भी नहीं रह गया था। सिवा हाथ मलने के कुछ भी न बचा था। बहुत बड़ा असहनीय आघात पहुंचाया था राहुल ने। दो दिन का समय ही राहुल ने दिया था उसके बाद वह कैनेडा चला जायेगा। ऑस्ट्रेलिया का ही पता किसी को मालूम नहीं था जबकि उसने कैनेडा जाने की बात लिख दी थी।

जिस इन्सान के लिए दुनियां की सबसे बड़ी चीज़ अपनी इज़्ज़त दांव पर लगा दी गई हो उसे अपना बनाने के लिए इतनी बड़ी रक़म पास होने पर भी देने की बात नहीं सोची जा सकती थी। बहुत रोई थीं दोनों। किसी को अपना दुःख बता कर सिवाए बेवकूफ़ कहलवाने के छवि को कुछ भी नहीं मिलना था। उन्होंने अंत में अकेले ही बहुत बड़ा फ़ैसला कर लिया था। सिलीगुढ़ी छोड़ने का फ़ैसला। राहुल का पत्र आये बीस दिन भी नहीं बीते थे जब अपना सब कुछ बेचकर वे दोनों कलकत्ता चली गईं।

दुःखी हृदय और टूटे अरमानों को लेकर वे कलकत्ता आ गई थी। एक छोटा-सा फ़्लैट लेकर उन्होंने अपनी ज़िंदगी की शुरुआत कर दी थी। मुन्नी ने खैदरपुर की एक कम्पनी में नौकरी कर ली थी। सुबह काम के लिए निकलना और रात को वापिस लौटना यही उसकी दिनचर्या बन गई थी। अपने अतीत को काफ़ी हद तक भुलाने में मुन्नी ने स्वयं को तैयार कर लिया था किन्तु छवि का बूढ़ा शरीर इतने बड़े विश्वासघात को सहन नहीं कर सका। तीन वर्ष भी अपनी बेटी का साथ वो नहीं दे सकी थी और बेरहम दुनियां के हवाले मुन्नी को छोड़ चल बसी थी। मुन्नी अकेली रह गई थी। भाई-भाभी कुछ दिन कलकत्ता रहकर वापिस लौट गए थे। ये संसार बड़ा स्वार्थी है। कोई किसी के लिए नहीं जीता किसी के लिए नहीं मरता। जिसे जब जाना है तभी जाना है उसे जाने से कोई शक्ति रोक नहीं सकती।

छवि की सत्रहवीं बरसी में पण्डित को भोजन करवा कर वह दफ़्तर आई थी। एक घंटा देर से आने के कारण ही उसे शाम को एक घंटा अधिक दफ़्तर में बैठना पड़ा था।

‘कहीं चोट तो नहीं लगी।’ शायद उसे दोबारा सुनाई दिया था। उसने चौंक कर सामने देखा तो वहां कोई नहीं था। राहुल की गाड़ी रेसकोर्स में सामने वाली सड़क की भीड़ में खो गई थी। उसकी आंखें उसी सड़क की तरफ़ थी तभी किसी का स्वर सुनाई पड़ा था- ‘मां जी चढ़ जाओ सड़क की पटरी पर। वो तो भाग गया।’ पटरी पर चढ़ते हुए मुन्नी बुदबुदायी थी- ‘वो तो बीस साल पहले ही भाग गया था।’

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