Nayi Udan

मेरे मन रूपी अंधेरे से एक चीत्कार-सी उठ रही है कि मैं कहां हूं? क्यों हूं? बस हर बार यह टीस हृदय को अत्यधिक उद्वेलित कर देती है। सोचते-सोचते ही मैं लेट गई और अपनी आंखों को बंद करके स्वप्नों में विचरण करने लगी थी कि मुझे मेरा ही नाम सुनाई दिया।

“मोहिनी”

“मोहिनी” आंखें खोलकर देखा तो पन्नाबाई मुंह में पान दबाए मुझे गुस्से में कह रही थी, “चलो महारानी, कब तक यूं ही लेटे रहेगी! तेरे यह रोज़-रोज़ के चोंचले अब मुझसे सहन नहीं होते। तवायफ़ हो तवायफ़ की तरह ही रहो। यह आराम, हराम है, समझी।”

अपनी आंखों में मैंने अपने लिए एक गाली देखी और चेहरे पर दया के भाव देखे समझ नहीं आ रहा कि ये कब शुरू हुआ और कहां ख़त्म होगा कभी ख़त्म भी होगा या नहीं? समय के चक्र के साथ-साथ हमें भी तो आगे ही बढ़ते रहना है। बस यही सोचकर मैं उठी और झूठ के आवरण को ओढ़कर शर्म के स्थान पर कुटिल मुसकान को पहनकर कमरे से बाहर आ गई। हर चेहरे पर अपने लिए प्यास ही देखी परन्तु एक चेहरे पर आकर मेरी नज़रें रुक गई। ऐसे लगा मानो वह आंखे मुझमें, मुझे ही खोज रही हों और पास जाकर देखा तो यह मैं स्वयं ही हूं जो आईने में अपने अंदर की उस मोहिनी को खोज रही है जो इस धुंधली भीड़ में कहीं खो चुकी है। अफ़सोस इस बात का है कि यहां किसी के पास फुरसत नहीं है कि जो मेरे भीतर बसी मोहिनी को खोज सके। यहां तो सबको मात्र बाहरी मोहिनी की ही प्यास थी। मैं एक ओर चुपचाप बैठी थी तो दूसरी ओर पन्नाबाई ग्राहकों से पैसे को लेकर बहस कर रही थी। मैं अपने शरीर को बिकते तो नहीं बचा पाई परन्तु अपने इस अस्तित्त्व को बचाना चाहती थी। मैं दुल्हन समान सजी व सुबह विधवा भी हो गई।

बेचैनी ने चारों ओर एक दायरा-सा बना लिया है। आज मन है कहीं घूमने का, कुछ अपने लिए करने का। पन्नाबाई मन की बुरी नहीं थी। बस वह भी हालात की ही शिकार थी। इसलिए उन्होंने मेरी बेबसी को समझा व कुछ पैसे मेरे हाथों में देते हुए कहा, “मैं एक विश्‍वास के साथ तुम्हें तुम्हारी ज़िंन्दगी के कुछ लम्हें उधार दे रही हूं, इस कर्ज़ को वापिस करने आओगी?” मैंने पन्नाबाई की आंखों में देखते हुए कहा, ‘वापिस आने के अतिरिक्‍त मेरे पास कोई और रास्ता भी तो नहीं है।’       

मैं कोठे की सीढ़ियां उतरने लगी। सीढ़ियां उतरते-उतरते मन बहुत भारी हो रहा था। बिल्कुल वैसे ही जैसे इस कोठे की सीढ़ियां चढ़ते समय हो रहा था। हर बार नए परिवेश में आते इंसान की मानसिक स्थिति क्यों इतनी बदल जाती है? यह प्रश्‍न स्वयं में एक पहेली है। परन्तु मैं इन बातों की ओर ज़रा भी ध्यान नहीं देना चाहती क्योंकि बाहर खुला आसमान मुझे आवाज़ देकर पुकार रहा है और मैं बेचैन हूं उसकी बांहों में जाने के लिए परन्तु यह समझना अत्यन्त कठिन ही रहा है कि सबसे पहले किस जहान को देखूं।

मैंने इस मायानगरी के बारे में सुन तो अवश्य रखा है कि यहां इंसान को जीने के लिए बहुत से सुअवसर मिलते हैं परन्तु मैंने अपने लिए यहां अभी तक एक भी ऐसा अवसर नहीं देखा। जब मैं पन्नाबाई के पास आई थी तो मात्र पन्द्रह वर्ष की थी अब सात वर्ष पश्‍चात भी उसी हालात में हूं। जीवन के पहले पन्द्रह वर्ष एक अनाथ आश्रम में बिताए और अन्य सात वर्ष दूसरे अनाथ आश्रम में बिता रही हूं। समझ नहीं आ रहा है कि किस स्थान को अपना कहूं। ख़ैर अब मैं यह नहीं सोचना चाहती, कम से कम अब तो नहीं। कुछ पल ही तो मिले हैं मुझे जीने के तो क्यों मैं इसमें अपने बीते कल को याद करते हुए अपना आज भी गंवा दूं।

Nayi Udan1सबसे पहले मैं समुद्र की तरफ़ गई। ढेर सारे लोगों को एक साथ खुश देखकर जाने क्यों मुझे भी बहुत खुशी हुई। मैंने अपने बालों को खोला, पांव में पहनी चप्पल को उतारा व अपने दुपट्टे को हवा में लहराते हुए मैं बच्चों की तरह समुद्र के किनारे दौड़ने लगी। मानो मैं अपने बचपन को आवाज़ देती, उसे खोजती हुई अपने पास पुकार रही थी। सब तरफ़ खुशियां ही खुशियां और मेरे भीतर की खुशी हंसी में लिपटकर बाहर आ रही थी। फिर मैंने कुछ गुब्बारे ख़रीदे व उन्हें हवा में उड़ा दिया। कुछ पल के लिए ऐसा लगा मानो किसी ने मुझे ही खुले आकाश में उड़ने के लिए छोड़ दिया हो।

फिर सोचा बाहर आई हूं तो क्यों न कुछ अपने मन का ख़रीद लूं। आज तक दूसरों के लिए ही पहनती आई हूं। यही सोचकर मैं एक कपड़ों की दुकान में गई। कई चेहरे तो पहचाने से लगे। पता नहीं उन्होंने या तो मुझे पहचाना नहीं या फिर ………? मैंने अपने मन पर पत्थर रख लिया शायद ये सभी इज़्ज़तदार लोग केवल रात के काले साये के समान है जो सुबह का साथ नहीं देते तभी कुछ मनचले एक लड़की को सताने लगे। सभी का ध्यान उस तरफ़ गया। सभी लोगों ने मिलकर उन मनचलों को डांटा व लड़की को बचाया। जैसे ही वह मनचले मुझे तंग करने लगे कोई भी मेरी मदद करने आगे नहीं बढ़ा बल्कि मैंने स्वयं ही सहायता मांगी तो मेरे कानों में शब्द घुलने लगे, “ये तो तुम जैसी औरतों का रोज़ का काम है। फिर नाटक क्यों करती हो पता नहीं इनको चैन नहीं आता जो इस तरह हमारा समाज ख़राब कर रही हैं,” सारे रास्ते यह शब्द हथौड़े की तरह मेरी आत्मा पर प्रहार करते रहे।

मैं एक निश्‍चय के साथ कोठे की सीढ़ियां चढ़ने लगी। मैंने पन्नाबाई को देखा और उनसे पूछा क्या आप अपने और मेरे अस्तित्त्व तो पूरा करने में मेरा सहियोग देंगी।

उनकी आंखों में पहले तो हैरानी की लहर दौड़ पड़ी फिर एक आशा की किरण ने उनके चेहरे को और भी दमका दिया एक सप्‍ताह पश्‍चात् ही अपने कोठे के पास मैंने एक नृत्य कला का स्कूल खोला। सबको नृत्य कला सिखाने लगी। मैं अपने साथ-साथ बाकी की वेश्याओं की भी क़िस्मत बदलना चाहती हूं साथ ही उन्हें भी समाज के सम्मानीय स्थान दिलवाना चाहती हूं। यही सोच कर मैंने अपनी संस्था खोली। जिसमें कोठों को बंद न करके बल्कि इसमें केवल शरीरों की ख़रीद को बंद किया गया। इन लड़कियों को नृत्य कला में निपुणता दिलवाकर इनकी प्रतिभा को बाहर लाना ही संस्था का मक़सद हो गया एक के बाद एक लड़कियां इस धन्धे को छोड़कर मेरे पास आती गई व मेरे लिए इनकी मंज़िल तय करना भी आसान होता गया परन्तु समाज के कुछ इज़्ज़तदार लोगों को ये बात पसंद नहीं आई कि बाज़ार में बिकने वाली एक चीज़, एक इंसान का रूप ले ले। इसलिए उन्होंने मेरा विरोध करना आरम्भ कर दिया परन्तु पन्नाबाई व अन्य लड़कियों के साथ ने सपनों को हक़ीक़त के पर लगा दिए। सत्य ने असत्य को ढांप लिया।

Nayi Udan pic 5मेरी संस्था की लड़कियों के नृत्य कौशल की धूम मचने लगी और हमें समाज में सम्मानीय स्थानों पर नृत्य-नाटिका प्रस्तुत करने के लिए बुलाया जाने लगा। धीरे-धीरे समय के साथ मेरे स्कूल की प्रसिद्धि होने लगी ओर मेरे इस कोठे व साथ के अन्य कोठों की रंगत बदल गई। अब यहां कोई वेश्या नहीं थी बल्कि मां सरस्वती की पुजारिनें रहती थीं।

ईश्‍वर का आशीर्वाद तब बरस पड़ा जब हमारी संस्था को एक मंन्दिर में कृष्ण-जन्माष्‍टमी में कृष्ण जी के जीवन पर नृत्य-नाटिका प्रस्तुत करने का आमन्त्रण मिला। उस पल मैंने अपने भीतर अपने अस्तित्त्व सहित सबकी आंखों में आंसुओं रूपेण खुशी को देखा एवं अनुभव किया।

समय चक्र सहित समाज की सोच भी हमारे लिए बदली। आख़िर समाज ने हमें एक सम्मानीय स्थान दे ही दिया। आज हम सबके जीवन का सबसे विशेष दिन है क्योंकि आज हम पन्द्रह अगस्त को भारत की राजधानी में स्वतन्त्रता प्राप्‍त‍ि पर एक नृत्य-नाटिका प्रस्तुत करने वाले हैं परन्तु यह कह पाना अत्यन्त कठिन है कि ये किसकी स्वतन्त्रता का सुअवसर है, हमारे देश की या हमारी। परन्तु यह बात अवश्य है कि यह एक नए समाज की ओर अग्रसर होने का पहला क़दम है, जहां कोई अस्तित्त्वहीन नहीं है, बल्कि सब साथ हैं।

तालियों की गूंज व फूलों की महक भी मानों नवजीवन व नवसमाज का स्वागत करने के लिए बेचैन है। हृदय में एक आशा सहित मंच पर पहला क़दम रख रही हूं कि ये जीवन की नई उड़ान की ओर पहला क़दम तो है परन्तु आख़िरी नहीं।      

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